हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Wednesday, September 30, 2009

ये जो लिख रहा हूं मैं


क्या? ये गहरा प्रेम मेरा
सार्थक हो पाएगा
या यूं ही
सदा शब्दों के फूल खिलाने होंगे।।
क्या? तुम समझोगे इनके अर्थ
ये जो लिख रहा हूं मैं
इसका कुछ तो मतलब होगा
या यूं ही अनजाने से
पड़े रहेंगे / कागज पर चुपचाप।।
मेरे मन के भावों की
सीमा को नाप सकोगे क्या?
यां यूं ही
उथला जान भूला दोगे
क्या? मेरे कविता के शब्दों का
तुम पर सम्मोहन होगा
या यूं ही
ये निष्फल से होकर / पछताएंगे।।

Labels:

Saturday, September 19, 2009

कलावती को देखा है ?


तो कलावती भी चुनाव लड़ेगी। आप कहेंगे, कौन .... कलावती भाई?
तो जवाब है... वो कलावती, जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं है। लेकिन आप इस कलावती को घर से बाहर आते-जाते कहीं भी पहचान सकते हैं। ये कलावती देश के उन करोड़ों भूखे लोगों में से ही एक है, जो एक वक्त भरपेट खाने के लिए तरसती आंखों से दूसरे के खाने को देखती हैं। वो कलावती जिसका पति ७-८-९-१० बच्चे पैदा करने के बाद एक दिन इसलिए फांसी लगाकर मर जाता है, कि वो साहूकार का कर्ज़ नहीं चुका सकता। ये कलावती उन करोड़ों में से एक है, जो गोल-गोल रोटी के अलावा कोई दूसरा सपना नहीं देखती।

लेकिन गरीबी, लाचारी और मुफलिसी के बाद भी सपने हैं कि आंखों में तैर ही जाते हैं। तो कलावती जिसके लिए एक वक्त की रोटी भी मुश्किल है, चुनाव लड़ेगी। सवाल ये है कि ये सपने मुफलिसी में जागे कैसे? आखिर वो कौन सी बात है.... जो मुफलिसी में भी पलती है... और आगे बढ़ती है। दरअसल कलावती वो औरत है, जिसने मुफलिसी के उस तिम छोर को देख लिया है, जहां से नीचे कुछ नहीं।... नौ बच्चे और कलावती। जहां उसके पति ने हिम्मत हारी थी, वहीं से कलावती को आगे बढ़ना था..... नौ बच्चों के साथ। कलावती भी खा सकती थी सल्फास की एक गोली, शायद ये उस जैसे मुफलिसी में आसान रास्ता होता, लेकिन कलावती ने मुश्किल रास्ता चुना। कलावती को मरना मंजूर नहीं था। उसे जीना था।
वैसे बात कलावती की पहचान की हो रही थी। तो कलावती की एक पहचान भी है। कलावती वो महिला है, जिसकी झोपड़ी पर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी एक बार गए थे। जैसे गरीब की कुटिया पर भगवान पधारे थे। कांग्रेस के युवराज के जिस जगह कदम पड़ें, वहां दूसरे नेता ना जाएं। ऐसा भला कैसे हो सकता है ? नेता भी गए, और पीछे-पीछे कैमरे भी। और कलावती अखबारों में छपने लगी। इससे भी अधिक टीवी चैनलों ने रातों-रात कलावती के ज़रिए भारत की सुदूर गांव की गरीबी को उभार कर रख दिया।
इसका कितना फायदा कलावती या उसके गांव के दूसरे लोगों को हुआ पता नहीं। लेकिन कलावती को इसने आम से कुछ खास ज़रुर बना दिया। हालांकि दिक्कतें उतनी ही हैं अभी भी। कलावती विदर्भ के उन हज़ारों किसानों की विधवाओं का प्रतीक बन गई है। जिन्होने सूखे... और फिर साहूकारों के जाल में फांसी का फंदा लगा लिया... या फिर ज़हर खाकर अपनी जान दे दी।
कलावती चुनाव लड़ेगी। लेकिन उसे कांग्रेस टिकट नहीं दे रही। वो गरीब है, उसके पास तो नामांकन के लिए भी पैसे नहीं होंगे। और उसके अमीर प्रत्याशियों के सामने जीतने की कितनी उम्मीद है ? बीजेपी या शिवसेना भी उसे टिकट नहीं देगी, क्योंकि उन्हें कलावती में जीत की कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।
सब जानते हैं, कि कलावती का चुनाव लड़ना क्या है? जहां केवल हार-जीत के मायने हों। वहां कोशिश का मतलब भी क्या है? लेकिन विदर्भ के किसानों की मुश्किलों और उनके खराब हालातों के लिए आवाज़ उठा रहे लोगों के लिए इसके मायने हो सकते हैं। और उन तमाम हज़ारों लोगों के लिए तो और भी अधिक जिन्होने सूखे और साहूकारों के जाल में अपनों को खो दिया।
हालांकि एक बड़ा सवाल फिर भी बाकी है, कि वणी क्षेत्र के लोग मतदान के दिन पचास रुपए के नोट से अपने वोट को बेच तो नहीं देंगे? ( वणी वही जगह है, जहां से कलावती विदर्भ जनसंघर्ष समिति के समर्थन से चुनाव लड़ने की बात कह रही है).... कहीं मतदान के दिन भूखे लोगों की भूख इस क़दर तो नहीं बढ़ जाएगी, कि उसको सहन कर पाना मुश्किल हो जाएगा? और फिर १० रुपए का एक नोट और घर भर के लिए खाना वोट के लिए काफी है। ज़ाहिर है, कुछ लोग इस फिराक में तो होंगे ही, कि कैसे भूखे लोगों के वोट को दो रोटी से खरीद लिया जाए।
अगर अपने ही हालातों से जूझती, लड़ती कलावती हारी तो ये तय हो जाएगा, कि वणी के लोग और कुछ सालों के लिए वैसे ही हालातों में जीने को अभिशप्त हैं।

Labels:

Thursday, August 20, 2009

बादल पूछते हैं / मन का हाल


वहां बादल पूछते हैं / मन का हाल
हवा सहलाती है गाल
बारिश की हल्की-हल्की बूंदें
गीला कर देती हैं मन
कोहरा ढक लेता है
मन के सारे ग़म
पहाड़ों से ढलकती हुई
गाय, भैंस और बकरियां
बजाती हैं टुन-टुन, टन-टन
बच्चे दौड़ते हुए
चिल्लाते हैं हंसी की धुन
वहां.... दूर.... पहाड़ की एक ढालान पर
जहां है मेरा घर ।।








Labels:

Friday, July 31, 2009

सब याद है

ज़िंदगी के उन पुराने पन्नों में
तुम भी हो
तुम्हारी यादें भी
सारे पल सिमटे हैं
कविता की शक्ल में
चंद शेरों में
तुम्हारे होने का अहसास है।।

कुछ हंसते पल हैं
कुछ बिखरते आंसू
खूशबू है
तुम्हारे होने का अहसास दिलाती है
ज़िंदगी के उन पुराने पन्नों में ।।
तुम हंसी बनकर उभरती हो
तुम खनकती हुई हंसती हो
तुम छन से रुठ जाती हो
मान भी जाती हो
ज़िंदगी के उन्ही पुराने पन्नों को
फिर पलट रहा हूं मैं
जहां तुम खुशी बनकर चहकी थी
मेरी किसी बात पर
और हुई थी ढेर सारी बातें।।

