मुहब्बत से किसे डर लग रहा है?
आठ साल पहले रज्जो ने बड़ी बात कही थी। रज्जो ने दबंग हीरो से कहा – थप्पड़ से
डर नहीं लगता, साहब; प्यार से लगता है। ये कहते हुए रज्जो काफी मजबूत दिख रही थी, और दबंग हीरो पूरी तरह पिघल
गया। वो सिल्वर स्क्रीन की कहानी थी। पात्र काल्पनिक जरुर थे, लेकिन मुहब्बत तो सच्ची है।
आठ साल बाद देश की सियासत में प्यार का नैरेटिव गढ़ा जा रहा है। चुनाव से करीब
10 महीने पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी नफरत को प्यार से जीतने की बात कह रहे
हैं। विरोधी हैरान है। मुहब्बत के इस फलसफे की उनकी (राहुल के विरोधियों) अपनी
व्याख्या है। विरोधी मुहब्बत की बातों को कभी नाटक-नौटंकी कहते हैं। कभी पहले से
स्क्रिप्टेड रणनीति। एक बात सूत्रों के हवाले से अखबारों के पन्नों तक फैला दी गई
है कि राहुल गांधी का पहले प्यार की बात करना और फिर प्रधानमंत्री के गले लगना, एक
तंत्र क्रिया का हिस्सा था।
खैर, मुहब्बत में रुसवाई मिलती ही है। मैं तो कहूंगा; कहने दो उन्हें मुहब्बत को
नाटक-नौटंकी, बचकाना हरकत, स्क्रिप्टेड रणनीति। मुहब्बत में इतना तो सहना ही होगा।
राहुल गांधी के हाथ मुहब्बत का हथियार लगा है; और वो इसका बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। 20
जुलाई को लोकसभा के अंदर जब भाषण की कला में कच्चे राहुल गांधी ने आरोपों की पिच से
हटकर मुहब्बत की पिच पर गेंद डाली; तब भाषण की कला
के सबसे माहिर खिलाड़ी नरेंद्र मोदी को भी लाइन लेंग्थ समझने में थोड़ी देर लगी। वो
जिस बॉल को नो-बॉल समझकर मुस्करा रहे थे, वो अचानक किल्ली
में जाकर लगी।
वो तस्वीर मेरे जेहन में चिपक गई है। तारीख, 20 जुलाई और वक्त, दोपहर दो बजकर ठीक छह मिनट। राहुल गांधी मुहब्बत और नफरत पर अपना फलसफा बताकर सीधे
प्रधानमंत्री की कुर्सी की तरफ बढ़ चले थे। प्रधानमंत्री की कुर्सी के ठीक पीछे
बैठे सांसद मजाक उड़ाने वाले लहजे में हंस रहे थे। सत्ता पक्ष की बैंच उनपर ठहाके
लगाकर हंस लेने पर आमाद सी लग रही थी। इसी वक्त राहुल गांधी मजाक, तंज और ठहाके
लगाते सत्ता पक्ष की बैंच की तरफ बढ़ रहे थे। चंद सेकेंड में वो प्रधानमंत्री के
सामने उनसे खड़े होने का आग्रह करने लगे।
वो नो-बॉल नहीं थी। अक्सर ऐसा होता
है; शतक के करीब ओवर कॉन्फिडेंस की बीमारी अच्छे
खासे सेट बल्लेबाज का स्टंप गिरा देती है। ऐसा ही हुआ, कुछ सेकेंड नरेंद्र मोदी समझ ही नहीं पाए कि राहुल
गांधी क्या करना चाहते हैं? पर वो नरेंद्र
मोदी हैं। इस वक्त शायद देश के सबसे चतुर राजनेता। सो तीर कमान से निकलता, इससे पहले उन्होंने अपनी सीट की तरफ लौटते
राहुल की पीठ ठोकी; और फिर हाथ
मिलाने की औपचारिकता पूरी कर ली।
पर भाषणों की कलाबाजी, सोशल मीडिया के
जरिए चरित्र हनन और मीडिया के दास बन जाने वाले दौर में राहुल गांधी अपना नैरेटिव
फिक्स कर चुके थे। नैरेटिव – नफरत बनाम मुहब्बत।
जब कोई अपने विरोधी से कहता है - तुम मुझे पप्पू कहो, मैं
