हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Tuesday, July 14, 2009

कभी यूं करना !

'एक'

झूठी चादर से ढककर
क्यों ? पाप छिपाते हो
क्यों ? सच को अंदर कर
झूठ दिखाते हो
क्यों ? गम के चेहरे पर
हंसी लगाई है
क्यों ? हंसते हो
दिल में तन्हाई है ।।

'दो'

बदला, उन सभी से लूंगा
एक दिन
जिनके कारण
मिली रात
मिली तनहाई ।।
उनको दूंगा
प्यार
और चमकीली सुबह
ताकि ढूंढ सकें
चमकदार उजाले में
अपने मन के अंदर की काई ।।

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8 Comments:

At July 14, 2009 at 8:01 AM , Blogger अनिल कान्त said...

ये बात हमको बहुत पसंद आई

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

 
At July 14, 2009 at 8:22 AM , Blogger ओम आर्य said...

bahut bahut bahut pasand aayi .....yah rachana mujhe bahut pasand aayi

 
At July 14, 2009 at 8:28 AM , Blogger MANVINDER BHIMBER said...

बदला, उन सभी से लूंगा
एक दिन
जिनके कारण
मिली रात
मिली तनहाई ।।
उनको दूंगा
प्यार
कितना खूबसूरत लिखा है आपने.....

 
At July 14, 2009 at 8:34 AM , Blogger श्यामल सुमन said...

अच्छे भाव की कविता। पहली कविता पढ़कर ये पंक्तियाँ याद आयीं-

किरदार चौथे खम्भे का हाथी के दाँत सा
क्यों असलियत छुपा के दिखाती है जिन्दगी

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

 
At July 14, 2009 at 8:40 AM , Blogger Udan Tashtari said...

उम्दा!! बेहतरीन!

 
At July 14, 2009 at 1:26 PM , Blogger mehek said...

उनको दूंगा
प्यार
और चमकीली सुबह
ताकि ढूंढ सकें
चमकदार उजाले में
अपने मन के अंदर की काई ।।
waah bahut sunder

 
At July 14, 2009 at 10:16 PM , Blogger Unknown said...

bahut acha likha hai aapne

 
At July 14, 2009 at 11:21 PM , Blogger Apna-pahar said...

धन्यवाद आप सभी का

 

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