वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति !
दो अप्रैल के दलित आंदोलन के बाद क्या बदला? इस सवाल का जवाब थोड़ा हौरान करने वाला है। पहली बात तो ये
हुई कि जिन लोगों को दो अप्रैल से पहले तक पश्चिम बंगाल और बिहार के दर्जनों शहरों
में फैली हिंसा नजर नहीं आ रही थी; वो अचानक
अहिंसक हो गए।
केसरिया झंडों के साथ सिर पर केसरिया पट्टा बांधे, हाथों में तलवार, त्रिशूल, डंडे थामे झुंड; जिन लोगों को
परंपरा का हिस्सा लगते रहे;
वो अचानक कहने लगे दलित उत्पात मचा रहे हैं, हिंसक हो गए हैं।
25 मार्च से लेकर एक हफ्ते तक एक खास पार्टी, एक खास संगठन से जुड़े लोग संगठित होकर हंगामा करते रहे; तो कुछ लोगों को ये सामान्य परिघटना मालूम हुई। लेकिन दो
अप्रैल के दिन दलित आंदोलन करने उतरे; तो ये देश के
लिए और हिंदू धर्म के लिए खतरा बन गए।
सोशल मीडिया पर 2 अप्रैल के भारत बंद के विरोध में फैलाया गया एक मैसेज |
हिंसा को देखने के दो नजरिए नहीं हो सकते
इसमें कोई संदेह नही है कि हिंसा के लिए सभ्य
समाज में कोई जगह नहीं हो सकती। और इससे भी आगे अगर हम खुद को सभ्य समाज का हिस्सा
मानते हैं, तो हिंसा को देखने के दो नजरिए कतई नहीं हो सकते।
अगर मुजफ्फरनगर दंगा गलत था, तो हरियाणा
में जाटों का दंगा भी गलत था।
एक ‘काल्पनिक’ कहानी को लेकर करणी सेना का उत्पात गलत था, तो देशभक्ति
के नाम पर कासगंज में हुई हिंसा भी गलत थी।
अगर दो अप्रैल के दिन दलित आंदोलन में हुई
हिंसा गलत है,
तो बिहार और बंगाल में रामनवमी के नाम पर हिंसा
करने वालों को क्यों बख्शा जाए?
तो फिर सवाल ये है कि आज जो दलित आंदोलन में हुई हिंसा को
लेकर व्यथित,
व्याकुल हैं। वो क्या इतने व्यथित और व्याकुल तब भी थे, जब कासगंज में भारत माता की जय और वंदेमातरम् के नारों के
साथ एक खास समुदाय को निशाना बनाया जा रहा था।
वो क्या इतने व्यथित और व्याकुल तब भी थे, जब बिहार और बंगाल में रामनवमी के नाम पर हाथों में नंगी
तलवारों के साथ जुलूस निकले। जय श्री राम के उदघोष के बीच में मुसलमानों को
उत्तेजित करने वाले नारे लगाए गए।
वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति !
बंगाल और बिहार की हिंसा के संदर्भ में प्रधानमंत्री मोदी और
बीजेपी के तमाम नेताओं से सवाल क्यों नहीं पूछे गए? जबकि बीजेपी
का एक नेता और प्रधानमंत्री मोदी के मंत्रिमंडल का एक साथी अश्विनी कुमार चौबे हिंसा
भड़काने के आरोपी अपने बेटे को बचाने की पुरजोर कोशिश कर रहा था। अश्विनी कुमार
चौबे सीना ठोककर कह रहे थे;
पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर कूड़ेदान में डालने लायक है।
बंगाल में प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष खुलेआम कह रहे
थे कि रामनवमी में जुलूस निकलेगा तो हथियारों के साथ ही
निकलेगा। वो भी तब जब राज्य की सरकार हथियारों के साथ जुलूस निकालने पर रोक लगाना
चाहती थी।
तो बात क्या है? क्या हममें
से कुछ लोगों को एक खास पार्टी और एक खास संगठन की हिंसा पसंद है? या बात वो है, जैसा भारतेंदु
हरिश्चंद्र कह गए हैं -
वैदिकी हिंसा, हिंसा न
भवति।
दो अप्रैल : दलितों का भारत बंद और फेसबुक की सैर
फेसबुक की सैर करते हुए बार बार
लगा कि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने सही कहा था। वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति। फेसबुक एक पब्लिक प्लेटफॉर्म है। बहुत से
लोग इसे गंभीरता से नहीं लेते। लेकिन मैं इसे गंभीरता से लेता हूं। मैंने आज तक
किसी व्यक्ति की ऐसी कोई टिप्पणी सोशल मीडिया पर नहीं देखी, जो उसकी पर्सनैलिटी से मेल न खाती हो। मतलब ये है कि कोई
व्यक्ति जैसा सोचता है,
वैसा ही वो सोशल मीडिया पर लिखता है। तो इस लिहाज से मैं सोशल
मीडिया पर लिखे कमेंट को हल्के में नहीं लेता।
उमेश चतुर्वेदी मेरे फेसबुक
फ्रेंड हैं,
वो वरिष्ठ पत्रकार हैं। फेसबुक पर दो अप्रैल के दलित आंदोलन