फिर से उस दोराहे से गुजरा हूं
तुमको देखा था पहली बार
मन के घोड़े खींच रहें हैं
फिर से तुम्हारी ओर
चाहता हूं / तुमसे करुं
ढेर सारी बात
कुछ वादें हैं / रोक लेते हैं ।।

फिर लौटूंगा
पलटूंगा
देखूंगा ढंग से
कहां बिगड़े थे ताने
कहां उलझे थे सिरे
ज़िंदगी के इन्हीं पन्नों में सही
एक दिन सुलझाऊंगा उलझे रिश्तों को।।



Labels:

Tuesday, July 21, 2009

चाहतें

वे कहते हैं
कितनी छोटी-छोटी हैं उनकी चाहतें
मानो वे कुछ नहीं चाहते
वे पेड़ों को काटना नहीं चाहते
उनका हरापन चूस लेना चाहते हैं
वे पहाड़ों को रौंदना नहीं चाहते
उनकी दृढ़ता निचोड़ लेना चाहते हैं
वे नदियों को पाटना नहीं चाहते
उनके प्रवाह को सोख लेना चाहते हैं
अगर पूरी हो गयीं उनकी चाहतें
तो जाने कैसी लगेगी दुनिया !


-मदन कश्यप

'लेकिन उदास है पृथ्वी' संग्रह से

Tuesday, July 14, 2009

अनुभव

अनुभव से पूर्ण
उसने कहा- बेटा
अब तुम बड़े हो गए हो
अब तुम सच बोलना छोड़ दो ।
तुम्हें आगे बढ़ना है
और वो रास्ता
जो पीछे की ओर खुलता है
उस पर चलो
सीधे चलते जाना
रास्ते पर कोई खड़ा हो
अगर तुमसे पहले
उसके पीछे मत लगना
गिरा देना उसको
चाहे जैसे भी ।
बेटा, अब तुम्हें
दया-करुणा भूला देनी चाहिए
अब तुम बच्चे नहीं रहे
कुछ सीखो
ज़माने के दस्तूर हैं
सब दौड़ रहे हैं
दूसरे के कंधों पर सवार होकर ।।

Labels:

कभी यूं करना !

'एक'

झूठी चादर से ढककर
क्यों ? पाप छिपाते हो
क्यों ? सच को अंदर कर
झूठ दिखाते हो
क्यों ? गम के चेहरे पर
हंसी लगाई है
क्यों ? हंसते हो
दिल में तन्हाई है ।।

'दो'

बदला, उन सभी से लूंगा
एक दिन
जिनके कारण
मिली रात
मिली तनहाई ।।
उनको दूंगा
प्यार
और चमकीली सुबह
ताकि ढूंढ सकें
चमकदार उजाले में
अपने मन के अंदर की काई ।।

Labels:

Sunday, July 12, 2009

सबसे बड़ी बहस !

सब हंस रहे थे। हंसी बेहया सी अपने आप मुंह पर तैर रही थी।
पुरुषों की नज़र बेहयायी से उसे घूर रही थी। लेकिन महिलाएं भी भूल गयी थी, कि उन्हें ऐसा नहीं करना है। वो भी उसे इसी अंदाज़ में देख रही थी। वो भूल गयीं थी कि सड़क पर आते-जाते उन्हें भी ऐसी ही नज़रों का शिकार होना पड़ता है। लेकिन सेक्स का सुपीरियरिटी कॉम्पलेक्स यहां साफ-साफ उभर कर नज़र आ रहा था।
ये नज़ारा किसी चाय की गुमटी का नहीं है। ना ही चौराहे पर जमा कुछ मनचलों की है। दरअसल बात एक चैनल की है। और मुद्दा बड़ा संगीन है।
दिल्ली हाईकोर्ट के आईपीसी की धारा-377 पर दिए गए फैसले पर बहस गरम है। टीवी चैनलों को जैसे एक ऐसा मुद्दा हाथ लग गया है, जिस पर चढ़कर वो टीआरपी की जंग में आगे निकल सकते है। बहस ठीक बात है। लेकिन बहस से कुछ निकले और वो सार्थक हो। ये टीवी चैनलों की मंशा फिलहाल नहीं है।
टीवी चैनल एक समलैंगिंक और संस्कृति के अंध भक्त किसी बाबा या आचार्य को बिठाकर एक मसालेदार लड़ाई का लुत्फ लेना चाहते हैं।खैर, उस दिन भी उस न्यूज़रुम में यही माहौल था। एक समलैंगिंक को बहस के लिए बुलाया गया था। दूसरी ओर एक मशहूर आचार्य बैठे थे।
बहस में केवल दो पक्ष देखकर कुछ अजीब लग रहा था। क्योंकि इन दोनों के बीच कभी ख़त्म ना होने वाली बहस ही होनी थी। क्योंकि ना समलैंगिंक ये मानता कि वो अप्राकृतिक संभोग में लिप्त है, और ना ही संस्कृति की रक्षा करने वाले आचार्य जी ये मानते.... कि समलैंगिकों के भी कुछ अधिकार हो सकते हैं। लेकिन ये चाहता भी कौन था कि बहस से कुछ निकले। कुल मिलाकर लड़ाई टीआरपी की है। कार्यक्रम शुरू हुआ। और जो अपेक्षित था, वही होने लगा। आचार्य जी को समलैंगिंक किसी गाली से कम नहीं लगते। वेश्यावृत्ति से भी बढ़कर। लेकिन वेश्यावृत्ति को हटाने के लिए संस्कृति के पैरोकारों ने क्या किया। दुनिया की सबसे महान हिंदू संस्कृति में वेश्यावृत्ति कौन से काल में नहीं थी ? क्या संस्कृति के रक्षक बता सकते हैं ? मानव इतिहास का कोई ऐसा वक्त नहीं रहा है... जब पुरुष अपनी शारीरिक प्यास बुझाने वेश्या के पास नहीं गया। आज भी जाते हैं। लेकिन वेश्या को गाली भी देते हैं। छिपकर रेड लाइट में जाते हैं। और एसी वाले कमरे में बैठकर वेश्यावृत्ति के खिलाफ बहस करते हैं।
ये हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गया है। हम मुद्दों को इसी अंदाज़ में देखते हैं। मुद्दे हमारे इर्द-गिर्द बिखरे रहते हैं। लेकिन हम उनसे आंखे चुराकर बचते निकलते हैं। और फिर जब एक दिन मुद्दा हमारी नज़रों के ठीक सामने ही आ जाता है, तो फिर हम संस्कृति की दुहाई देकर अतीत में चले जाना चाहते हैं।ये कोई नहीं समझना चाहता कि वक्त बदल गया है। संस्कृति कोई ठहरा पानी नहीं है.... इसमें भी बदलाव होता है।
और संस्कृति है क्या चीज़ भला ? हम कैसे रहते हैं ? हम कैसे जीते हैं ? यही संस्कृति है।बात उस बहस की हो रही थी। आचार्य ने समलैंगिंक को भला बुरा कहा। उसने कहा, तुम कौन हो ? उसने कटाक्ष किया, मैं तुम्हें लड़का कहूं, या लड़की ? तुम अप्राकृतिक हो... और पाप के भागीदार भी। समलैंगिक सुनता रहा, उसने विनम्रता से कहा, चलिए मैं मान लेता हूं कि मैं बीमार हूं... पर क्या आपके पास इस बीमारी का इलाज़ है। क्या आपके पास कोई दवा या बूटी है... जो मुझे समलैंगिंक से सही इंसान बना देगी। क्या आपके पास कोई योग फॉर्मूला है... आचार्य जी। जो मुझे ठीक कर देगा। आचार्य ने अपनी कमजोरी छिपाने के इरादे से जवाब दिया। मैं तुम जैसे लोगों को योग नहीं सिखाता। मैं तुम जैसे लोगों से बात तक नहीं करना चाहता।
क्यों आचार्य जी। धर्म और संस्कृति की बड़ी-बड़ी बातें करते हो। समलैंगिंको से देश की संस्कृति को ख़तरा भी बताते हो.... लेकिन जब इसे ठीक करने का वक्त आता है तो पीछे हट जाते हो। ये तो ठीक नहीं है ना। बहस एक घंटे तक चलती रही। जब-जब आचार्य समलैंगिंक को बेहयायी से कोसता... लोग ताली बजाते। वाह क्या कहा आचार्य जी। लेकिन एक समलैंगिंक की वास्तविक परेशानी को समझने का वक्त किसी के पास नहीं है।
समलैंगिंकता को गाली देने और उनका पक्ष लेने का इन दिनों फैशन है। लेकिन असल में उनकी परेशानी क्या है ? इस पर कोई बहस नहीं करता। कोई ये बात नहीं करता कि किसी घर में अगर ऐसी संतान पैदा हो जाए, जिसका सेक्सुअल ओरिएंटशन मां और पिता से विपरीत हो, तो ऐसे बच्चे की परवरिश का तरीका क्या है ? ऐसे बच्चे को माता-पिता कैसे पालें ?सब मानकर बैठे हैं, जैसे समलैंगिंक जानबूझकर ही बना जाता है। ये कोई हारमोनल समस्या हो सकती है, ये कोई भी मानने को तैयार नहीं है। लेकिन क्या हमारे घरों में ऐसे बच्चे नहीं हो सकते। जो इस तरह की समस्या से जूझ रहे होंगे।
दरअसल हम चाहते क्या हैं ? हमारी राजनीतिक सत्ता और धर्मसत्ता क्या चाहती है ? ये बड़ा सवाल है। और ये नया भी नहीं है। इतिहास गवाह है..... पूरब से लेकर पश्चिम तक ... जब-जब भी बदलाव की बात हुई.... नई चीजों की बात हुई..... धर्म और राजनीति आड़े आ गई। आज समलैंगिंको के साथ भी ऐसा ही हो रहा है.... पर क्या महज़ एक कानून बनाने से समलैंगिंकता रुक जाएगी।.... क्या वेश्यावृत्ति रुक गई है ?
समलैंगिंकता एक वास्तविक समस्या है। एक सभ्य समाज में हम समलैंगिंकों की सेक्स ओरिएंटेशन को रोककर इस समस्या से नहीं लड़ सकते। दरअसल इसके लिए ज़रुरी है... समलैंगिंको को नजदीक से जानना समझना। फिर उस दिन... जब ये बहस चल रही थी।.... और भी किसी दिन समलैंगिंकों पर हंसने वालों को मन में झांककर ख़ुद से पूछना चाहिए। वो किसी समलैंगिंक के बारे में कितना जानते हैं ? विज्ञान के दृष्टिकोण से।

