खुशी और मुस्कान उदास क्यों हैं?
जिस बात की चिंता कई लोगों
को थी, वही हो रहा है। देशभक्ति के नाम पर जो उन्माद फैलाया गया, जो नफरत समाजों
में भरी गई; उसका असर उत्तराखंड से लेकर पश्चिम बंगाल में दिख रहा है।
Courtsey : HT PHOTO |
इस उन्माद और नफरत ने
कोलकाता की दो मासूम बच्चियों को भी निशाना बनाया है। मैं नहीं जानता उन दो बच्चियों
के नाम क्या हैं? शायद महक, मुस्कान, खुशी, शबनम, शबीना या हिना; या फिर कुछ और?
उन बच्चियों का इनमें से
कोई भी एक नाम हो सकता है। पर नाम में क्या रखा है? उन बच्चियों के नाम चाहे जो हों, वो बच्चियां
खिलखिलाती जरुर होंगी। उनकी चेहरे पर एक मुस्कान जरुर उमड़ती होगी। ये बात पक्की
है, वो बच्चियां मासूम शैतानियों से अपने थके पापा को तरोताजा कर देती होंगी।
पर कोलकाता के उस घर में एक
अजीब सा सन्नाटा पसरा है। घर की दो बेटियां उदास हैं। इसी उदासी भरी कहानी को आगे
बढ़ाने के लिए मैंने नौ साल की बच्ची का नाम खुशी रख दिया है, और खुशी की छोटी बहन, जो
सात साल की है; मैं उसे मुस्कान कहना चाहता हूं।
नौ साल की खुशी और सात साल
की मुस्कान उदास क्यों हैं? पहले ये बता दूं।
ये दोनों बहनें कोलकाता के
एक कश्मीरी डॉक्टर की बेटियां हैं। डॉक्टर साहब पिछले 22 साल से कोलकाता में रहकर
प्रैक्टिस कर रहे हैं। इन 22 साल के दौरान कश्मीर में पुलवामा जैसा आतंकी हमला नहीं
हुआ, और न ही उनकी जिंदगी में इतनी उथल पुथल मची।
खुशी और मुस्कान हंसते
खिलखिलाते अपने दोस्तों के साथ कोलकाता के एक मशहूर स्कूल में पढ़ने जाया करती
थीं। फिर 14 फरवरी को पुलवामा में आतंकियों ने सीआरपीएफ के जवानों पर हमला किया।
इस एक हमले ने कोलकाता में रहने वाली खुशी और मुस्कान की जिंदगी में तूफान ला
दिया।
बच्चियों के डॉक्टर पिता ने
शिकायत की है कि पुलवामा हमले के बाद उनकी बेटियों को उनके स्कूल के दोस्तों ने
अलग-थलग कर दिया है। ये शिकायत पश्चिम बंगाल राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग तक भी
पहुंची है।
आयोग की अध्यक्ष अनन्या चक्रवर्ती ने न्यूज एजेंसी पीटीआई से कहा, “डॉक्टर ने मुझे बताया कि उनकी बेटियों के दोस्त उनसे अच्छी तरह बात नहीं कर रहे हैं। बच्चियों के दोस्तों ने अचानक उनके साथ स्कूल जाना छोड़ दिया। मैंने स्कूल मैनेजमेंट से बात की और उन्होंने कहा कि वो इस मामले को देखेंगे।“
पश्चिम बंगाल की सरकार
डॉक्टर और उनकी बच्चियों के साथ खड़ी तो है, पर क्या कोई भी सरकार किसी बच्चे के
लिए दोस्त का इंतजाम कर सकती है। अगर दोस्त रुठ जाएं, दोस्ती तोड़ लें; तो क्या सरकार रुठे दोस्तों
को मना लेगी?
नौ साल की खुशी और सात साल
की मुस्कान के दोस्त भी उनसे रुठ गए हैं। दोस्त ऐसी बात के लिए रुठे हैं, जिसका
खुशी और मुस्कान से कोई लेनादेना नहीं है। खुशी और मुस्कान तो शायद इस हिंसा को
समझती भी न हों।
खुशी और मुस्कान के दोस्त
बेशक उन्हीं की उम्र के रहे होंगे। तो बड़ा सवाल यही है कि सात-आठ, नौ या दस साल
के बच्चों के मन में एक आतंकवादी (आदिल डार) के नाम पर पूरी एक जमात या देश के एक हिस्से (कश्मीर) के
लोगों के लिए नफरत के बीज कौन डाल रहा है?
अगर कोलकाता के नामी स्कूल
में खुशी और मुस्कान को उनके दोस्तों ने अलग-थलग कर दिया है; तो एक बात साफ है कि समाज
में देशभक्ति के नाम पर जो उन्माद सियासी लोगों और मीडिया के जरिए फैलाया गया है।
वो नफरत की शक्ल में अपना असर दिखा रहा है। क्या कोई सरकार खुशी और मुस्कान के
दोस्तों के दिल और दिमाग में पड़ी इस नफरत को साफ कर सकती है?
डॉक्टर को धमकियां भी मिलीं
हैं। न्यूज एजेंसी पीटीआई की रिपोर्ट बताती है कि कुछ लोग डॉक्टर के घर घुस आए, और
उन्हें कोलकाता छोड़ने के लिए धमकाया गया। इन लोगों ने डॉक्टर से कहा, “तुम पाकिस्तान चले जाओ,
कश्मीरियों को हिंदुस्तान में रहने का हक नहीं है।“
क्या कश्मीरियों का
हिंदुस्तान पर कोई हक नहीं?
