हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Saturday, November 3, 2007

तुम बिन....


तुम बिन भी सूरज निकला
दिन रोशन हो गया
सुबह चिड़िया चह-चहा रही थी, पेड़ पर।

रात चांद वैसे ही निकला, आज भी
थोड़ा घिस गया था मगर
कल भी नींद आयी मुझे
थोड़ी देर से आई थी लेकिन।

बहुत कुछ नहीं बदला है
तुम्हारे नहीं होने से
मैं ऑफिस भी गया
वैसे ही काम किया था,
रोज़ की तरह।
थोड़ा कम बोला
बैठा रहा गुमसुम सा
उस दिन ज़रुर।

लेकिन खाना
उस दिन भी खाया था मैंने
एक वक्त कुछ भूख कम सी लगी
तो पानी ज़्यादा ही पिया मैंने।

मैं हंसा भी भरपूर था
बस हंसी अंदर नहीं थी।

हां... नहीं देखा मैंने आज तुम्हें
नहीं ढूंढ़ा नज़रों ने तुमको।

क्योंकि, तुम बिन भी सूरज निकला
चांद चमका
सबकुछ वैसे ही चला
जैसे पहले था।।

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Sunday, October 7, 2007

विवशता

कवि !
तेरी कल्पना के
शब्दों के अर्थ
क्या पूर्ण होंगे ?
या यूं ही,
सुबह की ओस की तरह
धूप आते ही
वाष्प बनेंगे।

कवि !
तेरी अभिलाषा
कभी जीवंत हो
रंगेगी
दुनिया को
या यूं ही
इंद्रधनुष सी
पल में गायब होगी।

कवि !
तेरे विचारों का
विस्तृत आंगन
देगा आमंत्रण ?
सद्भाव बन....
या यूं ही
भीड़ रौंदेगी
इन्हें...
और धूल सी
उड़ेगी चारो ओर।

कवि !
तेरे विचारों की तीखापन
भ्रस्ट
विचारों को छेद सकेगा
या यूं ही
उनसे टकराकर
हंसी का पात्र बनेगा ।।

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