Labels:

Thursday, July 9, 2009

व्यवस्था के नाम पर

अगर, मैं लीक पर चलूं
तो वो खुश होंगे
मेरी पीठ थप थपाएंगे
क्योंकि ?
ये उनकी व्यवस्था है
सड़ी गली ही सही ।।

अगर, मैं लीक से
उठा लूं कदम
तो वो भला बुरा कहेंगे
धक्का देकर गिरा देंगे
क्योंकि ?
वो हमेशा
ऐसा ही करते रहे हैं ।।

Labels:

शब्द ऐसे हों

शब्दों, आडंबर छोड़ो
अपने सच्चे-सरल-सीधे
रुप में उतरो
सरल अर्थ
सादगी से भरे हों
सीधे ह्रदय को छू लो।।
शब्दों, घृणा त्यागो
प्रेम रस बहाओ
मधुरता भरकर
कड़वाहट हर लो।।

Labels:

Thursday, June 25, 2009

ये भी सबको कहां मिलता है ?

चलो जीतने दो उसको
आज नहीं दौड़ना मुझको
उसे खुश होने दो आज
मुझे हार जाने दो ।।

चलो रंग भर दो
उसके फलक पर
मेरे हिस्से के भी सारे
मुझे थोड़ा सा काला
और सफेद दे दो ।।

सुर उसके कानों में भर दो
सारेगामापा सारे
मुझे सुनने दो
वक्त की कड़वी तान ।।
उसकी सुबह कर दो चमकदार
बिखेर दो सारी किरणें
मुझे शाम का थोड़ा अंधेरा
थोड़ा सा उजाला दे दे ।।

उसको प्यार दे दो ढेर सारा
और मीठी मीठी बातें भी
मुझे दो
प्यार कर सकने का और भरोसा
और सहने दो मुझे
बार-बार खोने का अहसास ।।

बहुत कुछ है
वैसे तो मेरे इर्द गिर्द यहां ।।
लेकिन सब कुछ होना
और फिर नहीं होना
दुख के दूसरे छोर तक जाना
और फिर लौटना
ये भी सबको कहां मिलता है ?

Labels:

Tuesday, June 23, 2009

क्या था ? कोई और रास्ता उनके पास



'लालगढ़'
हां ! वहीं लालगढ़, जहां माओवादी रहते हैं !
सुना है !!! बहुत ख़तरनाक हैं... वों
हां ! अख़बार तो सारे यही कहते हैं ?
और टीवी पर भी सारे दिन यही तो चलता है ?
सुना है !!! उनके पास बहुत हथियार हैं ?
और वो जान के दुश्मन बन गए हैं
लोग तो ये भी कहते हैं
उन्होने भोले आदिवासियों को बहला फुसला कर
भड़का रखा है
और अब भूखे आदिवासी
नंगे आदिवासी
अनपढ़ आदिवासी
मीलों पैदल चलने वाले आदिवासी
बहक गए हैं
वो मांग रहे हैं सरकार से अपना हक
वो कहते हैं
हमें रोजगार चाहिए
वो कहते हैं
सदियों से जिस जंगल में पले बढ़े हम
उसपर हमें हमारा हक चाहिए
वो कहते हैं
हमारे तालाब... हमारी नदियां
हमसे मत छीनों
हमारे हरे-भरे जंगलों को मत बेचो
दरअसल गुंगे आदिवासी बोल रहे हैं
और उनकी आवाज़ ना केवल निकल रही है
बल्कि हुक्मरानों के कानों को चीर रही है
वो बताना चाहते थे
अपनी मुश्किलें.... साठ साल तक
लेकिन किसी ने सुना ही नहीं
क्या था ? कोई और रास्ता उनके पास
+++++++++++++++++++++++++

कैसे बोल सकता है ?
समाज का सबसे दलित आदमी
कैसे कह सकता है ? वों
मुझे ये चाहिए !!
मुझे वो चाहिए !!
वो भी तब
जब सुनने वाला कोई ना हो
ज़ाहिर है... जब भी मांगा गया हक
सत्ता ने यही समझा
हक की आवाज़
हमेशा बूटों से ही कुचली जाती हैं
गोलियां बरसती हैं... अगर कदम बढ़ते हैं
फिर कौन सा रास्ता बचता है भला ?
क्या
था ? कोई और रास्ता उनके पास

++++++++++++++++++++++++++

Labels:

Monday, June 22, 2009

इंतज़ार

वक्त है...
चलने दो उसकी
आज नहीं
तो कल ही सही
कर लूंगा इंतज़ार
सदियों तक देखूंगा राह
बस एक बार कह दो
आओगी तुम... एक दिन
सौ साल बाद
मेरे लिए ।।

Labels:

Friday, June 12, 2009

प्यार क्या है ?


