आंकड़ों से जनता को गुमराह क्यों कर रही है मोदी सरकार?
पेट्रोल और डीजल की महंगाई के विरोध
में 10 सितंबर को विपक्षी दलों के भारत बंद के जवाब में बीजेपी के ऑफिशियल ट्विटर
हैंडल @BJP4India पर पेट्रोल और डीजल की कीमतों को लेकर ग्राफ की शक्ल में
दो आंकड़े जारी किए गए।
इन दो आंकड़ों के जरिए यूपीए-1, यूपीए-2 और मोदी
सरकार के कार्यकाल में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी को प्रतिशत के
नजरिए से समझाया गया था।
बीजेपी ने लोगों को समझाने की कोशिश की है कि यूपीए-1
(2004 से 2009) और यूपीए-2 (2009 से 2014) में पेट्रोल और डीजल की कीमत में कितने
फीसदी इजाफा हुआ? और फिर मोदी सरकार (2014 से 10 सितंबर, 2018) में पेट्रोल और डीजल की
कीमत कितने फीसदी बढ़ी?
एक बात कहनी पड़ेगी, ग्राफिक्स में इस्तेमाल आंकड़े सही है; गणित की माथापच्ची भी सही है।
बीजेपी ने गुणा भाग करके यह साबित किया है कि
यूपीए-1 और यूपीए-2 के कार्यकाल में पेट्रोल और डीजल की कीमत मोदी सरकार के करीब
साढ़े चार साल के कार्यकाल के मुकाबले ज्यादा बढ़ी।
बीजेपी के आंकड़े VS कांग्रेस के आंकड़े
बीजेपी के इस ग्राफिक्स का जवाब कांग्रेस ने
अपने ऑफिशियल ट्वीटर हैंडल @INCIndia पर एक दूसरे ग्राफिक्स से दिया। कांग्रेस के ग्राफिक्स में
तस्वीर का दूसरा पहलू भी दिखता है।
कांग्रेस को इस बात से तो इनकार नहीं है कि
यूपीए-1 और यूपीए-2 में मोदी सरकार के मुकाबले पेट्रोल और डीजल के दाम परसेंट में
ज्यादा बढ़े। कांग्रेस ने अपने ग्राफिक्स में यह समझाने की कोशिश की है कि जिस
वक्त के आंकड़े बीजेपी बता रही है, उस दौरान क्रूड ऑयल का भाव क्या था?
कांग्रेस का निष्कर्ष ये है कि जब यूपीए के
मुकाबले मोदी सरकार के कार्यकाल में क्रूड सस्ता है, तो तेल महंगा क्यों है?
तेल के दाम में बढ़ोतरी का “सच” क्या है?
एक बात माननी पड़ेगी, दोनों सियासी दलों ने
तथ्यों में कोई हेराफेरी नहीं की। गुणा भाग भी बिल्कुल सही किया। सामान्य गणित के
लिहाज से बीजेपी द्वारा तैयार ग्राफिक्स के आंकड़ों में कोई समस्या नहीं है। जूनियर क्लास के बच्चों को परसेंट निकालने का
जो गणित पढ़ाया जाता है, उसमें बीजेपी के ‘प्रचार विभाग’ को 100 अंक दिए जा सकते हैं। हालांकि जिस तरह
बीजेपी ने तेल कीमतों का ग्राफ बनाया, उसे लेकर सोशल मीडिया पर जमकर मजाक उड़ा।
खैर, सोशल मीडिया की नूराकुश्ती छोड़िए; गंभीर सवाल पर टिके
रहते हैं। बीजेपी की शब्दावली में पूछें, तो सवाल ये है कि पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोतरी का “सच” क्या है?
चलिए एक एक करके जवाब
ढूंढते हैं। तेल की महंगाई को लेकर राजनीति का जो खेल चल रहा है। उसमें सच कितना
है और फरेब कितना? इस निर्णय पर पहुंचने के
लिए चार अहम सवालों के जवाब ढूंढने पड़ेंगे।
क्या 4 सवालों का जवाब देगी मोदी सरकार और बीजेपी?
पहला सवाल, यूपीए सरकार के वक्त अंतर्राष्ट्रीय बाजार में
कच्चे तेल के दाम क्या थे? और मोदी सरकार
के कार्यकाल में कच्चे तेल की कीमतें किस स्तर पर हैं?
दूसरा सवाल, यूपीए सरकार ने कच्चे तेल के इंपोर्ट पर साल दर
साल कितना खर्च किया? और मोदी सरकार के
कार्यकाल में यह खर्च कितना है?
