राहुल जी, ये मुहब्बत के इम्तिहान का वक्त है
ये एक बेहतरीन मौका था। जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी देश और दुनिया को बता
सकते थे कि नफरत के बरक्स प्यार के जिस पैगाम की बात वो इन दिनों बार-बार कर रहे
हैं, वो प्यार होता कैसा
है?
राहुल गांधी दुनिया को बता सकते थे कि मुहब्बत और मानवता से भरी राजनीति में चाहे
जो जोखिम हो, वो उसे उठाने की
हिम्मत और जज्बा रखते हैं।
राहुल गांधी बता सकते थे कि ऐसे वक्त में जब विरोधी हिंदू-मुसलमान की सियासी चाल चल रहा है; और आगे इस चाल को और गहरा करने पर आमादा है। वो एक ऐसी राजनीति की बात करेंगे; जो संविधान द्वारा हिंदुस्तान के लिए तय की गई है।
राहुल गांधी बता सकते थे कि गांधी की जिस धारा पर चलकर कांग्रेस ने 2018 तक का
सफर तय किया है। वो कांग्रेस समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर न
सिर्फ भरोसा करती है, बल्कि इसके लिए हर कीमत अदा कर सकती है।
राहुल गांधी के पास एक मौका था, जब वो इंसानियत पसंद लोगों को भरोसा दिला सकते
थे कि न्याय और मानवाधिकारों की अहमियत आज भी बची है।
पर लग रहा है, राहुल गांधी ने इस मौके को हाथ से जाने दिया है।
फेसबुक और ट्विटर पर नहीं, मैदान पर होगी असली सियासत
नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स यानी एनआरसी का ड्राफ्ट जारी हुए दो दिन बीत गए हैं।
गुवाहाटी से लेकर दिल्ली तक एनआरसी की ड्राफ्ट लिस्ट पर लोग अपनी चिंता जाहिर कर
रहे हैं। पर राहुल गांधी ने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखकर इस गंभीर मामले में अपनी
बातों को विराम लगा दिया।
उम्मीद थी कि देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी के अध्यक्ष सामने आकर अपनी
बात रखेंगे। पर उन्होंने इस मामले में खुद को बचाने वाले लहजे में फेसबुक के जरिए
बात रखी। जबकि ठीक इसी वक्त विरोधी सीना ठोककर एनआरसी के मामले को राष्ट्रवाद और
धर्म के रंग में रंग देने को बेताब है।
एनआरसी पर गंभीर सवाल, पर राहुल गांधी कहां हैं?
राहुल गांधी का इस मामले में सामने आकर बात रखना इसलिए भी जरुरी था, क्योंकि मामला लगातार दो
दिन संसद में उठा। लोकसभा में केंद्रीय गृह मंत्री ने बयान दिया, तो राज्यसभा में इस मुद्दे
पर एक ठीकठाक चर्चा हुई।
मजेदार बात ये है कि राज्यसभा में हुई चर्चा में मोदी सरकार को भारतीय जनता पार्टी के अलावा सिर्फ बीजू जनता दल का साथ मिला। ये बात अमित शाह ने चर्चा के बाद आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने मुंह से कही भी।
अमित शाह ने ये बात दुख के साथ कही थी। दुख से ज्यादा चिंता होनी चाहिए।
क्योंकि अविश्वास प्रस्ताव पर जो पार्टियां मोदी सरकार के साथ खड़ी थी, वो ग्यारहवें दिन एनआरसी के
मुद्दे पर सरकार को आगाह कर रही हैं। अकाली दल और एआईएडीएमके ने एनआरसी के सवाल पर
विपक्ष के सुर में सुर मिलाया।
राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस की तरफ से बात रखी। उनकी
बातों में मानवाधिकार और न्याय का जिक्र तो है, लेकिन उनकी बातों का असर उतना पैना नहीं है, जो होना चाहिए।
इसके उलट बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने इस मौके का बखूबी इस्तेमाल किया।
उन्होंने वो सब किया, जिसके इर्द-गिर्द भारतीय जनता पार्टी और मूल संगठन राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ का विचार घूमता है।
एनआरसी पर विरोधाभासी बातें, कहीं रणनीति तो नहीं?
राहुल गांधी चुप हैं। पर विरोधी हर वो बात कह रहा है, जो विरोधाभासों से भरी पड़ी
है।
30 जुलाई को जिस दिन एनआरसी का ड्राफ्ट जारी हुआ। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने
लोकसभा में खड़े होकर बार बार कहा कि एनआरसी मामले से केंद्र सरकार का कोई
लेनादेना नहीं है। एनआरसी का मामला सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों और निगरानी में
चल रहा है।
इसके अगले दिन यानी 31 जुलाई को राज्यसभा में केंद्रीय गृह मंत्री के बगल में
खड़े होकर और सीना ठोककर अमित शाह कहते हैं; कांग्रेस की सरकारों में हिम्मत नहीं थी, हमारी पार्टी में एनआरसी को
लागू करने की हिम्मत है।
विरोधाभास यहीं खत्म नहीं होते।
केंद्रीय गृह मंत्री ने संसद में कहा – एनआरसी का ड्राफ्ट आखिरी नहीं है। 40
लाख लोगों के पास एनआरसी में अपना नाम जुड़वाने के अभी कई मौके हैं। सत्ताधारी
पार्टी के अध्यक्ष ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस की शुरुआत में कहा कि जिन 40 लाख
लोगों का नाम एनआरसी में नहीं है, वो घुसपैठिए हैं। हालांकि अमित शाह ने आगे चलकर इसी प्रेस
कॉन्फ्रेंस में राजनाथ सिंह वाली बात भी कही।
अमित शाह अपनी ही सरकार के गृह मंत्री की बातों से इतर कोई बात कहेंगे, तो मैं नहीं समझता कि ये बात उन्होंने यूं ही कह दी होगी। जरुर अध्यक्ष जी ने इसमें अपने कैडर के लिए कोई मैसेज भिजवाया होगा।
हर बीजेपी नेता की तरह अमित शाह ने भी एनआरसी के मुद्दे पर राष्ट्रवाद का
मुलम्मा चढ़ाकर बात की। विपक्ष पर गुमराह करने का आरोप मढ़ा। उनकी बात सही भी हो
सकती है, क्योंकि राजनीति
अकेले भारतीय जनता पार्टी को ही नहीं आती।
बीजेपी नेताओं की बातें और 40 लाख लोगों की दास्तान
असम के अलग-अलग जिलों से जो रिपोर्ट्स आ रही हैं, वो बताती हैं कि सत्ता में
आसीन सरकार के नेता बातों को राष्ट्रवाद के परदे के पीछे ढकना चाहते हैं। जबकि
विपक्ष की चिंताएं वाजिब लगती हैं।
अलग-अलग रिपोर्ट्स के मुताबिक, 40 लाख लोग जिन्हें एनआरसी के ड्राफ्ट में जगह
नहीं मिली, उनमें ज्यादातर
लोगों की तीन पीढ़ियां असम में रह रही हैं। कई परिवार तो ऐसे मिले हैं, जिनमें माता पिता को एनआरसी
रजिस्टर में जगह मिली। पर परिवार के बेटे-बेटियों का नाम लिस्ट में नहीं है। कुछ
ऐसे मामले सामने आए हैं, जहां नौजवान बेटे या बेटी का नाम एनआरसी रजिस्टर में है; पर मां या पिता का नाम नहीं
है।
पूर्व राष्ट्रपति के भतीजे का नाम एनआरसी से बाहर होना, चौंकाता नहीं क्या?
कई लोगों को इससे फर्क नहीं पड़ता। मीडिया भी इसे लेकर उदासीन है। इसे समझिए, पूर्व राष्ट्रपति के परिवार
का कोई सदस्य देश की नागरिकता खोने की कगार पर खड़ा है। अमित शाह के शब्दों में
कहें, तो वो घुसपैठियों में से एक है।
पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के भतीजे जियाउद्दीन अली अहमद मीडिया के
सामने कह रहे हैं कि उनका नाम एनआरसी में नहीं है। असम के कामरुप जिले के रंगिया
में रहने वाले जियाउद्दीन का कहना है कि उनके पास लेगेसी सर्टिफिकेट नहीं था, इस
वजह से उनका नाम एनआरसी में नहीं आ पाया।
40 लाख इंसानों के खातिर, बोलिए राहुल गांधी
एनआरसी की जरुरत क्या है? ये कितना सही है और कितना गलत? ये सवाल अपनी जगह हैं और
अहम हैं। पर इन सबसे अलग और बड़ा सवाल 40 लाख लोगों की जिंदगी और स्वाभिमान का है।
जैसा कि खुद कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने राज्यसभा में चर्चा की शुरुआत
करते हुए कहा, 40 लाख इसांन मामूली
संख्या नहीं है। इन 40 लाख लोगों के लिए राहुल गांधी को अपनी आवाज जरुर बुलंद करनी
चाहिए।
सवाल पूछा जा सकता है कि राहुल गांधी से ही उम्मीद क्यों है? उम्मीद ममता बनर्जी, मायावती, शरद पवार और अखिलेश यादव से क्यों नहीं? इन सवालों का जवाब सीधा है। जवाब आप खुद दें। बताइए कि मौजूदा राजनीतिक हालात में क्या इनमें से कोई क्षत्रप या उसका दल ऐसा है, जो राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी के साथ दौड़ में भी शामिल हो सके। टक्कर शब्द का इस्तेमाल इस वक्त मुनासिब नहीं है।
वैसे एनआरसी का सवाल इतनी जल्दी खत्म नहीं होगा, सो उम्मीद करनी चाहिए कि
राहुल गांधी जल्द सामने आएंगे। और ऐसे वक्त में जब राष्ट्रीय राजनीति में संकेतों
और कहे-अनकहे तरीके से लोगों के दिमागों को नफरत से भरा जा रहा है, वो (राहुल गांधी) बताएंगे
कि इसके उलट भी एक राजनीति हो सकती है। सही मायने में सबको साथ लेकर चलने की
राजनीति। जिसे राहुल गांधी नफरत के बरक्स मुहब्बत की राजनीति कहते हैं।
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