बुरा नहीं मानूंगा। तब विरोधी को नए हथियार तलाशने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
अच्छी बात ये है कि राहुल गांधी अब भी अपनी बात पर अड़े हैं, और वहीं खड़े भी हैं; जहां उन्होंने 20 जुलाई को
2 बजकर 6 मिनट पर अपनी बात छोड़ी थी।
वो नफरत के खिलाफ मुहब्बत की बात बार बार दोहरा रहे हैं।
पत्रकार करण थापर की किताब डेविल्स एडवोकेट की रिलीज के
मौके पर राहुल गांधी ने फिर वही बात कही। जो उन्होंने 20 जुलाई को संसद के अंदर
कही।
राहुल गांधी ने कहा, “हम किसी के साथ
पूरी ताकत से लड़ सकते हैं और साथ साथ उसके साथ नफरत करना जरूरी नहीं। नफरत करना आपकी व्यक्तिगत पसंद होती है। मैं गले भी मिल
सकता हूं, और साथ ही (मुद्दों पर) लड़ भी सकता हूं।
उन्होंने आगे कहा, “लाल कृष्ण आडवाणी
से मेरा मतभेद हो सकता है, देश के बारे में
मेरी राय उनसे अलग हो सकती है। इसके लिए मैं आडवाणी से लड़ाई करुंगा, लेकिन मुझे उनसे नफरत करने की जरुरत नहीं है।
मैं उन्हें गले लगा सकता हूं और उनसे लड़ सकता हूं।“
फिर उन्होंने कहा, “मैं नरेंद्र मोदी
जी से लड़ूंगा। हम सब बीजेपी से लड़ंगे, लेकिन उनसे नफरत
करने की जरुरत नहीं है। मैं भी उनसे इसी सम्मान की उम्मीद करता हूं।“
राहुल गांधी की बातों में दो बातें साफतौर से उभर रही हैं।
वो मुहब्बत की बात दिल खोलकर कर रहे हैं, पर लड़ाई से पीछे नहीं हट रहे। इस बार
राहुल गांधी ने मुहब्बत वाली अपनी बात के साथ एक दर्शन भी जोड़ा था। उन्होंने कहा, “किसी से लड़ना है तो पूरी ताकत के साथ लड़ाई
कीजिए, लेकिन नफरत करना आपकी व्यक्तिगत पसंद होती है।“
जब वो कहते हैं, “नफरत करना आपकी
व्यक्तिगत पसंद होती है।“ तब वो विरोधी पर
बहुत बड़ा हमला करते हैं। पर विरोधी राहुल की गुगली को नो-बॉल समझने की गलती बार
बार कर रहे हैं।
मुहब्बत को नाटक-नौटंकी कहना, स्क्रिप्टेड रणनीति बताना और फिर तंत्र क्रिया से जोड़
देना। ये मुहब्बत को बदनाम करने की बेकार कोशिश है। मुहब्बत सच्ची है, तो परवान चढ़ेगी; कौन रोक पाएगा?
एक बात और समझिए, अगर मुहब्बत याने प्यार उनकी (राहुल) रणनीति है, तो नफरत वाली रणनीति से
बेहतर है। अगर मुहब्बत को चुना गया है, तो ये नफरत चुनने से बेहतर है। ये अचानक हुआ हो, ऐसा भी नहीं लगता। या तो ये
रणनीति है, या फिर उनकी
आदत।
मुहब्बत से नफरत को जीतने की बातें कहानियों में अच्छी लगती हैं। राजनीति में
नहीं चलती, ऐसा कहने वालों की
कमी नहीं। पर सौ साल पुरानी बात है, जब इसी देश में एक शख्स ने प्यार और अहिंसा से
राजनीति के पूरे कैरेक्टर को बदल दिया। नाम बताने की भी जरुरत नहीं, सब जानते हैं; वो महात्मा गांधी थे। उस
गांधी और इस गांधी की तुलना ठीक नहीं। पर मुहब्बत की तासीर अब भी वही है। जो सौ
बरस पहले थी।
2 Comments:
सारे धत्कर्म कुसी के लिए, चाहे पार्टी कोई भी हो
आपने सही कहा,राजनीति तो है ही।।।
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