तीसरा सवाल, यूपीए सरकार के कार्यकाल में पेट्रोलियम
उत्पादों पर अंडर रिकवरी कितनी थी? और अब मोदी सरकार
के कार्यकाल में अंडर रिकवरी कितनी है? क्योंकि इस सवाल
के जवाब से पता चलेगा कि सरकार तेल पर मुनाफा कमा रही है या घाटा सह रही है?
चौथा सवाल, यूपीए और मोदी
सरकार के कार्यकाल में सरकार को मिलने वाला टैक्स कितना रहा?
पहला सवाल: यूपीए-2 में आसमान पर थे कच्चे तेल के दाम
सबसे पहले सवाल नंबर एक
की बात। यूपीए-2 के दौरान क्रूड ऑयल का सालाना औसत भाव 70 डॉलर प्रति बैरल से लेकर
112 डॉलर प्रति बैरल तक रहा। 2011-12 से 2013-14 के दरम्यान अंतर्राष्ट्रीय बाजार
में कच्चे तेल की कीमतें आसमान पर रहीं, इस दौरान क्रूड ऑयल का भाव 105 डॉलर प्रति
बैरल से नीचे कभी नहीं गया।
मोदी सरकार के कार्यकाल
में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रूड ऑयल के भाव काफी नीचे आ गए। 2014-15 में ही
कच्चे तेल का औसत भाव 84 डॉलर प्रति बैरल पर आ गया। इसके बाद कच्चे तेल की कीमत और
गिरी। 2015-16 में कच्चे तेल का भाव 46 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गया।
आंकड़े बता रहे हैं कि
मोदी सरकार के पिछले तीन साल के दौरान क्रूड ऑयल के भाव यूपीए-2 के वक्त से करीब
करीब आधे स्तर पर रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कम कीमतों ने
मोदी सरकार को बड़ी राहत दी।
दूसरा सवाल : कच्चे तेल के इंपोर्ट पर खर्च का हिसाब
भारत कच्चे तेल के लिए
अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर निर्भर है। देश को अपनी जरुरत का तेल इंपोर्ट करना पड़ता
है, यानी हर बैरल तेल के लिए देश को डॉलर में भुगतान करना पड़ता है।
यूपीए-2 के कार्यकाल 2009
से 2014 के बीच अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड ऑयल की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी
हुई। इसका असर ये हुआ कि यूपीए-2 में कच्चे तेल के इंपोर्ट पर खर्च भी तेजी से
बढ़ा।
यूपीए-2 के पांच साल के
कार्यकाल में कच्चे तेल के इंपोर्ट पर खर्च का एक आंकड़ा देखिए।
मोदी सरकार के चार साल के कार्यकाल में कच्चे
तेल के इंपोर्ट पर कितना खर्च हुआ। इसपर भी नजर डालिए।
बीजेपी द्वारा देश के सामने रखे गए
आंकड़ों को ऊपर दी गई दो तालिकाओं के नजरिए से समझिए। यूपीए-2 सरकार को महंगे
क्रूड ऑयल और ज्यादातर वक्त रुपये की खराब हालत के चलते कच्चे तेल के इंपोर्ट पर
ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ा। यूपीए-2 के 5 साल के कार्यकाल में कुल 31,52,300 करोड़ रुपये का क्रूड ऑयल इंपोर्ट किया गया। यूपीए-2
को औसतन हर साल 6,30,460 करोड़ रुपये का क्रूड ऑयल इंपोर्ट करना पड़ा।
मोदी सरकार के सत्ता में आने पर अंतर्राष्ट्रीय
बाजार में क्रूड ऑयल के दाम तेजी से नीचे गिरे। इसका मोदी सरकार को जबरदस्त फायदा
मिला। मोदी सरकार के चार साल के कार्यकाल में 21,40,105 करोड़ रुपये का क्रूड ऑयल
इंपोर्ट किया गया। औसतन हर साल 5,35,026 करोड़ रुपये का क्रूड ऑयल इंपोर्ट हुआ।
इस तरह यूपीए-2 और मोदी सरकार के कार्यकाल की
तुलना करें, तो यूपीए-2 को मोदी सरकार की तुलना में कच्चे तेल के इंपोर्ट पर औसतन
हर साल 95,434 करोड़ रुपये ज्यादा खर्च करने पड़े थे।
तीसरा सवाल: पेट्रोलियम उत्पादों पर अंडर रिकवरी
एक और आंकड़े पर गौर करते