-----
'एक'
-----
'प्यार'
देह का आकर्षण है
खूबसूरत चेहरा देखती हैं आंखें
और दिल धड़कता है
दिमाग सोचता है
कई तरकीबें
नजदीक जाने की
कई चालें होती हैं इसमें
और फिर... ।।
-----
'दो'
-----
'प्यार'

सच है
सबकुछ है
बहुत खूबसूरत होता है
अगर वो खूबसूरत नहीं तो भी
सबसे खूबसूरत ही लगता है
तर्क नहीं चलते
जिसे चाहता है दिल
आंखें ढूंढती हैं
मन पहचान लेता है
मन जानता है
कहां है वो ?
और कदम ख़ुद-ब-ख़ुद चल पड़ते हैं वहां ।।
-----
'तीन'
-----
'प्यार'

कुछ नहीं होता
संवेदनशील लोगों की कमज़ोरी है
कमज़ोर बना देता है ये
दिमाग काम नहीं करता
आंखे वो देखती हैं
जो नहीं होता
और दूर की सोचते हैं
प्यार करने वाले
रोते हैं... बार-बार ।।

-----
'चार'
-----
'प्यार'

कुछ नहीं होता
क्या चाहिए आपको ?
शाम के लिए एक साथी
हाथ में हाथ
और मॉल में चहलकदमी
या फिर किसी एक दिन
दो टिकट फिल्म की
या बागीचे में बैठकर करना बातें ।।
-----

'पांच'
-----
'प्यार'

चारों हैं
अलग-अलग लोगों के लिए
चारों के अपने-अपने होते हैं सपने
अपनी-अपनी इच्छाएं प्यार की
अपनी ही तरह के वादे
साथ निभाने के

पर कौन कर पाता है
सच्चा वाला प्यार ?


Labels:

Tuesday, June 9, 2009

चलो, सबसे प्यार करें


हम कितना कुछ रोज देखते हैं। लेकिन सबकुछ नज़रअंदाज़ करते रहते हैं। छोटी-छोटी बातें बड़े अर्थ रखती हैं। लेकिन क्या हम समझ पाते हैं ? शायद नहीं। हम अपनी ही दुनिया में मस्त हैं। हमें अपने दुखों और मुश्किलों से फुरसत नहीं। हमें अपनी खुशियों की परवाह है... बस।

दरअसल कल बस में एक अहसास ने मुझे ये सोचने पर मजबूर कर दिया। मैं दिल्ली की भीड़ भरी बस में कहीं जा रहा था। बैठने के लिए कहीं सीट नहीं थी। फिर थोड़ी देर बाद एक सीट मिली तो जैसे सांस में सांस आई। गर्मियों के दिन... चलो इतनी राहत भी काफी है। मैंने सीट लपकी और निश्चिंत होकर बैठ गया। बस थोड़ी ही आगे बढ़ी थी... एक बुजुर्ग सा शख्स मेरे बगल में बैठ गया। वो थका हुआ सा लगता था ... जैसे रात की नींद ढंग से पूरी नहीं हो पाई थी।

वो ऊंघने लगा। और बार-बार नींद की वजह से उसका सिर मेरे कंधे पर लधर जा रहा था। पहली बार मुझे उस बुजुर्ग पर गुस्सा आया। मैं खीझ से भर गया.... और मैंने झट से अपने आप को उस बुजुर्ग से अलग कर लिया। ..... वो सकपका गया.... जैसे अचानक नींद से कोई जाग जाता है.... ऐसा ही हुआ। लेकिन नींद उस पर हावी थी..... फिर से उसका सिर मुझपर लधर गया था।

लेकिन इस बार मैंने खुद को अलग नहीं किया।....... मेरे दिमाग में अचानक एक ख़्याल आ गया था। मुझे एक लड़की का ख़्याल आया था।.... वो लड़की जिससे मैं प्रेम करता हूं। ये बात और है कि मेरा ये प्यार ' प्लेटोनिक लव' से ज़्यादा कुछ नहीं। ख़ैर..... मैं सोच रहा था.... अगर इस बुजुर्ग की जगह वो लड़की होती, जिसके बारे में..... मैं एक खूबसूरत अहसास रखता हूं.... तो क्या तब भी मैं ऐसा ही करता ?..... बस इस एक सवाल ने मुझे एक अजीब से अहसास से भर दिया।

थोड़ी देर पहले ही जिस बुजुर्ग के मेरे कंधे पर सोने से मैं खीझ रहा था।... अब ऐसा नहीं था... मेरे कंधे पर बुजुर्ग का सिर पड़ा हुआ था।... जैसे एक बच्चा अपने किसी बड़े के कंधे पर सिर रखकर निश्चिंत पड़ा हो.... वो बुजुर्ग करीब एक घंटे तक सोते रहे। और मैं मन ही मन खुश होता रहा।...मन एक अजीब तरह के सुकून से भर गया था। पहली बार इस तरह से सोचने पर महसूस हुआ..... हम किसी भी शख्स के बाहरी आवरण को देखर कितना कुछ तय कर लेते हैं ? जबकि हम तो उसके बारे में ज़्यादा कुछ जानते ही नहीं। मैंने तय किया.... मैं इस अहसास को ज़िंदा रखने की कोशिश करुंगा। मैंने खुद से एक सवाल पूछा, क्यों नहीं मैं दूसरों के साथ भी प्लेटोनिक लव करुं... कम से कम उनके साथ जिनके साथ संभव हो।

Labels:

Friday, June 5, 2009

अब सावन नहीं आता है, वहां

अब सावन नहीं आता है, वहां
वो सालों पहले आया था, अंतिम बार
तब वहां घने झुरमुट थे
राह नहीं सूझती थी
पक्षी चहचहाते थे
वनराज गरजते थे वहां ।।

ठंडी छांव में, नदी के किनारे
हम भी बैठे थे कभी
घंटो बाते की थी
कई बार दुखी होकर
इसी जगह पर
मैं लेट गया था
कई बार, खुश होकर
हवाओं को बाहों में भरकर
ज़ोर-ज़ोर से पुकारा था ।।

अब सावन नहीं आता है, वहां
आज भी झुरमुट हैं, वहां घने
लेकिन पेड़ नहीं है
कंकरीट के दानव खड़े हैं
आज भी रास्ते नहीं दिखते
जैसे, लहरों पर लहरें / सवार होकर दौड़ रही हों ।।

आज भी शोर है वहां
पक्षी नहीं चहचहाते तो क्या ?
मृग नहीं भरते हिलोरे
शेर नहीं गरजते
ठंडी छांव नहीं मिलती
लेकिन ठंड कम नहीं है
नदी का किनारा तो नहीं
स्वीमिंग पुल हैं वहां पर ।।

पर दुखी होकर
लेट नहीं सकता वहां
क्योंकि, उस जगह से हाइवे गुजरता है ।।

खुश होकर
हवाओं को बांहों में नहीं भर सकता
क्योंकि अब सावन नहीं आता है वहां ?


