हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Monday, May 11, 2009

पहाड़

पहाड़ों से ढलकती हुई
ठंडी हवा मैदान में आ जाती है ।
खूब सारा ठंडा पानी भी
ढलानों से नीचे की ओर सरक जाता है ।
सफेद-सफेद छक बर्फ भी
अधिक दिनों तक नहीं रुकती
पानी की शक्ल में तीखे गहरे नालों में बहती है ।
मीठे-मीठे सेब
और दूसरे खूबसूरत फल
ट्रकों पर लदकर निकल आते हैं ।
हर साल ढेर सारा प्यार
पोटली में बंद होकर
हल्द्वानी और देहरादून के रास्ते निकल जाता है ।
'मां' पुचकारती है
चंद दिनों की छुट्टी में...
और फिर सरहदों पर
या भीड़ भरी तंग गलियों में
मां की याद आती है ।
ढेर सारी जवानी भी
रोक नहीं पाते पहाड़
हट्टा-कट्टा करने के बाद
क्या मिलता है इन्हें ?
फिर कभी आते हैं
पहाड़ी ढलानों पर खेलने वाले
सैलानी बनकर.... काले चश्मे लगाए
और कहते हैं.... यहां कुछ नहीं बदला है
बहुत सी कमियां हैं यहां
और एक लिंटर वाला मकान बनाकर
लौट पड़ते हैं ।
सालों से खड़े पहाड़
बरस... दर बरस यही देख रहे हैं ।।

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Saturday, May 9, 2009

'मां'

( मां के लिए... जिसने बचपन से आज तक हर दम जीने का अहसास दिया है। )

तुम शक्ति हो / शक्तिशाली
तुममें उर्वरता है / अंकुरण क्षमता भी
तुममें है / सह सकने की क्षमता
तुममें लोचकता है
आकर्षण भी / उच्च कोटि का बसता है
तुममें ममता का रस / हरदम रिसता है
तुम पा लेती हो / शब्दों की गहराई
तुम जी लेती हो / पल में जीवन की सच्चाई
तुमने घृणा को / खुशियों से मारा है
तुमने प्रेम बहाकर / दुख को तारा है
तुमने सिखलाया / जीवन की टेढ़ी मेढ़ी राहों को
कैसे पार करें ?
कैसे उन पर / हंसकर
जीवन पथ तैयार करें
तुमने अंधेरे में / चलने का प्रयास दिया
तुमने गिरकर उठने का / मुझको अहसास दिया
तुम शक्ति हो / जीवनदायी हो
करुणा से भरी हुई / सुखदायी हो
'मां'.......... 'मां'

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Friday, May 8, 2009

क्या चुनोगे तुम ?

तुम गलत हो
तुम सही नहीं
क्या बात करते हो ?
तुम्हें तमीज़ ही नहीं !
मेरी बात सुनो ध्यान से
ऐसा करो, वैसा नहीं
कान खोल कर सुन लो... तुम
मैं जो कह रहा हूं।
तुमसे कौन सा काम सही होगा ?

इतने ढेर सारे शब्द हैं
इससे भी अधिक हो सकते हैं
लेकिन देते तो बस...
दुख, घृणा, मन की कसक ही हैं ना ।।


तुम अच्चे हो
इस बार तुमने ठीक किया
क्या बात है !
बहुत खूब
तुमसे सीखना होगा
एक्सीलेंट हो तुम

ढेर सारे शब्द
इससे भी कहीं अधिक हो सकते हैं
और देते हैं...
सुख, संतोष, प्यार देखा है ना ।।

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Saturday, May 2, 2009

'सफलता' / कैसे नापूंगा इसे ?

'सफलता'
कैसे नापूंगा इसे ?
क्या गांव से शहर तक आना/
थी मेरी सफलता ?
या शहर से गांव लौटना होगी ?
क्या कार होगी, मेरे पास सफलता की निशानी ?
या दक्षिण दिल्ली में एक घर होना ज़रुरी है ?


या फिर थोड़ी खुशी
और हंसी के दो पल काफी हैं ?
क्या किसी के लिए कुछ कर पाने का अहसास
मेरी सफलता नहीं होगी ?
कितने लोग जानें मुझे ?
तब सफल मानोगे
एक हज़ार ?
दस हज़ार ?
या फिर लाख, दस लाख ?

क्या करने से मिलेगी सफलता ?
अभिनय ?
चित्रकारी ?
क्या क्रिकेट खेलकर ?
या फिर टेनिस बॉल ?
या सत्ता के गलियारों में सत्ता का खेल ?

दोस्त, तुमने कहा
ज़िंदगी में सफलता ज़रुरी है !
सोचता ही रह गया...... मैं
कैसे पूरी होगी मेरी ये अभिलाषा ?
क्या हो पाऊंगा.... मैं भी कभी सफल ?


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Friday, May 1, 2009

कितना मुश्किल है...

कितना मुश्किल होता है,
ख़ुद को समझ पाना भी ।
पल में तोला, पल में माशा
होता है आदमी ।।
प्यार को प्यार, मिल ही जाए
ये नहीं होता ।
देखो प्यार करके भी,
वो तनहा रहता है ।।

कौन कहता है ?
कुछ नहीं मिला... दर्दे यार से ।
ये जो ज़िंदगी है,
उसका इंतज़ार है ।।

अब हर आदमी से,
ढंग से मिलता हूं ।
आदमी से खाया धोखा,
बचकर चलता हूं ।।

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