हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Friday, February 23, 2018

आर्मी चीफ ने कुछ कहा, आपने सुना क्या?



आज से 60 साल पहले पाकिस्तान के दुर्भाग्य की शुरुआत हुई। पाकिस्तान में लोकतंत्र पनपता, इससे पहले ही लोकतंत्र के पौधे को सेना ने बूंटों तले रौंद दिया। 8 अक्टूबर 1958 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति इसकंदर अली मिर्जा ने पाकिस्तान में मार्शल लॉ लगाने का ऐलान किया। प्रधानमंत्री फिरोज खान का तख्ता पलट हो गया। 
Credit: indiohistorian.tumblr.com


सर मलिक फिरोज खान नून पाकिस्तान के अस्तित्व में आते वक्त उन गिने चुने नेताओं में शुमार थे, जिन्होंने पाकिस्तान के गठन में अहम रोल निभाया। फिरोज खान पढ़ी लिखी शख्सियत थे। आजाद हिंदुस्तान और आजाद पाकिस्तान से पहले ब्रिटेन में चर्चिल की सरकार ने फिरोज खान को कई अहम पदों पर तैनात किया। लेकिन फिरोज खान सिर्फ 9 महीने ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ पाए। राष्ट्रपति इसकंदर अली मिर्जा की सत्ता हथियाने की मंशा ने फिरोज खान को प्रधानमंत्री की कुर्सी से बेदखल कर दिया। 
फिरोज खान, Credit: google search

एक राष्ट्रपति की भूल ने लोकतंत्र का गला घोंट दिया

राष्ट्रपति इसकंदर अली मिर्जा ने पाकिस्तान के आर्मी कमांडर इन चीफ अयूब खान को चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर नियुक्त किया। उन्होंने सोचा होगा कि आर्मी का अफसर उनके हाथ की कठपुतली बना रहेगा। ये पाकिस्तान में पनप रहे लोकतंत्र में आर्मी का पहला दखल था। लेकिन इस दखल की स्क्रिप्ट आर्मी ने नहीं लिखी। न ही इसका वक्त आर्मी ने चुना। लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए राष्ट्रपति ने वो सब किया, जो बाद में आर्मी रुल की वजह बना। 
इस्कंदर अली मिर्जा, Credit: google search

लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पाई

इसकंदर अली मिर्चा के बड़े फैसले के सिर्फ 13 दिन बाद लोकतांत्रिक देश पाकिस्तान में आर्मी की सत्ता कायम हो गयी। इसकंदर अली मिर्जा ने पाकिस्तान के आर्मी कमांडर इन चीफ अयूब खान को थोड़ी सी पावर दी। इस पावर की बदौलत अयूब खान ने राष्ट्रपति इसकंदर मिर्जा को उनके पद से हटा दिया, और खुद को राष्ट्रपति नियुक्त कर दिया। यहां से पाकिस्तान में मार्शल लॉ की शुरुआत हुई। इसकंदर अली मिर्जा की गलतियों की सजा पाकिस्तान आज तक भुगत रहा है। पाकिस्तान को आर्मी के बूटों को सिर का ताज बनाने की सजा भुगतनी पड़ रही है। नतीजा ये है कि आजाद पाकिस्तान को 70 साल में से 33 साल सैनिक शासन के नीचे बिताने पड़े हैं।
जनरल अयूब खान, Credit: wikipedia

70 साल की आजादी, 54 साल का आर्मी रुल 

हमारे पड़ोस में स्थित म्यामांर की कहानी भी ऐसी ही है। म्यामांर 4 जनवरी 1948 को आजाद मुल्क बना। लेकिन 14 साल के अंदर म्यामांर में आर्मी के जनरल नी विन ने लोकतांत्रिक सरकार को गिरा दिया। मई 1990 में करीब 28 साल बाद पहली बार स्वतंत्र चुनाव हुए। इन चुनावों में आंग सांग सू ची की पार्टी नेशनल लीग आफ डेमोक्रेसी ने 492 में से 392 सीटों पर कब्जा किया। इतने प्रचंड बहुमत के बावजूद सैनिक शासकों ने सत्ता नहीं छोड़ी। म्यामांर की जनता और लोकतांत्रिक विचारों पर यकीन करने वाले लोगों को आर्मी रुल की जगह लोकतंत्र कायम करवाने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। सैनिक शासकों के लंबे अत्याचार के बाद नवंबर 2015 में 1990 के बाद पहली बार स्वतंत्र चुनाव हुए। 1990 की तरह इस बार भी आंग सांग सू ची की पार्टी नेशनल लीग आफ डेमोक्रेसी ने प्रचंड बहुमत हासिल किया। एक फरवरी 2016 को करीब 54 साल के सैनिक शासन के बाद पहली बार म्यामांर में कोई लोकतांत्रिक नेता सत्ता की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठा।

