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Tuesday, August 20, 2024

बदियाकोट के चरवाहों का कठिन जीवन, कठिन यात्रा

तारीख 6 जून 2024।

अस्कोट आराकोट अभियान दल के सदस्य सुबह आठ बजे चलकर दोपहर करीब सवा बारह बजे दूनी विनायक पहुंचे। ये एक बड़ा बुग्याल है।

दूनी विनायक बुग्याल, बदियाकोट Photo By - Jitendra Bhatt


पहाड़ी इलाकों में बुग्याल या चारागाह गांवों के हिसाब से बंटे रहते हैं। उदाहरण के तौर पर, दूनी बुग्याल में मिले पशुपालकों ने बताया कि इस बुग्याल में बदियाकोट और किलपरा गांव के लोग जानवर चराने आते हैं। 


पशुपालकों की इस टोली में शामिल विमल सिंह बदियाकोट के रहने वाले हैं, जबकि पुष्कर सिंह किलपरा गांव के। पुष्कर सिंह ने बताया कि दूनी बुग्याल में उनका ठिकाना तीन चार दिन का है। दो दिन बाद वो आगे की तरफ बढ़ जाएंगे।

दूनी विनायक बुग्याल, बदियाकोट Photo By - Jitendra Bhatt


दूनी बुग्याल से चरवाहों का ये समूह तिलमिलिया जाएगा। फिर वहां से शंभू नदी के पास से होते हुए शंभू बुग्याल। शंभू बुग्याल में चरवाहों की ये टोली करीब तीन महीने रुकेगी। फिर वहां से दिवाली के आसपास वापस गांवों की तरफ आ जाएगी। विमल सिंह ने बताया कि इस तरह करीब छह महीने वो बुग्यालों में बकरियों और भेड़ों को चराते हैं। 

यहां इन पशुपालकों के बारे में एक रोचक बात पता चली। ये सारी बकरियां और भेड़ इन चरवाहों की नहीं थी। दरअसल भेड़ और बकरियों को चराने का एक सिस्टम बना हुआ है। चरवाहे गांव के दूसरे लोगों की बकरियां और भेड़ भी अपने साथ लेकर जाते हैं। चरवाहों ने बताया कि छह महीने एक बकरी या भेड़ चराने के लिए 250 रुपये मिलते हैं। इस तरह चरवाहों के लिए ये अलग आमदनी का जरिया बन जाता है। 

दूनी विनायक बुग्याल, बदियाकोट Photo By - Jitendra Bhatt


ये भी पता चला कि बदियाकोट से पशुपालकों की ऐसी तीन चार टोलियां बुग्यालों की तरफ निकलती हैं। कुछ टोलियां पहले ही आगे की तरफ चली गई हैं। इस तरह बदियाकोट की दो से ढाई हजार बकरियों और भेड़ों के साथ चरवाहे बुग्यालों में आते हैं। 


इन पशुपालकों का जीवन मुश्किलों से भरा है। जानवरों से साथ घर से दूर तो रहना ही है। करीब छह महीने जिंदगी तंबुओं में ही बीतती है। तंबू में खाना, यहीं सोना। ये पुष्कर सिंह के शब्द हैं, “ये काम बहुत मेहनत का है। फौजी को छुट्टी मिल जाएगी, पर हम चरवाहों की कोई छुट्टी नहीं।“ 

दूनी विनायक बुग्याल, बदियाकोट Photo By - Jitendra Bhatt


अब सवाल ये है कि इतनी मेहनत के बाद इन चरवाहों को मिलता क्या है? पुष्कर सिंह ने बताया कि वो 700 बकरियां लेकर शंभू बुग्याल जा रहे हैं। अब  लौटेंगे एक हजार बकरियां लेकर। यही तीन सौ बकरियां इन चरवाहों की कमाई है। पर ये सब इतना आसान नहीं है, क्योंकि जंगलों में कई खतरे भी हैं। सबसे बड़ा खतरा तो बाघ और भालू का है। विमल सिंह ने बताया कि पिछले साल बाघों ने उनकी टोली की 35 बकरियां मार दी थी। 


मैंने पूछा। इन बकरियों का करते क्या हो? पुष्कर सिंह ने बताया कि एक फुल साइज का बकरा 18 से 20 हजार में बिक जाता है। वो साल में 20 से 25 बकरे बेच देते हैं। इस तरह साल में चार से पांच लाख रुपये की कमाई इन बकरों को बेचकर हो जाती है। इसके अलावा भेड़ों का ऊन भी बिक जाता है। बकरियों का दूध घर पर काम आ जाता है।

दूनी विनायक बुग्याल, बदियाकोट Photo By - Jitendra Bhatt


इन पशुपालकों के लिए कमाई का एक और जरिया भी है। कीड़ा जड़ी की मांग बढ़ने से कई पशुपालक परिवारों के साथ बुग्यालों में कीड़ा जड़ी निकालने का काम भी करते हैं। पर पिछले कुछ सालों में कीड़ा जड़ी को जिस अंधाधुंध तरीके से बुग्यालों से निकाला गया है, उसका असर अब दिखने लगा है।

दूनी विनायक बुग्याल, बदियाकोट Photo By - Jitendra Bhatt


किलपरा गांव के पुष्कर सिंह और बदियाकोट के विमल सिंह ने बताया कि इस बार ज्यादा कीड़ा जड़ी नहीं मिली। वो इस बार के सीजन में तीन से चार तोला सूखी कीड़ा जड़ी तैयार कर पाए। सूखी कीड़ा जड़ी की कीमत आठ से दस हजार रुपये तोला है। इस तरह इन लोगों ने करीब 30 से 40 हजार रुपए कीड़ा जड़ी बेचकर कमाए। पुष्कर सिंह कहते हैं कि इस बार तो सिर्फ दिहाड़ी निकली।


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