हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Tuesday, June 23, 2009

क्या था ? कोई और रास्ता उनके पास



'लालगढ़'
हां ! वहीं लालगढ़, जहां माओवादी रहते हैं !
सुना है !!! बहुत ख़तरनाक हैं... वों
हां ! अख़बार तो सारे यही कहते हैं ?
और टीवी पर भी सारे दिन यही तो चलता है ?
सुना है !!! उनके पास बहुत हथियार हैं ?
और वो जान के दुश्मन बन गए हैं
लोग तो ये भी कहते हैं
उन्होने भोले आदिवासियों को बहला फुसला कर
भड़का रखा है
और अब भूखे आदिवासी
नंगे आदिवासी
अनपढ़ आदिवासी
मीलों पैदल चलने वाले आदिवासी
बहक गए हैं
वो मांग रहे हैं सरकार से अपना हक
वो कहते हैं
हमें रोजगार चाहिए
वो कहते हैं
सदियों से जिस जंगल में पले बढ़े हम
उसपर हमें हमारा हक चाहिए
वो कहते हैं
हमारे तालाब... हमारी नदियां
हमसे मत छीनों
हमारे हरे-भरे जंगलों को मत बेचो
दरअसल गुंगे आदिवासी बोल रहे हैं
और उनकी आवाज़ ना केवल निकल रही है
बल्कि हुक्मरानों के कानों को चीर रही है
वो बताना चाहते थे
अपनी मुश्किलें.... साठ साल तक
लेकिन किसी ने सुना ही नहीं
क्या था ? कोई और रास्ता उनके पास
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कैसे बोल सकता है ?
समाज का सबसे दलित आदमी
कैसे कह सकता है ? वों
मुझे ये चाहिए !!
मुझे वो चाहिए !!
वो भी तब
जब सुनने वाला कोई ना हो
ज़ाहिर है... जब भी मांगा गया हक
सत्ता ने यही समझा
हक की आवाज़
हमेशा बूटों से ही कुचली जाती हैं
गोलियां बरसती हैं... अगर कदम बढ़ते हैं
फिर कौन सा रास्ता बचता है भला ?
क्या
था ? कोई और रास्ता उनके पास

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6 Comments:

At June 23, 2009 at 6:32 AM , Blogger अजय कुमार झा said...

आप ठीक कह रहे हैं जीतेंद्र जी..मामले के दुसरे पहलु को समझने की कोई गंभीर कोशिश नहीं हुई है...और ये भी सच है की ना ये रास्ता अंतिम था और न ही ये समस्या का हल है...

 
At June 23, 2009 at 8:17 AM , Blogger सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ said...

जहाँ तक आदिवासियो, वनवासियों, या गिरिजनों की बात है अपके प्रश्न शतशः सत्य एवं न्यायोचित हैं। किन्तु जिस भांति यह प्रश्न उठाये जारहे हैं और जिस विचारधारा के प्रसार के लिए उठाये जारहे है, वह अनुचित,आपराधिक एवं देशद्रोह है। गांधी नें एक रास्ता दिखाया था। किसी हद तक उत्तराखण्ड़ बनवानें में भी वही रास्ता चुना गया था। एक हद तक टिकैत नें भी उस रास्ते पर चलकर सफलता प्राप्त की थी

सत्याग्रह का मार्ग थोड़ा धैर्य माँगाता है, आखिर कितनों को सरकार मरवायेगी? कितना अत्याचार करेगी? एक स्थिति ऎसी आजाती है जब पूरे देश की जनता उस माँग के साथ खड़ी होजाती है और सरकारों को झुकना पड़्ता है।

जिस राह पर मार्क्स सम्प्रदाय देश को लेजारहा है, वह देश तोड़्नें वाला तो है ही जिनके हितों के नाम पर यह सब किया जारहा है उनके सर्वनाश का भी यह मार्ग है। नक्सलवाद, माओवाद, लेनिनवाद आदि दर्जनों दुकानें मार्क्स परिवार की छुपे और खुले तौर पर चल रही हैं। बंगाल के ३२ वर्षों के शासन से उपजी बदहाली सच बयाँ कर रही है। केरल में अगर एग्रो इकानमी न हो और विदेशों में कार्य कर रहे लोग कमा के न भेजें तो वहाँ भी यही दशा होती।