को लेकर उन्होंने एक टिप्पणी लिखी है। उसे जस का तस पढ़िए। “भारत बंद के
दौरान हुई हिंसा और तोड़फोड़ में वाकई दलित (अक्सर
आंदोलनकारी हिंसा के बावजूद खुद को अहिंसक बताते हैं और हिंसा को किसी दूसरे की
शातिराना करतूत) शामिल थे, तो इसका मतलब साफ है कि दलित अब कमजोर नहीं
रहे और सुप्रीम कोर्ट का आदेश सही था। आखिर शेल्टर तो कमजोर को
ही दिया जाता है।“
उमेशजी की चार
पंक्तियों की इन बातों पर गौर करना चाहिए। पहली बात, उन्होंने जो कही – “भारत बंद में
हुई हिंसा में वाकई दलित शामिल थे, तो इसका मतलब साफ है कि दलित अब कमजोर नहीं
रहे।“ यहां से एक बात तो साफतौर से निकलती है कि दलितों का इतिहास अहिंसक रहा है।
क्योंकि दो अप्रैल के बंद के दौरान हुई हिंसा के संदर्भ में उपरोक्त लेखक को भरोसा
है कि इसमें दलित शामिल नहीं थे। कौन शामिल था? इसका खुलासा लेखक नहीं करता। लेखक की बात का
एक और मतलब मैंने निकाला है। क्या वो ये नहीं कह रहे हैं कि दलित तो हिंसा कर ही
नहीं सकते। सो इस नैतिकता के मापदंडों के हिसाब से दलितों को किसी भी हाल में
हिंसा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि ये तो एक खास वर्ग का विशेषाधिकार है। और ये वर्ग इस विशेषाधिकार का
इस्तेमाल हजारों साल से कर रहा है।
अगली पंक्ति
में उमेश जी ने लिखा। “अगर हिंसा में दलित शामिल थे, तो इसका मतलब
साफ है कि दलित अब कमजोर नहीं रहे और सुप्रीम कोर्ट का आदेश सही था। आखिर शेल्टर तो कमजोर को
ही दिया जाता है।“
मुझे लगता है
कि ऐसा लिखकर उमेश जी एक बात कहने की कोशिश करते दिखते हैं। जब तक दलितों ने हिंसा
नहीं की, तब तक वो कमजोर थे। और अंत में लेखक वो बात कह ही देता है। जो दलितों के
उत्पीड़न को अपना विशेषाधिकार समझने वाला एक बड़ा वर्ग हजारों साल से कह रहा है।
“दलित अब कमजोर नहीं रहे और सुप्रीम कोर्ट का
आदेश सही था। आखिर शेल्टर तो कमजोर को
ही दिया जाता है।“
हिंसा को खास चश्मे से देखने की अदा
उमेश जी सोशल
मीडिया पर क्या लिखें, क्या नहीं। ये उनका निजी मामला है। मैंने उनके कमेंट का इस्तेमाल सिर्फ दलितों
के प्रति नजरिए के लिए किया है। उन्होंने दलित आंदोलन की हिंसा पर त्वरित टिप्पणी
की। लेकिन 25 मार्च से दो अप्रैल तक यानी 9 दिन तक उन्होंने बिहार और बंगाल की ‘केसरिया
क्रांति’ पर कुछ नहीं कहा। वैसे कोई अपनी फेसबुक वॉल पर क्या लिखे, ये उसका निजी
मामला है। लेकिन जब आप पत्रकार हों, तो आपकी कुछ जिम्मेदारियां भी होंगी ही।
फेसबुक पोस्ट का स्क्रीन शॉट |
एक और पत्रकार मित्र हैं।
उनका नाम मनोज मलयानिल है। उनके फेसबुक कमेंट को देखिए। इस कमेंट को जस का तस लिख
रहा हूं, बस एक दो जगह कौमा फुल
स्टॉप जोड़ा है। ये लिखते हैं। “जिसके नाम पर खूनी राजनीति हो रही है, उसके दर्जनों बड़े नेता हुए। लेकिन अंबेडकर
जैसा संतुलित सुलझा हुआ, कोई दूसरा दलित नेता नहीं हुआ।“
मनोज जी ने भी
एक खास पार्टी और एक खास संगठन के कार्यकर्ताओं की हिंसा पर नौ दिन चुप्पी साधे
रखी। दो अप्रैल के लिए उन्होंने दो लाइन का गूढ़ कमेंट लिखा। भाई साहब दलित आंदोलन
में हुई हिंसा से दुखी हैं। और अहिंसा की बात कर रहे हैं। बात तो सही है। हिंसा से
कोई दुखी न हो, तो वो असामान्य ही कहा जाएगा। लेकिन अगर खास
तरह की हिंसा ही हमे परेशान करे, तो सवाल पूछने पड़ेंगे।
ये अंबेडकर
जैसे संतुलित और सुलझे नेता की खोज में भी हैं। पर एक सवाल पूछा जाना चाहिए। आपने दलितों
के सामने अपनी डिमांड तो रख दी; तो रामनवमी और हनुमान जयंती के नाम पर बिहार
और बंगाल में उच्च वर्ण हिंदूओं के उत्पात को लेकर चुप क्यों रहे? उस वक्त भी पूछा जाना चाहिए था कि रामनवमी जैसे
धार्मिक त्यौहार के नाम पर बिहार और बंगाल में तांडव क्यों किया गया? या आप मानते हैं कि हिंसा का ये अश्लील
प्रदर्शन मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की परंपरा का हिस्सा है?
