वक्त
मैंने देखा है,
शब्दों के अर्थ बदलते रहते हैं
सच हमेशा, सच नहीं रहता
कभी-कभी,
झूठ, सच बन जाता है
दया के मायने बदल जाते हैं
करुणा,अपने भाव बदल लेती है
समय बदल देता है, बहुत कुछ।
शोषित को भी देखा है
शोषित को भी देखा है
शोषण करते हुए
प्यार में कटुता भी हो सकती है
और घृणा में, ढेर सारा प्यार भी।
दोस्त, हमेशा दोस्त नहीं रहते
आपस में लड़ने लगते हैं
और जान के दुश्मन
दोस्त बनकर गले मिलते हैं।
ये वक्त है
बदलता है, घड़ी-घड़ी।।
(22 अगस्त, 2001)
Labels: मेरी रचना
2 Comments:
अच्छा लिखा है
वाह साब! बहुत बढ़िया लिखा है।
आदमी को चाहिए वक्त से डरकर रहे,
कौन जाने किस घड़ी वक्त का बदले मिज़ाज़।
विशाल
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