Labels:

Monday, May 11, 2009

पहाड़

पहाड़ों से ढलकती हुई
ठंडी हवा मैदान में आ जाती है ।
खूब सारा ठंडा पानी भी
ढलानों से नीचे की ओर सरक जाता है ।
सफेद-सफेद छक बर्फ भी
अधिक दिनों तक नहीं रुकती
पानी की शक्ल में तीखे गहरे नालों में बहती है ।
मीठे-मीठे सेब
और दूसरे खूबसूरत फल
ट्रकों पर लदकर निकल आते हैं ।
हर साल ढेर सारा प्यार
पोटली में बंद होकर
हल्द्वानी और देहरादून के रास्ते निकल जाता है ।
'मां' पुचकारती है
चंद दिनों की छुट्टी में...
और फिर सरहदों पर
या भीड़ भरी तंग गलियों में
मां की याद आती है ।
ढेर सारी जवानी भी
रोक नहीं पाते पहाड़
हट्टा-कट्टा करने के बाद
क्या मिलता है इन्हें ?
फिर कभी आते हैं
पहाड़ी ढलानों पर खेलने वाले
सैलानी बनकर.... काले चश्मे लगाए
और कहते हैं.... यहां कुछ नहीं बदला है
बहुत सी कमियां हैं यहां
और एक लिंटर वाला मकान बनाकर
लौट पड़ते हैं ।
सालों से खड़े पहाड़
बरस... दर बरस यही देख रहे हैं ।।

Labels:

Saturday, May 9, 2009

'मां'

( मां के लिए... जिसने बचपन से आज तक हर दम जीने का अहसास दिया है। )

तुम शक्ति हो / शक्तिशाली
तुममें उर्वरता है / अंकुरण क्षमता भी
तुममें है / सह सकने की क्षमता
तुममें लोचकता है
आकर्षण भी / उच्च कोटि का बसता है
तुममें ममता का रस / हरदम रिसता है
तुम पा लेती हो / शब्दों की गहराई
तुम जी लेती हो / पल में जीवन की सच्चाई
तुमने घृणा को / खुशियों से मारा है
तुमने प्रेम बहाकर / दुख को तारा है
तुमने सिखलाया / जीवन की टेढ़ी मेढ़ी राहों को
कैसे पार करें ?
कैसे उन पर / हंसकर
जीवन पथ तैयार करें
तुमने अंधेरे में / चलने का प्रयास दिया
तुमने गिरकर उठने का / मुझको अहसास दिया
तुम शक्ति हो / जीवनदायी हो
करुणा से भरी हुई / सुखदायी हो
'मां'.......... 'मां'

Labels:

Friday, May 8, 2009

क्या चुनोगे तुम ?

तुम गलत हो
तुम सही नहीं
क्या बात करते हो ?
तुम्हें तमीज़ ही नहीं !
मेरी बात सुनो ध्यान से
ऐसा करो, वैसा नहीं
कान खोल कर सुन लो... तुम
मैं जो कह रहा हूं।
तुमसे कौन सा काम सही होगा ?

इतने ढेर सारे शब्द हैं
इससे भी अधिक हो सकते हैं
लेकिन देते तो बस...
दुख, घृणा, मन की कसक ही हैं ना ।।


तुम अच्चे हो
इस बार तुमने ठीक किया
क्या बात है !
बहुत खूब
तुमसे सीखना होगा
एक्सीलेंट हो तुम

ढेर सारे शब्द
इससे भी कहीं अधिक हो सकते हैं
और देते हैं...
सुख, संतोष, प्यार देखा है ना ।।

Labels:

Saturday, May 2, 2009

'सफलता' / कैसे नापूंगा इसे ?

'सफलता'
कैसे नापूंगा इसे ?
क्या गांव से शहर तक आना/
थी मेरी सफलता ?
या शहर से गांव लौटना होगी ?
क्या कार होगी, मेरे पास सफलता की निशानी ?
या दक्षिण दिल्ली में एक घर होना ज़रुरी है ?


या फिर थोड़ी खुशी
और हंसी के दो पल काफी हैं ?
क्या किसी के लिए कुछ कर पाने का अहसास
मेरी सफलता नहीं होगी ?
कितने लोग जानें मुझे ?
तब सफल मानोगे
एक हज़ार ?
दस हज़ार ?
या फिर लाख, दस लाख ?

क्या करने से मिलेगी सफलता ?
अभिनय ?
चित्रकारी ?
क्या क्रिकेट खेलकर ?
या फिर टेनिस बॉल ?
या सत्ता के गलियारों में सत्ता का खेल ?

दोस्त, तुमने कहा
ज़िंदगी में सफलता ज़रुरी है !
सोचता ही रह गया...... मैं
कैसे पूरी होगी मेरी ये अभिलाषा ?
क्या हो पाऊंगा.... मैं भी कभी सफल ?


Labels:

Friday, May 1, 2009

कितना मुश्किल है...

कितना मुश्किल होता है,
ख़ुद को समझ पाना भी ।
पल में तोला, पल में माशा
होता है आदमी ।।
प्यार को प्यार, मिल ही जाए
ये नहीं होता ।
देखो प्यार करके भी,
वो तनहा रहता है ।।

कौन कहता है ?
कुछ नहीं मिला... दर्दे यार से ।
ये जो ज़िंदगी है,
उसका इंतज़ार है ।।

अब हर आदमी से,
ढंग से मिलता हूं ।
आदमी से खाया धोखा,
बचकर चलता हूं ।।

Labels:

Thursday, April 30, 2009

महिलाओं ने जीती जंग

'नशा नहीं रोजगार दो' ये नारा उत्तराखंड के लिए नया नहीं है। इस नारे को लेकर उत्तराखंड की महिलाओं ने एक लंबी लड़ाई लड़ी है। ये लड़ाई आज भी जारी है। वक्त बेवक्त जब जनता की चुनी हुई सरकार आधी दुनिया की भावनाओं का तिरष्कार करती है, तो 'नशा नहीं रोजगार दो' एक इंकलाब बनकर महिलाओं का संबल बन जाता है। अल्मोड़ा के बसौली कस्बे में महिलाओं ने एकबार फिर से शराब के खिलाफ आंदोलन चलाया और कामयाबी पाई।

--------------------------------------------------------------------
( ये लेख बसौली को करीब से जानने वाले महेश जोशी ने नैनीताल-समाचार के ताज़ा अंक १४ से ३० अप्रैल में लिखा है। इस लेख नैनीताल समाचार के सौजन्य से यहां छाप रहा हूं।)
--------------------------------------------------------------------

अल्मोड़ा ज़िला प्रशासन ने बसौली कस्बे से शराब दुकानें पांच किलोमी दूर हटाने का भरोसा दिया।
जिसके बाद शराब विरोधी संघर्ष समिति, मल्ला स्यूनरा ने आंदोलन स्थगित कर दिया। बसौली में महिलाएं २८ मार्च से शराब की दुकानों के आगे धरना दे रही थीं। महिलाओं ने शराब की दुकानों पर ताला डालकर शराब की बिक्री रोक दी महिलाओं ने प्रशासन को चेतावनी दी, कि अगर शराब की दुकाने नहीं हटाई गयी, तो ६ अप्रैल की दोपहर से अनिश्चितकालीन चक्का जाम लगा दिया जाएगा।


