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Monday, April 2, 2018

दलित समाज की तकलीफों को कब समझेंगे आप?

मेरा नाम जितेंद्र भट्ट है। नाम के आखिरी सिरे में भट्ट देखकर आप समझ ही गए होंगे कि बंदा ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ है। अपना ये परिचय इसलिए देना पड़ रहा है, क्योंकि सोशल मीडिया पर एक कैंपेन के जरिए मामले को ब्राह्मण वर्सेज दलित बनाने की कोशिश की गयी है। सोशल मीडिया पर कई दोस्तों ने एक सोशल मीडिया मैसेज को शेयर किया। मैं थोड़ा हैरान हूं, परेशान भी हूं। 
फेसबुक पर शेयर मैसेज का स्क्रीन शॉट
मैं हैरान और परेशान क्यों हूं? इसकी बात आगे कर लेंगे। लेकिन पहले बात सोशल मीडिया पर शेयर हो रहे मैसेज की। आपको इनमें से एक मैसेज का मजमून बताता हूं। किन्हीं अखबारों में छपी खबरों की कटिंग का एक कोलाज बनाया गया है। जिसके सबसे ऊपर के हिस्से में एक घोषणा लिखी गयी है। जिसमें कहा गया है, “मैं 2 अप्रैल को भारत बंद का विरोध करता हूं, क्योंकि मैं आरक्षण बदलाव के समर्थन में हूं।इस घोषणा के निचले हिस्से में अखबारों में छपी खबरों की कटिंग के हिस्से लगाए गए हैं। एक खबर में लिखा है, "सामान्य का 97, एसटी का 0.75 परसेंटाइल पर प्रवेश"। दूसरी खबर में लिखा है, "200 में से माइनस 8 अंक, फिर भी शिक्षक"। इसी तरह की कुछ और हेडलाइंस भी हैं। मैं नहीं जानता कि इस कोलाज में जिसे खबर बनाकर चिपकाया गया है, वो सच में खबर है भी या नहीं। 
फेसबुक पर शेयर मैसेज का स्क्रीन शॉट

एक और मैसेज सोशल मीडिया में घूम रहा है। इस मैसेज का मजमून किसी फीस को लेकर जारी नोटिस जैसा मालूम पड़ता है। सबसे ऊपर लिखा है, "डॉक्टर वी वाई पाटिल इंस्टीट्यूट आफ टेक्नॉलजी, पिंपरी"। इसके नीचे 2017-2018 की पहले साल की फीस का स्ट्रक्चर बताया गया है।  नीचे तीन कैटेगरी दी हुई है। जिसमें "ओपन कैटेगरी के लिए फीस 88 हजार, ओबीसी के लिए फीस 48 हजार और एससी-एसटी के लिए फीस 8 हजार रुपये" बताई गयी है। मैं कह नहीं सकता कि ये नोटिस सच है या झूठ। 

देश के एक पिछड़े वर्ग को संविधान द्वारा पिछले 70 साल से आरक्षण दिया जा रहा है। शैक्षणिक और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था संविधान में सोच समझकर दी गयी है। लेकिन मेरे सजातीय (सवर्ण तबका) 70 साल बाद भी इस बात से हैरान परेशान हैं कि दलितों, आदिवासियों और समाज के वंचित तबकों को आरक्षण क्यों मिल रहा है?  क्या ये ऐतिहासिक तथ्य नहीं है कि आप (सवर्ण) दलितों, आदिवासियों और समाज के वंचित तबकों का पिछले दो हजार साल से शोषण करते आए हैं, आज भी कर रहे हैं। आपकी मंशा है, आप आने वाली सदियों तक ऐसा ही करें। दलित, आदिवासियों और समाज के वंचित तबके को आरक्षण की सुविधा के जरिए उभरने का मौका सिर्फ सत्तर साल से मिल रहा है। और मेरे सजातीय परेशान हैं। दो हजार साल बनाम 70 साल, क्या इसकी कोई तुलना हो सकती है?

मेरे सजातीय भाईयों, मेरे मन में बार बार एक सवाल आ रहा है। शायद आप मेरे सवालों का जवाब दे पाएं। ये बताइए, क्या भावनगर का दलित लड़का प्रदीप राठौड़ साल 2018 में भी घोड़े पर नहीं बैठ सकता? अगर आप समझते कि प्रदीप राठौड़ घोड़ा खरीद सकता था और उसे घोड़े पर बैठने का हक था। तो फिर वहां के सवर्णों ने प्रदीप राठौड़ की हत्या क्यों की? हालांकि अब इस हत्या को नया एंगल दिया जा रहा है। पुलिस शुरुआती जांच के बाद कह रही है कि वो दलित लड़का अपने इलाके की लड़कियों को परेशान करता था। सवाल है कि प्रदीप राठौड़ लड़कियों के लिए इतना बड़ा खतरा बन गया था तो फिर किसी ने पुलिस में इसकी शिकायत क्यों नहीं की? या फिर पुलिस प्रशासन के जरिए एक दलित की हत्या पर कुछ और रंग डाले जा रहे हैं?

