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Thursday, January 3, 2019

‘सबका साथ-सबका विकास’ से ‘सब’ कौन गायब करता है?


साल 2014 में दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने जिस नारे का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है। अगर ये सवाल किसी से पूछा जाए, तो बेशक एक नारा दिमाग में कौंधता है। वो नारा है – सबका साथ, सबका विकास
 
चार शब्दों के इस नारे में महान हिंदुस्तान की वो विराट विरासत छिपी है। जिसे अलग-अलग वक्त में अलग-अलग नारों से शक्ल दी गई। संस्कृत में दो शब्दों का मूल वाक्य न जाने कितने वर्षों से हिंदुस्तान की चेतना को झकझोर रहा है। ये दो शब्द हैं – वसुधैव कुटुंबकम्। यानी पूरी धरती परिवार के समान है  
(Courtsey Image : Google search )
 
ये दो शब्द, महोपनिषद के एक श्लोक की दो पंक्तियों का हिस्सा हैं। जहां लिखा गया है –

अयं निज: परो वेति गणना लघु चेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्।।


इसका अर्थ है – यह मेरा बंधु है, वह मेरा बंधु नहीं है। ऐसा विचार या भेदभाव छोटे विचार वाले लोग करते हैं। उदार चरित्र के लोग पूरी दुनिया को ही परिवार मानते हैं। 

तो जब-जब प्रधानमंत्री कहते हैं, सबका साथ-सबका विकास। तब-तब आभास होता है कि राजनीति में कोई है, जो इंसान को इंसान समझना चाहता है और उसके धर्म, उसकी जाति, उसके रंग-रुप, उसके क्षेत्र की पहचान को दरकिनार कर देने का विचार मन में संजोए है। 

कहा जाता है कि दुनिया के सबसे विशाल राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की संख्या 10 करोड़ के पार है। और मैंने ये भी महसूस किया है कि यही वो राजनीतिक दल है, जिसके कार्यकर्ता अपने नेता नरेंद्र मोदी को पलकों पर बिठाकर रखते हैं।

नरेंद्र मोदी की यही ताकत भी है; उनके करोड़ों समर्थक उनकी हर सही, कभी गलत बात के पीछे भी चट्टानी समर्थन देते हैं। 

सोचता हूं कि मई 2014 के बाद से अब तक प्रधानमंत्री ने इस नारे (सबका साथ, सबका विकास) को कितनी बार बोला होगा? सैकड़ों बार, संभव है हजारों बार।

यहीं पर एक विरोधाभासी सवाल पिछले कई दिनों से मेरे मन में बार-बार उठ रहा है। सवाल ये है कि जब दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल का नेता हजारों बार छोटे बड़े मंच से सबका साथ, सबका विकास कहता है, तब उसकी पार्टी के देशभर में फैले कार्यकर्ता इस नारे की भावना को पकड़-समझ क्यों नहीं पाते

कहानी को आगे बढ़ाऊं, उससे पहले एक किस्सा बता दूं। कुछ दिन पहले मैं अपने एक पारिवारिक मित्र से मिला, बातों-बातों में राजनीति की बात होने लगी। बातचीत का सिलसिला राम मंदिर से होते हुए मौजूदा सरकार के कामकाज तक चला गया। 

मैं इस बहस में न कूदता। जब तक कि मेरे वो मित्र राम मंदिर बनाए जाने के लिए एक ऐसी दलील न पेश करते; जिसने मेरे अंदर के बहसबाज को मैदान में उतरने के लिए बाध्य कर दिया। 


मैंने पूछा – ऐसे देश में राम मंदिर की भला क्या जरुरत, जहां करोड़ों युवा बेरोजगारी के समंदर में गहरे, और गहरे उतरते जा रहे हों; और बाहर निकलने का कोई रास्ता दिखता न हो।

उन्होंने बेरोजगारी के सवाल को नजरअंदाज कर दिया, राम मंदिर पर ही फोकस किया। उन्होंने कहा – देश में हिंदू संस्कृति को जिंदा रखने के लिए राम मंदिर जरुरी है।

भला क्यों?” मैंने पूछा।
तब उन्होंने, इसके लिए एक तर्क पेश किया। वो बहस में मुसलमानों को ले आए थे। 


उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई - हम नहीं जागे तो मुसलमान पूरे देश पर कब्जा कर लेंगे। उन्होंने हमारे सारे रोजगार पर कब्जा कर लिया है।

उनका हमारे शब्द पर ज्यादा जोर था।

उन्होंने आगे कहा – मुसलमानों को तो 1947 में ही पाकिस्तान चले जाना चाहिए था।

मैंने टोका। पर वो गए नहीं, हिंदुस्तान को अपनी मिट्टी समझकर यहीं चिपक गए, रच बस गए।

उन्होंने कहा – अगर हमने उन्हें यहां रहने दिया, तो उन्हें तमीज से रहना चाहिए।
कुछ देर में बहस मोदी राज पर आ गई थी। उन्होंने मोदी सरकार के हर काम की तारीफ की। नोटबंदी को सही ठहराने के भी उनके पास तर्क थे। उनका कहना था – भले ही नोटबंदी कामयाब न रही, पर मंशा तो ईमानदार थी न?

वो जोश में थे। उनकी चलती, तो वो उसी पल नरेंद्र मोदी को 2019 के चुनाव से पहले दोबारा प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला देते। 

यहां पर एक बात बताना जरुरी है कि मेरी बहस जिस मित्र से हुई। वो पढ़े लिखे हैं, इतना कि आपको उनकी पढ़ाई लिखाई से रश्क हो जाए। 

मेरे मन में सवाल ये है कि मेरे उन मित्र को अपने प्रिय प्रधानमंत्री के उन शब्दों की अहमियत क्यों नहीं पता? जबकि मेरे प्रधानमंत्री बार-बार कहते हैं सबका साथ, सबका विकास

चलिए मान लेते हैं, वो (समर्थक) इस नारे की अहमियत नहीं समझना चाहते। फिर अगला सवाल ये होना चाहिए कि प्रधानमंत्री के इन करोड़ों प्रशंसकों, समर्थकों या एक तरह से भक्त बन गए लोगों के दिल और दिमाग में इस शानदार नारे (सबका साथ, सबका विकास) का विपरीत विचार क्यों और कैसे पनप गया है

मुझे पूरा यकीन है कि जब प्रधानमंत्री सबका साथशब्द बोलते हैं, तब उसमें हिंदुस्तान के सब जरुर शामिल होंगे। मुझे नहीं लगता प्रधानमंत्री सब में से मुसलमानों को अलग छोड़ने का इरादा भी करते होंगे।


मैं तो यहां तक मानता हूं कि प्रधानमंत्री के दिल और दिमाग में ये विचार आता भी न होगा। मेरा प्रधानमंत्री पर ये विश्वास इसलिए है, क्योंकि जो शख्स सबका साथ, सबका विकाससैकड़ों भाषणों में हजारों बार कह चुका हो। संभव नहीं है कि वो इन शब्दों का मर्म न समझे, और इसके विपरीत सोचने लगे।

तो क्या आप मेरी इस बात से सहमत होना चाहेंगे? मई 2014 से अब तक यानी चार साल सात महीने के दौरान मेरे प्रधानमंत्री के प्रशंसकों और उनकी पार्टी के समर्थकों ने श्रीमुख से निकले सबसे शानदार शब्दों (सबका साथ, सबका विकास) पर जरा भी गौर नहीं किया।

उलट इसके, उन्होंने (समर्थक, प्रशंसक इत्यादी) इस नारे (सबका साथ, सबका विकास) को चौराहे पर तार-तार बेइज्जत ही किया है। जब-जब दुनिया की सबसे विशाल पार्टी के कार्यकर्ता और इस महान देश के सबसे मजबूत नेता के प्रशंसक मुसलमान...मुसलमान, मंदिर...मस्जिद बोलते हैं। तब-तब लगता है कि या तो वो अपने नेता की बात सुनना नहीं चाहते; या फिर ऐसा वो बहुत सोच समझकर ही कर रहे हैं। 

तो इस लेख के आखिरी हिस्से में सवाल ये खड़ा हो गया है कि क्या इस दौर के सबसे मजबूत समझे जाने वाले नेता से भी ज्यादा अहम कोई है?  

जो सबका साथ नहीं चाहता। सबका विकास तो कतई नहीं। वो कौन है?

या फिर शतरंज का एक ऐसा खेल खेला जा रहा है, जिसके काले सफेद 64 खानों में 32 प्यादे, घोड़े, ऊंट, हाथी, वजीर और राजा घूम रहे हैं। और इन्हें घुमाने वाला कोई एक हाथ है, काली तरफ भी और सफेद तरफ भी। 

वो हाथ किसके हैं? जिसके इशारे पर राजा मुहब्बत की बातें करता है। वजीर, राजा की शान में कसीदे गढ़ता है। घोड़े और ऊंट को टेढ़ी चाल चलने की आजादी मिली हुई है। और जिसके इशारे पर प्यादे हर वो बात करने पर आमादा हैं, जो राजा की फैलाई मुहब्बत का गला घोंट रहे हैं। 

संभव है ये खेल फिक्स हो। हारे कोई भी अंत में जीतेगा वही, जिसके इशारे पर राजा खेलता है, प्यादे उछलते हैं। 

और अंत में एक दूसरी बात, जिसका ताल्लुक इस लेख से है भी, और नहीं भी। राजनीति का खेल कोई पांच साल के लिए तो खेला नहीं जाता। पांच साल में तो सिर्फ चुनाव आते हैं।

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