जैसा कि हमेशा होता है, प्रशासन ने महिलाओं की बात को गंभीरता से नहीं लिया। आचार संहिता का बहाना बनाकर आंदोलनकारियों को फुसलाने की कोशिश हुई। इधर शराब की बिक्री बंद होने के बावजूद शराबियों की संख्या में कोई कमी नहीं हुई। इसने महिलाओं की चिंता बढ़ा दी। जिसके बाद महिलाओं ने आसपास की गतिविधियों पर नज़र रखना शुरू किया। महिलाओं को पता चला कि शराब के सेल्समैन कुछ और दुकानदारों के साथ मिलकर बाहर ही बाहर शराब बेच रहे हैं। बस फिर क्या था महिलाओं ने इसका विरोध करना शुरू किया। लेकिन ऐसा करने पर महिलाओं को धमकियां मिलने लगी। धमकियों ने महिलाओं को डराने के बजाय एकजुट कर दिया। और सभी महिलाएं अपने अस्तित्व और आत्म-सम्मान के लिए एकजुट हो गयी।

लेकिन इसी बीच ३० मार्च को अल्मोड़ा में हुई नीलामी में बसौली की दुकानें पुराने ठेकेदार के नाम होने की ख़बर ने आंदोलनकारियों को सकते में डाल दिया। कहां तो आंदोलनकारी पूरे इलाके में शराब बंदी के लिए आंदोलन कर रहे थे, और कहां ये नीलामी की ख़बर। इस ख़बर ने आग में घी का काम किया। आंदोल को और जन समर्थन मिलने लगा। व्यापार संगठन और ग्राम प्रधान संघ ने आंदोलन के समर्थन में प्रशासन को ज्ञापन सौंपे। महिलाओं ने अल्मोड़ा-बागेश्वर राष्ट्रीय राजमार्ग पर हर रोज़ दोपहर बाद प्रदर्शन और सांकेतिक चक्का जाम कर प्रशासन को चेताया।


लेकिन प्रशासन को इस आंदोलन से कोई फर्क नहीं पड़ा। प्रशासन शराब की इन दुकानों को आसपास ही कहीं खिसकाने की फिराक में लगा रहा। इससे सतराली, ताकुला, डोटियालगांव, भकूना, झिझाड़, चुराड़ी, गंगलाकोटली, भैसोड़ी, हड़ौली, सुनोली आदि गांवो की महिलाएं भी बसौली के आंदोलन में आने लगी। अब महिलाओं का रात-रात भर जागरण शुरू हो गया।

अप्रैल की सुबह से ही आंदोलनकारी जुटने लगे थे। दोपहर तक सैकड़ों महिलाएं धरने पर बैठ चुकी थीं। और उनका आना लगातार जारी था। महिला संगठन की अध्यक्ष लक्ष्मी देवी के नेतृत्व में नारों और जनगीतों के साथ अनिश्चितकालीन चक्का जाम शुरू हुआ। महिलाओं के सामने एक बड़ा सवाल था। शराब उनके घर उजाड़ रही है। उनके नौजवान बेटे शराब के चंगुल में फंसकर अपना सबकुछ गवां रहे हैं। घर के मर्द शराब पीकर अपना सबकुछ बरबाद करने में लगे हैं। ज़ाहिर है घर संभालने वाली महिलाएं अपनी आंखों के सामने ये सब नहीं देख सकती। इसलिए उनके सामने ये सवाल करो या मरो बनकर खड़ा हो गया था। आंदोनकारियों ने लान कर दिया कि अगर सरकार अभी भी नहीं जागी, तो लोकसभा चुनावों का बहिष्कार किया जाएगा।


महिलाओं के शांतिपूर्ण आंदोलन के बावजूद सोया प्रशासन अब जाग गया। आंदोलनकारियों के चक्का जाम से सड़क के दोनों ओर वाहनों की लंबी-लंबी कतारें लग गयी। ये प्रशासन के लिए एक खराब स्थिति थी। महिलाओं के तेवर से प्रशासन में हड़कंप मच गया। अंतत: तीन घंटे बाद ज़िला प्रशासन को महिलाओं के आगे झुकना पड़ा। प्रशासन की ओर से नायब तहसीलदार जगन्नाथ जोशी ने सूचना दी कि ज़िला प्रशासन दोनों शराब की दुकानों को बसौली से पांच किलोटर दूर हटाने को सहमत हो गया है। लेकिन महिलाएं अभी भी जाम खोलने को तैयार नहीं हुई। महिलाएं चाहती थी, कि डीएम या एसडीएम स्तर का कोई अधिकारी आकर भरोसा दिलाए। करीब साढे तीन घंटे बाद चक्का जाम खोल दिया गया। लेकिन महिलाओं ने धरना जारी रखा।


देर शाम एसडीएम और ज़िला आबकारी अधिकारी को घरना स्थल पर ना ही पड़ा। और उन्होने महिलाओं को भरोसा दिलाया कि शराब की दुकानें बसौली से पांच किलोमीटर दूर हटा दी जाएंगी। इस आश्वासन के बाद आंदोलनकारियों में खुशी की लहर दौड़ गयी। गांव की महिलाओं ने अपने दम पर प्रशासन को झुका दिया था। हालांकि अब ये दुकानें बसौली से हटाकर कहां ले जाई जाएंगी ? इस सवाल ने संभावित गांवों की महिलाओं की हलचल बढ़ा दी है। अनुमान लगाया जा रहा है कि इन शराब की दुकानों को बसौली से हटाकर भेटूली, अयारपानी या फिर कफड़खान ले जाया जा सकता है। ज़ाहिर है अब वहां की महिलाएं बैचेन हो गयी हैं। अब बारी एक और आंदोलन की है.... जिसके स्वर संभवतया लोकसभा चुनाव के बाद सुनाई पड़ें। लेकिन फिलहाल बसौली की औरतें अपनी जीत पर गर्व तो कर ही सकती हैं।


(अनुमान है कि सरकार को बसौली की दुकानों से डेढ़ करोड़ के आसपास का राजस्व मिलता है। )

Labels:

Tuesday, April 28, 2009

जहां लिखना सीखा

मैं जैसा भी हूं, ऐसा क्यों हूं ? जब मैंने ये सवाल ख़ुद से पूछा, तो मैं मेरे अतीत में चला गया। अतीत के पन्नों पर पड़ी धूल को हाथों से साफ किया.... तो फिर कई पन्ने साफ-साफ चमकने लगे। इनमें से कुछ पन्ने बड़े चमकदार हैं। अतीत के एक पन्ने पर चमकीले अक्षरों से एक नाम लिखा है.... राजीव लोचन साह।

राजीव लोचन साह पेशे से पत्रकार हैं, लेकिन पत्रकारिता इन्हें इतना नहीं देती कि इससे रोटी का जुगाड़ हो सके। सो रोटी के लिए होटल का पुश्तैनी व्यवसाय करते हैं। लेकिन जितना मैंने देखा पत्रकार राजीव लोचन साह में व्यावसायी राजीव लोचन साह कभी हावी नहीं हुआ।

दरअसल इस नाम की ज़िक्र करना मेरे लिए सबसे अहम है। जब अपने बारे सोचता हूं, और सवाल करता हूं... कि मैं क्या हूं ? मेरी पहचान क्या है ? जवाब में एक छोटी सी पहचान उभरती है....ये पहचान पत्रकार की है। कम ही लोग जानते होंगे पर यही सबसे अधिक सही है। फिर मैं सोचता हूं कि ये पत्रकार कैसे बना ? सवाल के जवाब में राजीव लोचन साह सामने आ जाते हैं।