“उन्माद से भरी देशभक्ति” के इस दौर में हर देशभक्त कश्मीर के लिए जान देने का ख्याल
रखता है। श्रीनगर की डल झील से हमें जोशीली मुहब्बत है। गुलमर्ग की वादियां हमें जान
से प्यारी हैं। कश्मीर के पहाड़, नदियां, झरने, बागीचे हमें सब चाहिए। ये सब अच्छा
है; लेकिन हमें हमारे इलाके, हमारे होटल, हमारे हॉस्टल और हमारे स्कूल-कॉलेज में
कश्मीरी बर्दाश्त नहीं। कश्मीर की वादियों, पहाड़ों, झील-झरनों, बागीचों के लिए
अपनी मुहब्बत को बढ़ाते रहिए, पर थोड़ी सी मुहब्बत के हकदार इन वादियों में रहने
वाले जिंदा कश्मीरी भी हैं।
पर जो कुछ देहरादून में
हुआ, वो इंसानियत के नाम पर शर्मनाक है।
‘न्यूज 18’ वेबसाइट की रिपोर्ट बताती है कि देहरादून में उन्मादी भीड़ ने अल्पाइन कॉलेज
पर धावा बोला, और वहां पढ़ने वाले 300 से ज्यादा कश्मीरी छात्रों को कॉलेज से
निकालने को कहा। इस उग्र भीड़ ने कॉलेज की एक कश्मीरी टीचर को भी निकालने का दबाव
डाला। उग्र भीड़ के दबाव के चलते कॉलेज प्रशासन ने कश्मीरी टीचर को बाहर का रास्ता
दिखा दिया।
21 फरवरी की ये रिपोर्ट
बताती है कि इस घटना के बाद अल्पाइन कॉलेज में पढ़ने वाले 230 कश्मीरी स्टूडेंट
कॉलेज छोड़कर जा चुके हैं। अल्पाइन कॉलेज जैसा हाल देहरादून के दूसरे शिक्षण
संस्थानों का भी है। कश्मीरी स्टूडेंट्स का साथ इस तरह हिंसा की खबरें मोहाली से
भी आई हैं।
देशभक्तों तय करो, शहीदों
के साथ हो या आतंकियों के साथ?
पूरा देश सीआरपीएफ के 40
जवानों की शहादत पर दुखी है। पर हमें सोचना चाहिए कि वो 40 जवान कश्मीर में क्यों
थे? वो जवान देश की एकता के लिए कश्मीर में थे। वो जवान कश्मीर में फैले आतंक को
खत्म करने गए थे, और इसी रास्ते पर चलकर उन्होंने शहादत दी। इन जवानों की
शहादत के बाद सच्चे देशभक्त को क्या करना चाहिए? आतंकियों की मदद करनी चाहिए, या देश की एकता के
लिए काम करने वाले सैनिकों की भावना पर अमल करना चाहिए?
आतंकी संगठन चाहते हैं कि
कश्मीरी नौजवान भारत और यहां की संस्थाओं से नफरत करें, और ये नफरत इस हद तक पहुंच
जाए कि वो उन्मादी बन जाएं और फिर हथियार थाम लें।
थोड़ा दिमाग से काम लीजिए
और आराम से सोचिए। देहरादून, मोहाली, कोलकाता और देश के दूसरे हिस्सों में उन्माद
को देशभक्ति समझने वाली एक भीड़ आतंकियों की कितनी मदद कर रही है। हिंसा को करारा
जवाब देकर किताब थामने वाले आम कश्मीरी स्टूडेंट पढ़कर शांति का संदेश फैलाना चाहता
होगा, लेकिन ये उन्मादी देशभक्त उन्हें क्या दे रहे हैं?
उन्मादी देशभक्तों ने आम
कश्मीरी छात्रों को स्कूल, कॉलेज और अपने इलाकों से बेदखल करके; उनके दिल और दिमाग में एक
नफरत भरने का काम किया है। खुदा खैर करे, भगवान ऐसा न होने दें। पर आतंकियों के आका इस
नफरत का इस्तेमाल जरुर करेंगे।
तो उन्मादी देशभक्तों,
सुनो। आपने भारत माता की जय के नारे लगाए जरुर; पर आपने जो काम किया है, उससे आंतकियों के आका
खुश हुए होंगे।
ये इतिहास से सबक लेने का
वक्त है
हमें इतिहास से सीखना
चाहिए, वरना इतिहास हमें मूर्खों के तौर पर याद करेगा।
थोड़ा इतिहास को याद करना
चाहिए। चौरासी के दंगों का दर्द 34 साल में भी नहीं भरा है। 31 अक्टूबर 1984 को
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पर गोली दो सिखों ने चलाई, पर उन्माद ने निशाना
पूरे सिख समुदाय को बनाया। इसके अगले दो तीन दिन में ही सिख समुदाय के करीब तीन
हजार लोग एक भीषण दंगे के शिकार बने।
पुलवामा और इससे पहले हुए
आतंकी हमलों में बेशक कुछ कश्मीरी आतंकी शामिल रहे हैं। लेकिन आतंक की इन घटनाओं
को कश्मीर की पूरी कश्मीरी बिरादरी से जोड़ देना चौरासी वाली गलती को दोहराने जैसा
ही है।
एक वाक्य में कहें; तो कहना चाहिए, 2019 की 14
फरवरी को 1984 का 31 अक्टूबर मत बनने दो।
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