मेरे सजातीय भाईयों, क्या आपको कभी किसी ने इस बात के लिए रोका या टोका है कि आपने मूंछ क्यों रखी है? या क्यों नहीं रखी? तो फिर गुजरात के गांधीनगर में पिछले साल 17 साल के दिगंत महेरिया की सवर्णों ने पिटाई क्यों की? दिगंत महेरिया ने मूंछ रखी। ये बात सवर्णों को क्यों चुभती है। बात यहीं खत्म नहीं होती। गुजरात के ऊना में क्या हुआ? पूरे देश ने देखा। कैसे समाज के एक तबके से जुड़े लोगों ने दलितों को नंगा करके लाठी डंडों से पीटा, नहीं देखा क्या आपने?

ऊपर के दो मैसेज शेयर करने वालों में से कुछ मेरे गृह राज्य उत्तराखंड के भी हैं। क्या आप इन मैसेज को शेयर करते वक्त देहरादून जिले के जौनसार बावर में स्थित उन 340 मंदिरों की कहानी जानते थे? जहां दलितों के प्रवेश पर 400 साल तक पाबंदी लगी रही। दलितों ने अपने अधिकार के लिए 15 साल लड़ाई लड़ी। धरने दिए। प्रदर्शन किए। राजनीतिक दबाव बनाने की कोशिश की। कोर्ट गए। आखिरकार पिछले साल 2017 में उत्तराखंड हाईकोर्ट के जस्टिस के एम जोसेफ और जस्टिस आलोक सिंह की बैंच ने दलितों को मंदिर में प्रवेश दिए जाने को लेकर आदेश सुनाया। क्या इस आदेश के बाद भी दलितों को पूरे सम्मान के साथ इन 340 मंदिरों में प्रवेश मिल रहा है या नहीं? इसकी जानकारी मेरे पास नहीं है।
क्या आपको यह बात पता है कि ये वो मंदिर हैं, जिन्हें इन्हीं दलितों के पूर्वजों ने बनाया था। मतलब अपने शिल्प कौशल से मंदिर को गढ़ा था। मेरे सजातीय मित्रों क्या आप किसी सवर्ण को जानते हैं, जो कभी मंदिर की दीवारों को ईंट दर ईंट जोड़ता पाया गया?

मेरे सजातीय भाईयों, आप आरक्षण के खिलाफ तैयार मैसेज को दिन में सौ बार शेयर कर सकते हो। जैसे दलित भाईयों को 2 अप्रैल को बंद बुलाने का अधिकार है। उसी तरह आपको भी अपने मन की बात दुनिया के सामने रखने का अधिकार है।  लेकिन आपको समझना चाहिए कि दलितों के दो अप्रैल के भारत बंद का आरक्षण के प्रावधानों से कोई लेनादेना नहीं है। आप लोग दो अप्रैल के बंद के खिलाफ जिस मैसेज को सोशल मीडिया में शेयर कर रहे हैं, उनमें आप आरक्षण का विरोध कर रहे हैं। जबकि मामला अलग है। दरअसल ये दलितों के आत्मसम्मान से जुड़ा मामला है। दलितों को डर है कि सुप्रीम कोर्ट के 20 मार्च के एक आदेश से एससी/एसटी (प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटीज़) एक्ट कमजोर हो जाएगा। दलित समुदाय का गुस्सा सरकार से है। वो मानते हैं कि केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में मामले की ठोस तरीके से पैरवी नहीं की।

एससी/एसटी (प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटीज़) एक्ट अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को अत्याचार और भेदभाव से बचाने वाला क़ानून है। सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को महाराष्ट्र के एक मामले को लेकर एससी एसटी एक्ट में नई गाइडलाइन जारी की। जिसके तहत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति अधिनियम-1989 के दुरुपयोग पर बंदिश लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था। इसमें कहा गया था कि एससी एसटी एक्ट के तहत एफआईआर दर्ज होने के बाद आरोपी की तत्काल गिरफ्तारी नहीं होगी। इससे पहले आरोपों की जांच डीएसपी स्तर का अधिकारी करेगा। यदि आरोप सही पाए जाते हैं तभी आगे की कार्रवाई होगी। इस फ़ैसले से क़ानून का डर कम होने और नतीजतन दलितों के प्रति भेदभाव और उत्पीड़न के मामले बढ़ने की आशंका जताई जा रही है। इसी के खिलाफ दलितों ने 2 अप्रैल का बंद बुलाया।

एक समाज के तौर पर हमें ये जानने की कोशिश करनी चाहिए कि अगर हमारा एक हिस्सा डरा हुआ है, परेशान है तो उसका डर और परेशानी कैसे दूर की जाए। लेकिन हमने इसके उलट किया। दलित समाज सुप्रीम कोर्ट के फैसले से एक कानून के कमजोर होने की आंशका जता रहा था। लेकिन केंद्र सरकार ने उनकी परेशानियों को दो हफ्ते तक अनसुना किया। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल करने में देरी की। एक समाज के तौर पर मेरे सजातीय भाईयों, आपने भी संवेदनशीलता नहीं दिखाई। और जब एक डरा, घबराया और परेशान समाज अपनी बात रखना चाहता है, तो संपन्न तबका उसके खिलाफ एक कैंपेन चला रहा है।

सवाल ये है कि हम दलित, आदिवासी और समाज के वंचित तबके की दिक्कतों को समझना चाहते हैं। या फिर हजारों साल से चली आ रही परंपराओं और कुरुतियों को ढोना चाहते हैं। फैसला तो करना पड़ेगा। अगर हम नहीं माने; तो फिर अपमान, हिकारत और अत्यचार सहते सहते 2018 में पहुंच चुका युवा दलित भी अब हरगिज नहीं मानने वाला। 


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