दरअसल कॉलेज के ज़माने से मैं लिखना चाहता था। लिखना और अपने लिखे हुए को पढ़ना काफी मज़ेदार लगता था। बात 1998 की है.... लिखने के शौक ने मुझे हमारे कॉलेज से निकलने वाली छात्र पत्रिका का संपादक बना दिया। तब मैं बीए दूसरे साल का छात्र था। शुरुआत में कविता और कुछ इधर-उधर का लिखता रहा। सोचता था कि किसी दिन किसी अखबार में लिख सकूंगा या नहीं ? फिर एक दिन साल 2001 के मई महीने में मेरे एक दोस्त ने मुझे राजीव लोचन साह से मिलाया। दरअसल राजीव जी मेरे उस दोस्त से कुछ लिखवाना चाहते थे। लेकिन उसकी उस वक्त लिखने में रुचि नहीं थी। और मेरा दोस्त मुझे उनसे मिलाने ले आया। मैं बड़ा खुश हुआ, हालांकि ये अंदाज़ा मेरे लिए मुश्किल था... कि मुलाकात के बाद क्या होगा ?
मेरे दोस्त ने मुझे राजीव जी से मिलवाने की बात कही। और थोड़ी ही देर में हम दोनों उनके ऑफिस में थे। ये 'नैनीताल-समाचार' का ऑफिस था। देखने में बिल्कुल सामान्य सा। लेकिन मेरे लिए किसी सपने जैसा। अख़बार का ऑफिस कैसा होता होगा ? इससे पहले कभी सोचा ही नहीं था। 'नैनीताल-समाचार' नैनीताल से निकलने वाला एक पाक्षिक अख़बार है... जो पंद्रह दिन में एक बार निकलता है। पिछले 32 सालों से निकल रहे इस अख़बार ने उत्तराखंड के हर उस पहलू को अपने पन्नों में समेटा है.... जिसे आमतौर पर मुख्यधारा के अख़बार नज़रअंदाज़ करते रहे हैं।

मेरे दोस्त ने मेरा परिचय राजीव लोचन साह से करवाया। ये जितेंद्र है.... मेरा दोस्त। इसे लिखने का शौक है... अगर आप चाहें... तो इससे लिखवा सकते हैं... मेरे दोस्त ने कहा। राजीव जी ने मुझसे मेरे बारे में पूछा, मैं किस विषय से पढ़ रहा हूं.... आदि-आदि। और फिर बिना किसी भूमिका के मुद्दे पर आ गए।..... क्यों नहीं तुम मशरुम की खेती के बारे में एक आर्टिकल लिखते ? मेरे पिताजी राज्य सरकार के एक मशरुम प्रोजेक्ट में ही काम करते थे। इसलिए ये आर्टिकल लिखना... मेरे लिए आसान होगा..... शायद ये राजीव जी ने समझ लिया था। उन्होने कहा... अगर जल्दी लिख दोगे... तो अख़बार के इसी अंक में भेज देंगे।
ये मेरे लिए किसी चैलेंज से कम नहीं था। जैसे पत्रकारिता का पहला इम्तिहान। मैं दूसरे दिन कॉलेज नहीं गया...मुझे दूसरी पढ़ाई करनी थी। मैं एक छात्र से एक पत्रकार बन गया था। उस दिन मैंने देखा कि जिस-जिस से मैंने बात की उनका नज़रिया मेरे प्रति बदल गया था। लोग मेरी बातों को गंभीरता से ले रहे थे। मेरे सवालों का वहां कोई मतलब था। लोग मेरे सामने अपनी परेशानी बयां कर रहे थे। जैसे मैं उन्हें सुलझा दूंगा। मुझे उस दिन लगा पत्रकार बनना एक ज़िम्मेदारी भी है।

पत्रकार बनने और अपना लिखा एक अख़बार में छपा हुआ देखने की इच्छा ने मुझमें काफी ऊर्जा भर दी थी। मैंने एक दिन में ही अपना लेख तैयार कर लिया। और उसे लेकर दूसरे दिन नैनीताल समाचार के ऑफिस पहुंच गया। मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। राजीव जी ना जाने मुझसे क्या कहेंगे ? क्या मैंने सही लिखा है ? राजीव जी को अपना लेख देते हुए.... की तरह के विचार मन में कौंधते रहे। राजीव जी ने लेख ऊपर से नीचे देखा.... और उसमें सुधार करने के कुछ सुझाव दिए। मैंने वहीं ऑफिस में बैठक अपने लेख को रीराइट किया। और उन्हें थमा दिया.... इस बार वो कुछ संतुष्ट थे। ये मेरे लिए मेरा इम्तिहान सही निपटने जैसा था।.... लेकिन अभी रिजल्ट आना बाकी था।

अपना लेख छपा हुआ देखने के लिए मुझे एक हफ्ता इंतज़ार करना पड़ा।.... लेकिन उस पहले लेख को देखकर जितनी खुशी मुझे हुई... उतनी शायद कभी नहीं। इस लेख को सीन से चिपटाए... मैं घर पहुंचा था।..... पिताजी को अख़बार दिखाया.... मां को पढ़कर सुनाया। सब खुश हुए... तो मुझे लगा... जैसे एक बड़ा काम हुआ। बस तब से मैं नैनीताल समाचार से जुड़ गया। कॉलेज के बाद कुछ वक्त नैनीताल समाचार में ही बीतने लगा। रोज २-३ घंटे मैं नैनीताल-समाचार के ऑफिस में आकर देखता कि किस तरह लोग ख़बरों के बारे में बातें कर रहे हैं। धीरे-धीरे मैं बहस का हिस्सा बनने लगा था। ये मेरी अघोषित ट्रेनिंग का हिस्सा था। तब शायद इस बात का अहसास नहीं था, कि मैं क्या सीख रहा हूं ? पर आज जब अपने इर्द-गिर्द लोगों को देखता हूं तो महसूस होता है कि मैंने क्या पा लिया ?

नैनीताल समाचार के माध्यम से सीखा कि किस तरह क्षेत्रीय मुद्दे क्षेत्रीय अहम होते हैं। किसी स्थानीय घटना के राष्ट्रीय मायने क्या हो सकते हैं ? ये नैनीताल समाचार के अलावा कहीं नहीं सीख सका। पत्रकारिता की औपचारिक पढ़ाई करते हुए आईआईएमसी में काफी कुछ सीखा। लेकिन असल ख़बरें और उनके सामाजिक सरोकारों के बारे में नैनीताल समाचार ने ही सिखाया। किसी घटना को कैसे ख़बर की चाशनी में लपेट कर लोगों के सामने पेश किया जाए.... इसका हुनर नौकरी के दौरान आ गया। लेकिन एक मज़लू की ज़िंदगी में होने वाली त्रासदी किस तरह ख़बर है.... ये नैनीताल समाचार में ही सीखा।

Labels:

Friday, April 24, 2009

बहुत दिन हुए / तुमसे बात नहीं की

रात बड़ी ठंडी सी थी
कोहरा छाया था / चारों ओर
अपना हाथ ही
पराया सा लगता था
ज़रा सी आवाज़
शोर भरती थी
सांस सांय सांय करती थी ।।

सुनसान सा हो गया था / सबकुछ
तुम्हारे जाने के बाद
बहुत देर तक सोचता रहा मैं
तुम्हारे बारे में
घंटे / सर-सर निकल गए ।।