सैनिक शासक खुद नहीं आते, इन्हें हम बुलाते हैं

ये दो कहानियां हमें पलपल लोकतंत्र की अहमियत का मैसेज देती हैं। साथ ही एक चेतावनी भी देती हैं कि हम जब जब सावधान नहीं रहते, तब तब खतरा हमारी तरफ तेजी से बढ़ रहा होता है। ये कहानियां बताती हैं कि सैनिक शासक खुद नहीं आते। इन्हें हम लेकर आते हैं। हमारी राजनीति और उस राजनीति पर आंख मूदकर चलने वाले हम लोग। इसकी शुरुआत का हमें जरा भी अंदाजा नहीं हो पाता। आर्मी रुल आते वक्त बूंटों की आवाज नहीं आती है। बूंट आवाज तब करते हैं, जब सत्ता पर आर्मी रुलर की पकड़ कायम हो जाती है। वो बूंट की नोक लोकतंत्र के गले पर रख देता है।

आर्मी के बूंटों की आहट महसूस करनी चाहिए

भारतीय सेना का कोई जनरल किसी लोकतांत्रिक पार्टी के बारे में कोई कमेंट करता है। तो यहां हमें उस आहट को महसूस करना चाहिए। हमें खुद से सवाल जरुर पूछना चाहिए कि कहीं बूटों की आवाज नजदीक तो नहीं आ रही है। दरअसल ये सवाल आर्मी चीफ जनरल विपिन रावत के एक बयान से उभरे हैं। 
जनरल विपिन रावत, Credit: google search

सेना बैरक में ही रहनी चाहिए
 
जनरल रावत ने एक सेमिनार में नॉर्थ ईस्ट राज्य असम में मुस्लिम आबादी के बढ़ने का इशारा किया था। मुस्लिम आबादी की बात करते हुए जनरल रावत ने कुछ ऐसी बात कही, जो एक सैन्य अधिकारी के दायरे में नहीं आती। जनरल रावत ने कहा कि बदरुद्दीन अजमल की पार्टी आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट का उभार 1980 के दशक में बीजेपी से भी तेज है। जनरल रावत ने तीन अलग-अलग बातों के सिरों को एकसाथ लाकर जोड़ा। पहली बात, उन्होंने असम में मुस्लिम आबादी के बढ़ने की कही। दूसरी बात, मुस्लिम आबादी बढ़ने के पीछे की वजह बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ बताई। और तीसरी बात, बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के उभार को इस घुसपैठ से जोड़ दिया।    
"बांग्लादेश से घुसपैठ दो वजहों से हो रही हैउनके यहां जगह की कमी हो रही हैमॉनसून के दिनों में एक बहुत बड़ा हिस्सा पानी में डूब जाता हैतो वहां रहने के लिए बहुत कम जगह है, इसलिए लोग लगातार आ रहे हैं"

    जनरल विपिन रावत, आर्मी चीफ
        (22 फरवरी, 2018)

"मुझे नहीं लगता कि अब इस इलाके में जनसंख्या के समीकरण बदले जा सकते हैं...चाहे जो भी सरकार रही हो...ये घुसपैठ पांच से लेकर नौ जिलों में लगातार रही है...AIUDF नाम की पार्टी है...अगर आप देखें तो ये पार्टी बीजेपी के मुकाबले काफी तेज़ी से बढ़ी है...जब हम जनसंघ की बात करते हैं तो ये पार्टी दो सांसदों से आज यहां तक पहुंची है, AIUDF असम में इससे भी तेजी से बढ़ रही है....... असम की सूरत कैसे होगी इसे देखना होगा...मुझे लगता है कि सरकार नॉर्थ ईस्ट को लेकर सही दिशा में आगे बढ़ रही है..और अगर ऐसा हो पाता है तो हम यहां विकास सुनिश्चित कर सकेंगे..और विकास के जरिए ही यहां रह रहे लोगों पर नियंत्रण रह सकेगा..."