भारत के विभाजन का समर्थन, चीन को अरुणाँचल प्रदेश के भूभाग को देनें, कश्मीर पर दुहरी नीति, ऎसी तमाम हरकते हैं जो असली चरित्र उजागर करती हैं। आजादी के ६२ साल बाद भी क्या कारण है कि इस लालदल को कोई दॆसी नेता चाहे वह नंबूदरीपाद हों, ए०क०गोपालन, रणदिवे या फिर ज्योतिबसु ही क्यों न हों नहीं सुहाते? मार्क्स, लेनिन माओ कास्ट्रो या फिर चे ग्वेरा ही क्यों? रूस और चीन के पूंजीपति आज दुनिया भर में निवेस कर रहे हैं-इतनें दीर्घ कम्युनिस्ट शासन के बाद इतनें पूंजीपति कैसे पैदा हो गये? भ्रम में जीने और भ्रम फैलानें से बेहतर होता है पूरे परिदृश्य पर विचार करना।

 
At June 23, 2009 at 8:33 AM , Blogger डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सकारात्मक विवेचना के लिए बधाई।

 
At June 23, 2009 at 9:09 AM , Blogger दिनेशराय द्विवेदी said...

अच्छा सवाल उठाया है आप ने। कोई दसेक साल पहले सीपीआई(एम) से निकाले गए पंजाब के एक कम्युनिस्ट से मिलने का अवसर मिला था।
वे कहते थे। समाजवाद और साम्यवाद तो अवश्यंभावी हैं उन को आने से तो कोई रोक नहीं सकता। हम न रहेंगे तो ये पूंजीपती और जमींदार अपने कर्मों से उसे ले आएंगे। नाम भले ही कुछ और हो। अब लालगढ़ को व्यवस्था ही पैदा कर रही है। खुद गंदे रहें और खुजली होने पर फंगस को दोष देना एक स्वभाव है।
कात्यायन जी को विदेशी नामों से एलर्जी है। स्वामी विवेकानंद जी इस पथ पर चलाते तो लोगों को प्रसन्नता होती या ऐसी ही आलोचना उनकी भी कर रहे होते पता नहीं।
कात्यायन जी किस "कम्युनिस्ट शासन" की बात कर रहे हैं? उस तरह की कोई चीज भी हो सकती है मेरी समझ के बाहर है। जहाँ तक मैं ने पढ़ॉा और समझा है कि कम्युनिज्म तो तभी हो सकता है जब राज्य समाप्त हो जाए, शासन तो दूर की बात है।

 
At June 23, 2009 at 10:22 AM , Blogger Unknown said...

एक बेहतर रचना।
बेहतर इसलिए कि इसमें सरोकारों की नयी दृष्टि है, प्रचलन से अलग।
यही यथास्थितिवादियों को अखरती है।

बहुत अच्छा लगा। आपकी रचना पढ़कर और एक आदरणीय मानवश्रेष्ठ का उखडन भरा स्यापा पढ़कर भी।

 
At June 23, 2009 at 10:25 AM , Blogger सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ said...

@ श्रीमन द्विवेदीजी,
समाजवाद-साम्यवाद उस विचार प्रणाली का उत्पाद है जिसके नेताओं का यह ( व्यावहारिक?) विश्वास रहा है कि बिना सत्ता के क्रान्ति या बदलाव संभव नहीं। पावर करप्टस यह विचार भी उसी परंपरा के विचारकों का है।

जहाँ सता प्रस्थान बिन्दु हो वहाँ स्टेटलेस सोसाइटी की अवधारणा यूटोपिया ही रही है और आगे भी रहेगी। दूसरी विसंगति यह है कि साम्यवाद पूंजी के अस्तित्व एवं बट्वारे पर आधारित है, वहीं पूंजीवाद पूंजी के एकाधिकार पर । दोनों की नजर पूंजी पर है मानवीय सरोकारों पर नहीं। पूंजी का यह तथाकथित न्यायपूर्ण बँटवारा, जहाँ कही साम्यवादी शासन रहा है, आज तक देखनें को नहीं मिला।

जिनके विचार के केन्द्र में मनुष्य नहीं पूंजी हो, उनको राजनैतिक क्रान्ति सता तक पहुँचा सकती है, यही अभी तक लक्ष्य रहा है और साम्यवादियों का अब तक का यही इतिहास भी। आदर्श विचारों का मायाजाल अधिक दिन तक नहीं बेंचा जासकता।

वस्तुतः यह वैचारिक क्रांन्ति ही होगी जो स्टेटलेस सोसाइटी तक पहुँचा सकेगी, यदि निस्पृह लोगों की संख्या समाज में बहुतायत से हो।

 

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