भीड़ बहुत बुरी है, अगर आपके खिलाफ हो
दो अप्रैल की हिंसा पर फेसबुक यात्रा के दौरान
कुछ संतुलित कमेंट भी पढ़ने को मिले। इनमें से एक कमेंट पत्रकार राकेश कायस्थ का
है। राकेश जी बेहद सरल शब्दों में उस मंशा पर चोट करते हैं। जो हिंसा हिंसा में
फर्क करता है। वो लिखते हैं, “भीड़ बहुत
अच्छी है, अगर आपके पक्ष में खड़ी हो। भीड़ बहुत बुरी है, अगर आपके
खिलाफ हो। भीड़ जब आपके लिए लाठी और त्रिशूल भांजे, तो आप अट्टाहास करते हैं। भीड़ जब आपके
खिलाफ हो, भारत बंद
करवाने पर उतारू हो जाये; तो आपके देश को होने वाले आर्थिक नुकसान की
चिंता सताने लगती है।“
फेसबुक पोस्ट का स्क्रीन शॉट |
दलित हिंसा को लेकर अफवाहें फैलाई जा रही हैं
हिंसा तो ठीक
नहीं। इसे जितनी बार इस बात को कहा जाए, कहना चाहिए। पर एक बात तो समझनी होगी। आपने
दलितों को एकजुट होकर दो अप्रैल जैसा भारत बंद बुलाते, साल 2018 से पहले कब देखा था? बंद अप्रत्याशित था, और हिंसा इससे भी ज्यादा अप्रत्याशित। पर इसे
अप्राकृतिक मानना तो मूर्खता ही होगी। कोई कब तक जुल्म सह सकता है। आखिरी कोई सीमा
तो होनी ही चाहिए। दो अप्रैल के बंद के दौरान हिंसा की कई और वजहों में से एक ये
भी थी।
दो अप्रैल के
पूरे मामले को लोग अफवाह से जोड़कर नजरअंदाज करने की कोशिश कर रहे हैं। जैसे दलित
एकजुट नहीं हुए, ये अफवाह थी। इस बात को प्रतिष्ठित करने की
भरपूर कोशिश हो रही है कि एससी-एसटी एक्ट को लेकर अफवाहें फैलाई गयी। आरक्षण
को लेकर अफवाहें फैलाई गई। एससी-एसटी एक्ट और आरक्षण के एक दलित समाज के लिए
क्या अहमियत हो सकती है? इसपर लिखूंगा तो बात लंबी हो जाएगी।
एससी-एसटी एक्ट एक समाज को सम्मान और स्वाभिमान से
जीने का हक देता है। उस हक पर खतरा मंडराया, तो दलितों का एकजुट होना कैसे अप्रत्याशित हो
सकता है। ये तो बहुत नेचुरल है। आरक्षण को खत्म करने की आशंका भी बेवजह नहीं हैं।
देश में सरकार चला रही पार्टी के लोग कई बार आरक्षण खत्म करने की वकालत कर चुके
हैं। आरएसएस में शीर्ष पर बैठे लोगों ने भी कहा। तो एससी एसटी एक्ट के कमजोर हो
जाना एक शुरुआत हो सकती है, अगर ये आशंका मेरे दिमाग में उपजे। तो ये
कैसे अननेचुरल हो सकता है?
दो अप्रैल को
दलितों का भारत बंद हुआ। उस बंद में दुर्भाग्य से हिंसा हुई। इस हिंसा के बहाने
दलित समाज को गुनहगार मत बनाइए। ये वर्ग शोषित था, कई सालों से
होता रहा। आज भी है। इस सच्चाई को समझकर कदम नहीं बढ़ाए। तो अब दलित अपनी ताकत
पहचान गए हैं। और दो अप्रैल का भारत बंद कभी भी बुलाया जा सकता है।
इसे जनचौक में भी पढ़ें
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Labels: sc-st, दंगा, दलित आंदोलन, दो अप्रैल, भारत बंद, रामनवमी, हिंसा
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