पर तुम्हारे होने का अहसास अब भी है
तुम्हारी आवाज़
अब भी गूंजती है / कानों के पास
तुम्हारे शब्द
संगीत से बनकर / बज रहे हैं ।।
रात अब भी उतनी ही ठंडी है
कोहरा और घना हो गया है
हाथ मेरा / और ठंडा सख़्त
परायापन / पहले से कहीं अधिक लगता है ।
बहुत दिन हुए ना...
तुमसे बात नहीं की ।।


Labels:

काफल, हिसालु और किलमोड़ी के बहाने



दो घंटा पहले काफल की एक लोककथा लिखी थी। और फिर मैं सो गया। अचानक नींद में कुछ सूझने लगा। इस बार काफल के साथ हिसालु और किलमोड़ी आए थे। तीनों मेरी उंगली पकड़कर मुझे बचपन में खीं ले गए। नींद खुल गयी है, अब क्या करुं ? सोचा क्यों ना उन पन्नों को पलटा जाए, जब ऊंचे-नीचे पथरीले रास्तों पर दौड़ लगाते हम काफल, हिसालू और किलमोड़ी खाने रुक जाते थे।

जब भी गर्मियों की छुट्टियां पड़ती, पिताजी हम सब बच्चों को पहाड़ भेज देते। वैसे जहां गांव में मेरा घर था, वहां शहर की हवा नजदीक से ही बहती है। नैनीताल से सिर्फ तीन किलोमीटर की दूरी पर है, मेरा गांव। गेठिया हते हैं, इसे लोग। लेकि हवा, पानी, काफल, हिसालु और किलमोड़ी गेठिया को गांव बनाते हैं।

दो महीने की गर्मियों की छुट्टी पूरे साल का रिचार्ज कूपन हुआ करती थी। जैसे गर्मियों में निचले मैदानों से पक्षी पहाड़ों की ओर रुख करते हैं। वैसे ही हम बच्चे भी बिना पंखों के पहाड़ चले आते। वैसे तब पंख थे, मेरे पास..... कल्पना के पंख। मां पहाड़ पहुंचते ही सख्त हिदायत देती, बेटा गर्मी से आए हो... इसलिए खाने पीने का ख़ास ध्यान देना है। अधिक मत खाना कुछ भी। पर मां की कौन सुनता था, उन दिनों भला ?

वैसे गर्मियों के दिन पहाड़ों में फलों के दिन होते हैं। आड़ू, खुमानी, सेब और पूलम पेड़ों में लदे रहते हैं। लेकिन इन पर इनके मालिकों की नज़र रहती है। तो बच्चे क्या करें ? बच्चों की इस परेशानी को प्रकृति ने शायद सबसे पहले समझ लिया था। इसलिए गर्मियों में जगंली फल भी पहाड़ों में खूब लगते हैं। इन जंगली फलों का कोई मालिक नहीं होता। जिस पेड़ पर चाहे चढ़ जाइए, और जी भरकर खाइए काफल। और अगर पेड़ में चढ़ने की हिम्मत और ताकत नहीं है, तो फिर हिसालु और किलमोड़ी खाकर प्रकृति के इन लाजवाब फलों का मजा लिजिए।

मां कहती थी, बेटा हिसालु और किलमोड़ी खाने से पेट में दर्द होता है। एक अनजाना डर रहता, कि अगर पेट में दर्द हुआ, तो मां क्या कहेगी ? लेकिन फिर हिसालु और किलमोड़ी की झाड़ियां दिखती, तो मन पर काबू नहीं रह पाता। पीले-पीले, काले-जामुनी हिसालु छोटे मन पर लालच भर देते। एक-एक हिसालु हाथ से टूटता और मुंह में घुल जाता। कई बार ये सिलसिला काफी देर तक चलता रहता। मैं शहर से गांव पहुंचता था, इसलिए हिसालु की कांटेदार टहनियां अक्सर मेरे हाथों में चुभ जाती थी। कई बार इससे खून बहने लगता। इसलिए मेरे गांव के संगी साथी मेरे लिए थोड़े-थोड़े हिसालु तोड़ लेते... और मुझे खिला देते।

हिसालु मीठे थे, तो किलमोड़ी थोड़ी खट्टी होती थी। लेकिन इसको खाने का मजा भी अलग ही था। किलमोड़ी खाने से मां अधिक रोकती थी। मां का कहना था, इससे बच्चों के पेट में दर्द होता है। लेकिन मेरे साथ के सारे बच्चे रोज किलमोड़ी खाते। और उनके पेट में दर्द नहीं होता। तो मैं सोचता क्यों ना मैं भी इसका मजा लूं ? .... यही सोचकर मैं भी किलमोड़ी खाने निकल पड़ता। लेकिन किलमोड़ी खाना इतना आसान नहीं है। किलमोड़ी खाकर आप ये नहीं कह सकते कि आपने ये फल नहीं खाया। दरअसल किलमोड़ी का जामुन की तरह का रंग हाथों और होठों को रंग देता था। और मां काले जामुनी हाथों को देखकर अपनी डांट मुझ पर छोड़ देती।

काफल छोटे बच्चों की पहुंच में नहीं होता। ये बड़े-बड़े पेड़ों में लगता है। बड़े-बड़े जंगली पेड़ों में। जो गर्मियों में लाल-लाल काफल के दानों से भर जाते हैं। दूर घने जंगलों में काफल के पेड़ पर लाल-लाल दाने दूर से ही चमकते हैं। लोग पेड़ों पर चढ़कर फल के एक-एक दाने को टोकरी में भर लेते हैं। मैं बचपन में जंगल नहीं जा सकता था, इसलिए घर पर लाए गए काफलों का मज़ा लेता।

ये बचपन की बात है, करीब पंद्रह साल पुरानी। तब से अबतक वक्त काफी बदल गया है। अब गांव में जाने का उतना वक्त नहीं मिलता। अगर कभी पहुंचे तो भी उतना समय नहीं होता, कि हिसालु और किलमोड़ी खाने की हिम्मत की जाए। हिसालु और काफल की झाड़ियां भी पिछले दिनों में सिमटती जा रही हैं। अब जंगल सिकुड़ गए हैं... इसलिए काफल के लिए भी लोगों को और दूर के जंगलों में जाना पड़ता है। काफल और हिसालु इतने कम मिलते हैं कि नैनीताल जैसे शहर में जहां गर्मियों के दिनों में सैलानियों की आमद बढ़ जाती है। हिसालु और काफल इन दिनों किसी दूसरे फल की तुलना में अधिक महंगा बिकता है। काफल पचास से सौ रुपए किलो और हिसालू की एक नन्ही सी टोकरी पांच से दस रुपए की होती है। इस नन्ही सी टोकरी में पचास ग्राम हिसालु भी नहीं आते। लेकिन सैलानियों के लिए प्रकृति के इन नायाब फलों का स्वाद चखना किसी नए अनुभव से कम नहीं। सो इन दिनों गांव के बच्चों को थोड़ा पैसा कमाने का अच्छा ज़रिया मिल जाता है। बच्चे दिनभर जंगलों से काफल और हिसालु जमा करते हैं। और फिर इन्हें बाज़ार में बेचकर थोड़ा पैसा कमा लेते हैं।

लेकिन अब जब कोई बच्चा गर्मियों में शहर से गांव पहुंचता है, तो काफल, हिसालु और किलमोड़ी मिलना उतना आसान नहीं रहा। ख़ासतौर से नैनीताल के नजदीक के इलाकों में। जहां इन दिनों तेज़ी से मकान बनने लगे हैं। सोचता हूं.... क्या 25 साल बाद भी प्रकृति की ये नायाब देन हमें यूं ही मिलती रहेगी ?


Labels: