सवाल लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में सत्ता के दखल का है!
एबीपी न्यूज चैनल में मैनेजिंग एडिटर मिलिंद खांडेकर और सीनियर
जर्नलिस्ट पुण्य प्रसून वाजपेयी के इस्तीफों और टीवी के जाने पहचाने चेहरे
और एंकर अभिसार शर्मा जबरन छुट्टी पर भेजे जाने के बारे में पिछले एक हफ्ते
में कई बातें कही गई हैं।
एबीपी न्यूज में हुई इस घटना ने सोशल मीडिया से लेकर आम बहस में लोगों को दो धड़ों में बांट दिया है। ठीक उसी तरह जैसे देश में घट रही तमाम घटनाओं के साथ हो रहा है।
(इस लेख को आप www.janchowk.com पर भी पढ़ सकते हैं)
ऐसी कहानियां बहुत हैं। चिंता की बात है, हम घटनाओं को सत्ता पक्ष और विपक्ष के पीछे खड़ी ‘समर्थक भीड़’ की नजर से देखने के आदी होते जा रहे हैं।
ऐसा ही एबीपी न्यूज के मामले में हुआ। ये गंभीर और चिंताजनक मामला था, एक नागरिक और समाज के तौर पर हमें चौंकना चाहिए था। लेकिन हमने चौंकना छोड़ दिया है।
कुछ लोगों ने एबीपी न्यूज में जो हुआ, उसे बहुत सामान्य घटना माना। खासतौर से सोशल मीडिया में एक स्वर उभरकर सामने आया; ये स्वर कह रहा था – अच्छा हुआ। कुछ प्रबुद्ध लोगों ने कहा – ‘जश्न मनाना चाहिए।‘
एबीपी न्यूज की घटना को पिछले वक्त में हुई छंटनियों से जोड़ा गया। एक खास समुदाय, जो आए दिन पूछता है - ‘आप उस वक्त कहां थे’? पुण्य प्रसून वाजपेयी के संदर्भ में पूछा गया – जब सहारा समय और आईबीएन-7 में छंटनी हो रही थी, तब आप कहां थे?
सवाल बुरा नहीं है। छंटनियों को लेकर चिंता भी वाजिब है। पर दोनों घटनाओं के संदर्भ जुदा हैं।
संभव है निजी जिंदगी में ये दोनों शख्स नैतिकता के मापदंडों पर खरे न उतरें। पर एक पत्रकार के तौर पर क्या ये पत्रकारिता के नैतिक मापदंडों का पालन कर रहे थे? मेरी रुचि इसमें ज्यादा है।
इस लेख को लिखते वक्त पुण्य प्रसून वाजपेयी या अभिसार शर्मा का पक्ष लेने का इरादा नहीं है। सवाल किसी एक नाम का नहीं है, न ही किसी एक शख्स की नौकरी जाने का है।
सवाल लोकतंत्र के चौथे खंभे में सत्ता के दखल का है।
चिंता की बात ये है कि सत्ता पत्रकारों को बता रही है कि खबर कैसे लिखी जाए? और हेडलाइंस क्या होनी चाहिए?
कुछ लोगों ने पुण्य प्रसून वाजपेयी के मास्टर स्ट्रोक के बारे में टिप्पणी की। कहा गया कि पुण्य प्रसून वाजपेयी सत्ता के खिलाफ एक एजेंडा चला रहे थे। कहा गया कि वो कांग्रेस के हाथों में खेल रहे थे। सभंव है, पुण्य प्रसून वाजपेयी सत्ता यानी मोदी के खिलाफ एजेंडा चला रहे हों।
कुछ लोगों ने पुण्य प्रसून वाजपेयी और मिलिंद खांडेकर के इस्तीफे तथा अभिसार शर्मा के साथ व्यवहार को नेचुरल जस्टिस बताया।
पर ध्यान दीजिए, नेचुरल जस्टिस सत्ता के रहमोकरम पर टिका नहीं होता। नेचुरल जस्टिस सत्ता की ऊंची कुर्सी पर बैठे शख्स के इशारे का मोहताज नहीं होता।
ये नेचुरल जस्टिस नहीं है, ये सत्ता के इशारे पर खेला गया बेहूदा खेल है। जिसमें आज सत्ता के हाथ बाजी है। अगर आपको नेचुरल जस्टिस पर यकीन है, तो यकीन रखिए - नेचुरल जस्टिस होगा।
एबीपी न्यूज में हुई इस घटना ने सोशल मीडिया से लेकर आम बहस में लोगों को दो धड़ों में बांट दिया है। ठीक उसी तरह जैसे देश में घट रही तमाम घटनाओं के साथ हो रहा है।
भीड़ एक इंसान को चौराहे पर पीट-पीटकर मार देती है। और समाज का एक धड़ा खड़ा होकर हत्यारी भीड़ के कारनामों को सही ठहराने के लिए दलीलें देता है।
रेप-दर-रेप की घटनाएं भी सियासी खेमेबंदी में बंट गई हैं। हम रेप के आरोपियों के पक्ष में खड़े होने के शर्मनाक दौर से गुजर रहे हैं। रेप के पक्ष में दलीलें देने का जो दौर अब आया है, वैसा पहले कभी नहीं था।सत्ता से गलबहियां करने वाले लोग बालिका गृह में बच्चियों की आत्मा छलनी करते रहते हैं; लेकिन सत्ता के पीछे आंखों पर पट्टी बांधकर खड़ी भीड़ को बच्चियों की सिसकियां, उनकी आह और छलनी कलेजा नहीं दिखता। ये भीड़ लगातार ऐसी दलीलें तलाशने में लगी हुई है, जिससे कुर्सी पर बैठा आका पाक-साफ नजर आए।
(इस लेख को आप www.janchowk.com पर भी पढ़ सकते हैं)
ऐसी कहानियां बहुत हैं। चिंता की बात है, हम घटनाओं को सत्ता पक्ष और विपक्ष के पीछे खड़ी ‘समर्थक भीड़’ की नजर से देखने के आदी होते जा रहे हैं।
ऐसा ही एबीपी न्यूज के मामले में हुआ। ये गंभीर और चिंताजनक मामला था, एक नागरिक और समाज के तौर पर हमें चौंकना चाहिए था। लेकिन हमने चौंकना छोड़ दिया है।
कुछ लोगों ने एबीपी न्यूज में जो हुआ, उसे बहुत सामान्य घटना माना। खासतौर से सोशल मीडिया में एक स्वर उभरकर सामने आया; ये स्वर कह रहा था – अच्छा हुआ। कुछ प्रबुद्ध लोगों ने कहा – ‘जश्न मनाना चाहिए।‘
एबीपी न्यूज की घटना को पिछले वक्त में हुई छंटनियों से जोड़ा गया। एक खास समुदाय, जो आए दिन पूछता है - ‘आप उस वक्त कहां थे’? पुण्य प्रसून वाजपेयी के संदर्भ में पूछा गया – जब सहारा समय और आईबीएन-7 में छंटनी हो रही थी, तब आप कहां थे?
सवाल बुरा नहीं है। छंटनियों को लेकर चिंता भी वाजिब है। पर दोनों घटनाओं के संदर्भ जुदा हैं।
सहारा समय और आईबीएन-7 में हुई छंटनियां नि:संदेह गलत थीं। हर छंटनी की तरह। पर इन छंटनियों के पीछे सत्ता नहीं थी। न सत्ता का दबाव था। ये पूंजीवाद, बाजारवाद या कहें कॉर्पोरेट के एक कल्चर का रिजल्ट था। ये एक संस्थान के मैनेजमेंट का मामला था। ये प्रैक्टिस सड़ी गली है, करप्ट है, इसमें अन्याय शामिल है; पर इसमें सत्ता शामिल नहीं है।
क्या सहारा समय और आईबीएन-7 में हुई छंटनियों में सत्ता का दखल था? ये उन लोगों को बताना चाहिए, जो लगातार एबीपी न्यूज की घटना को पुरानी छंटनियों से जोड़ रहे हैं।इसी समुदाय ने एबीपी न्यूज की घटना की एक और व्याख्या की। कई लोगों ने सोशल मीडिया पर लंबे चौड़े पोस्ट लिखकर एबीपी न्यूज के मामले को पुण्य प्रसून वाजपेयी और अभिसार शर्मा के व्यक्तित्व और उनके निजी मामलों से जोड़ा। उनके व्यक्तित्व के कई पहलुओं के जरिए ये समझाने की कोशिश की, कि उनके साथ जो हुआ सही हुआ।
संभव है निजी जिंदगी में ये दोनों शख्स नैतिकता के मापदंडों पर खरे न उतरें। पर एक पत्रकार के तौर पर क्या ये पत्रकारिता के नैतिक मापदंडों का पालन कर रहे थे? मेरी रुचि इसमें ज्यादा है।
इस लेख को लिखते वक्त पुण्य प्रसून वाजपेयी या अभिसार शर्मा का पक्ष लेने का इरादा नहीं है। सवाल किसी एक नाम का नहीं है, न ही किसी एक शख्स की नौकरी जाने का है।
सवाल लोकतंत्र के चौथे खंभे में सत्ता के दखल का है।
चिंता की बात ये है कि सत्ता पत्रकारों को बता रही है कि खबर कैसे लिखी जाए? और हेडलाइंस क्या होनी चाहिए?
कुछ लोगों ने पुण्य प्रसून वाजपेयी के मास्टर स्ट्रोक के बारे में टिप्पणी की। कहा गया कि पुण्य प्रसून वाजपेयी सत्ता के खिलाफ एक एजेंडा चला रहे थे। कहा गया कि वो कांग्रेस के हाथों में खेल रहे थे। सभंव है, पुण्य प्रसून वाजपेयी सत्ता यानी मोदी के खिलाफ एजेंडा चला रहे हों।
पर क्या उनके कार्यक्रम में उठाए गए सवाल या रपट गलत थे? अगर वो एजेंडे का हिस्सा थे और मोदी सरकार पर मिथ्या आरोप थे; तो ताकतवर सरकार ने पीछे से वार क्यों किया? गलत रिपोर्ट दिखाने के लिए पुण्य प्रसून वाजपेयी के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए थी। क्या ऐसा कुछ किया गया?
अगर रिपोर्ट गलत थी, तो सौ करोड़ की मानहानि का नोटिस पुण्य प्रसून वाजपेयी और संबंधित चैनल को भी भेजा जा सकता था। ऐसा एक बार हो सकता है, तो इसे दोहराया भी जा सकता था।क्या ताकतवर सरकार, बीजेपी के प्रभावशाली नेताओं और उनके पीछे चलने वाले करोड़ों कार्यकर्ताओं में से कोई एक भी नहीं था, जो कानून के हिसाब से पुण्य प्रसून वाजपेयी के कथित एजेंडे या झूठी रिपोर्ट का पर्दाफाश कर देता।
कुछ लोगों ने पुण्य प्रसून वाजपेयी और मिलिंद खांडेकर के इस्तीफे तथा अभिसार शर्मा के साथ व्यवहार को नेचुरल जस्टिस बताया।
पर ध्यान दीजिए, नेचुरल जस्टिस सत्ता के रहमोकरम पर टिका नहीं होता। नेचुरल जस्टिस सत्ता की ऊंची कुर्सी पर बैठे शख्स के इशारे का मोहताज नहीं होता।
ये नेचुरल जस्टिस नहीं है, ये सत्ता के इशारे पर खेला गया बेहूदा खेल है। जिसमें आज सत्ता के हाथ बाजी है। अगर आपको नेचुरल जस्टिस पर यकीन है, तो यकीन रखिए - नेचुरल जस्टिस होगा।
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