    जनरल विपिन रावत, आर्मी चीफ
         (22 फरवरी, 2018)

जनरल रावत के दो गैरजरुरी सवाल

जनरल रावत ने जिन तीन सवालों को अपनी बात के केंद्र में रखा। उनमें से सिर्फ एक बाद आर्मी के कार्यक्षेत्र में आती है। और वो ये है कि बांग्लादेश से घुसपैठ हो रही है। असम में मुसलमानों की बढ़ती आबादी का सवाल हो, या बदरुद्दीन अजमल की पार्टी का प्रसार ये आर्मी के दायरे से बाहर का प्रश्न है। आर्मी से जुड़ा कोई अधिकारी जब जब ऐसी बातें करेगा, तब तब लगेगा कि वो किसी राजनीतिक विचारधारा के तहत ऐसा कर रहा है। और अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण।


बदरुद्दीन अजमल, Credit: google search


याद रखिए, AIUDF को चुनाव लड़ने का हक संविधान से मिला है

आर्मी चीफ ने अपनी स्पीच में असम में मुस्लिमों की आबादी बढ़ने की बात कही। आर्मी धर्म विशेष की चर्चा करे, यह गैरजरुरी है। उन्होंने अपने संबोधन में बदरुद्दीन अजमल की पार्टी का जिक्र किया। समझना जरुरी है कि बदरुद्दीन अजमल एक सांसद हैं, ठीक उस तरह जिस तरह नरेंद्र मोदी एक सांसद हैं। वो किसी सामान्य संगठन के नेता नहीं हैं। वो भारतीय चुनाव आयोग द्वारा मान्य राजनीतिक संगठन के नेता हैं। जो लगातार कई साल से संविधान में दर्ज लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं। आर्मी चीफ बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के बढ़ते ग्राफ को हाइलाइट करें, और इसे मुस्लिमों की बढ़ती आबादी और बांग्लादेश से हो रही घुसपैठ से जोड़ दें। ये स्वाकार नहीं किया जाना चाहिए।

जनरल रावत ने ये बातें किस मंशा से कही, ये सिर्फ वही बता सकते हैं। लेकिन आज जनरल रावत ने यह बात एआईयूडीएफ के लिए कही। कल कोई दूसरा जनरल यही बात लेफ्ट पार्टी के लिए कह सकता है। और जब आर्मी अफसरों की इन बातों को हम स्वीकारते चले जाएंगे। तो एक दिन कोई तीसरा जनरल ये बात कांग्रेस या बीजेपी के लिए भी कहेगा। संभव है चौथा जनरल अयूब खान या जनरल नी विन बन जाए।

जिस दिन बूंटों की आवाज आएगीकाफी लेट हो जाएगा

सवाल ये है कि क्या किसी आर्मी अफसर के ऐसे राजनीतिक दखल को हम स्वीकार करना चाहते हैं? और इससे भी बड़ा सवाल क्या ऐसा राजनीतिक दखल हमें स्वीकार करना चाहिए?
सवाल एक के बाद एक कई हैं। मसलन क्या आर्मी के किसी अफसर के ऐसे राजनीतिक दखल को हम सामान्य घटना मान लें? तो फिर किसी दिन कोई आर्मी अफसर अपनी सत्ता हासिल करने की कोशिश करे, तो उसे किस हक से और क्यों रोकना चाहिए? तो जैसा पहले कहा था, आर्मी जब सत्ता हथिया रही होती है, तो उसके बूंटों की आवाज नहीं आती। लोकतंत्र के गले पर आर्मी का हाथ दबे पांव आता है। और फिर जब हाथ गले के पास पहुंचता है, तो लोग चिल्ला नहीं पाते। वो दिन आए, इसे टालने के लिए लोगों को लोकतंत्र की अहमियत समझनी चाहिए। और हर पल सावधान रहना होगा। क्या हम पाकिस्तान और म्यामांर जैसे पड़ोसी से कुछ सबक लेना चाहेंगे?

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