हैं। यूपीए-2 के पांच साल के कार्यकाल में पेट्रोल और डीजल की बिक्री से सरकार के
खजाने को जबरदस्त घाटा (अंडर रिकवरी) हो रहा था, क्योंकि सरकार पेट्रोल और डीजल बाजार भाव से कम
कीमत पर ग्राहकों तक पहुंचा रही थी।
यूपीए-2 के पांच साल में पेट्रोलियम उत्पादों पर
कुल अंडर रिकवरी 5,67,549 करोड़ रुपये रही। 2009-2014 के पांच साल के दौरान औसतन
सालाना रिकवरी 1,13,509 करोड़ रुपये रही।
मोदी सरकार के लिए अच्छी बात यह रही कि
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड ऑयल के भाव तेजी से गिरे। इसका फायदा सरकार को
मिला। पेट्रोल और डीजल के भाव पर बाजार के नियंत्रण का भी फायदा सरकार को मिला।
रसोई गैस में सब्सिडी कम होने से सरकार को फायदा हुआ। इस सबका मिलाजुला असर यह हुआ
कि पेट्रोलियम उत्पादों पर तेल कंपनियों की अंडर रिकवरी कम हुई। पेट्रोल और डीजल
की बिक्री पर होने वाला घाटा (अंडर रिकवरी) तो खत्म ही हो गयी।
मोदी सरकार के पहले चार साल के
दौरान पेट्रोलियम उत्पादों पर अंडर रिकवरी 1,54,831 करोड़ रुपये रही। सालाना औसतन
अंडर रिकवरी देखें, तो यह महज 38,707 करोड़ रुपये थी। तुलना कीजिए, अंतर्राष्ट्रीय
बाजार में क्रूड ऑयल की ऊंची कीमतें और भारतीय घरेलू बाजार में तेल उत्पादों की कम
कीमत में बिक्री की वजह से यूपीए-2 में साल 2012-13 में ही अंडर रिकवरी 1,61,029 करोड़ रुपये रही
थी।
चौथा सवाल: सरकार का खजाना भरा, दाम कम क्यों नहीं किए?
ऊपर तीन आंकड़ों के जरिए एक बात साफ
है कि मोदी सरकार के लिए कच्चे तेल का आयात यूपीए-2 के मुकाबले एक खरा सौदा बना
रहा। यही नहीं पेट्रोलियम उत्पादों की देश में बिक्री से सरकार ने अपने खजाने को
भी भरपूर भरा।
मोदी सरकार को पिछले चार साल में पेट्रोलियम उत्पादों पर
मिलने वाले टैक्स में साल दर साल इजाफा हुआ। चार साल में पेट्रोल और डीजल के दाम
जितनी तेजी से बढ़े, उसी तेजी से पेट्रोलियम उत्पादों से सरकार की टैक्स आय भी
बढ़ी। 2014-15 में केंद्र सरकार को पेट्रोलियम उत्पादों पर अलग-अलग टैक्स और
ड्यूटी के जरिए 1,26,025 करोड़ रुपये की कमाई हुई। 2017-18 में केंद्र
सरकार को 2014-15 के मुकाबले 126 फीसदी ज्यादा टैक्स मिले।
एक्साइज ड्यूटी जिसका निर्धारण सीधे केंद्र सरकार के हाथ
में है। 2014-15 में पेट्रोलियम उत्पादों पर एक्साइज ड्यूटी के जरिए 99,184 करोड़ रुपये
सरकार को मिले। 2015-16 में एक्साइज ड्यूटी में 80 फीसदी का इजाफा हुआ, और सिर्फ एक्साइज ड्यूटी से सरकार को 1,78,591 करोड़ रुपये
मिले। 2016-17 में एक्साइज ड्यूटी में करीब 36 फीसदी
का इजाफा हुआ, और इस साल पेट्रोलियम उत्पादों पर एक्साइज ड्यूटी से सरकार को 242,691 करोड़ रुपये मिले।
क्रूड सस्ता, तेल महंगा; मुनाफा ज्यादा, राहत कम क्यों?
तो अंत में
मोदी सरकार से कुछ सवाल जरुर पूछे जाएंगे, पूछे जाने चाहिए।
2)
मोदी सरकार के
सत्ता में आने के बाद से अबतक पेट्रोलियम उत्पादों पर टैक्स और ड्यूटी से होने
वाली आय बढ़ी है, एक्साइज ड्यूटी में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है। ऐसे में जब पेट्रोल
और डीजल की बढ़ती महंगाई लोगों को परेशान कर रही है, और सियासी मुद्दा बन गयी है,
सरकार ने एक्साइज ड्यूटी कम क्यों नहीं की?
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