क्या सवर्ण समाज में भी कोई ‘संजय जाटव’ रहता है?
घर पर ऐसे मुद्दों पर चर्चा
कम ही होती है।
मेरी बात सुनकर वो थोड़ा
परेशान हुई। फिर अचानक उन्होंने अपने स्कूल के दिनों की एक बात मुझे बताई। पत्नी
की बात सुनकर मुझे मेरी रिसर्च बीच में रोकनी पड़ी।
लेकिन पत्रकार-एक्टिविस्ट प्रशांत टंडन के
एक फेसबुक पोस्ट को लेकर मन में सवाल गहराया। उन्होंने लिखा था, “एक सर्वे करते हैं। आपकी
मित्र सूची में जो बलात्कार के पक्ष में पोस्ट या कमेंट लिख रहे हैं, उनके नाम कमेंट बॉक्स में
लिखिए।“ तो इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मैं अपने फेसबुक वॉल की सैर पर निकला। ये देखने कि कठुआ और उन्नाव रेप पर मेरे
दोस्तों ने क्या कुछ लिखा है? मेरे फेसबुक फ्रेंड किस तरह की प्रतिक्रिया कर रहे हैं?
इसी दौरान कुछ फेसबुक मित्रों
के कमेंट मुझे परेशान कर गए। इनमें कुछ कमेंट कठुआ रेप को लेकर थे, और कुछ कमेंट हाल में उभरे दलित
मुद्दे को लेकर। मैंने यूं ही स्वत: प्रतिक्रिया में दलित मुद्दे पर लिखे गए कमेंट्स का जिक्र
अपनी पत्नी से किया।
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स्कूल की 20 साल पुरानी बात और ‘मिसेज श्रीवास्तव’
ये उन दिनों की बात है; जब मेरी पत्नी, मेरी पत्नी नहीं थी। करीब 20 साल पहले की
बात।
मेरी पत्नी का बचपन उत्तर
प्रदेश के उन्नाव में बीता है। वो साल 1997 था। तब मेरी पत्नी क्लास नौंवी की
स्टूडेंट हुआ करती थीं। वो उन्नाव के गर्ल्स गवर्मेंट इंटर कॉलेज में पढ़ती थीं।
मिसेज श्रीवास्तव नौवीं की क्लास टीचर थीं। नाम पूरा लिखा जा सकता है। पर इससे ज्यादा
फर्क नहीं पड़ेगा। तो मिसेज श्रीवास्तव साइंस की टीचर थीं। यानी वो फिजिक्स, केमिस्ट्री की ज्ञाता थीं। साइंस
तर्क देता है। खैर इस बात का भी मूल लेख से कोई वास्ता नहीं है। तो मेरी पत्नी ने
मुझे मिसेज श्रीवास्तव की क्लास की जो बात बताई। वो मैं आपसे साझा करना चाहता हूं।
जैसा आमतौर से होता है।
स्कूलों में हर जाति, धर्म और वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं। तो मेरी पत्नी की उस क्लास
में भी ऐसा ही था। उस क्लास में कुछ दलित लड़कियां पढ़ती थीं। कुछ मुस्लिम थीं। और
कुछ मेरी पत्नी की तरह सवर्ण वर्ग की। एक मुस्लिम लड़की मेरी पत्नी की अच्छी दोस्त
हुआ करती थी। इसकी बात आगे करुंगा।
सरकारी स्कूलों में एक
वजीफे वाला दिन भी होता है। जिसमें दलित स्टूडेंट्स के फॉर्म भरे जाते हैं। और उन्हें
वजीफे के पैसे दिए जाते हैं।
जैसा मेरा पत्नी ने मुझे
बताया। मेरी पत्नी की क्लास में एक कुम्हार की लड़की पढ़ती थीं। जिसके नाम के पीछे
वर्मा लगा था। बात वजीफे वाले दिन की हो रही है।
चुभते सवाल - क्या अभी भी नालियां
साफ करते हो, लेटरिंग उठाते हो?
वजीफे वाले दिन मिसेज
श्रीवास्तव ने मिस वर्मा से पूछा। “नाम के साथ वर्मा लगाते हो। पर ये तो बताओ काम क्या करते हो? वर्मा तो आजकल सब लगा लेते
हैं। क्या अभी भी घड़े बनाते हो?” लड़की ने जवाब दिया, “अब तो नहीं बनाते”। तो इसपर मिसेज श्रीवास्तव का जवाब था, “जब घड़े नहीं बनाते तो
वजीफा क्यों लेते हो?”
इसी रोज मिसेज श्रीवास्तवे
ने वाल्मिकी समाज की एक लड़की से पूछा। “ये बताओ कि अभी भी तुम नालियां साफ करते हो? लेटरिंग उठाते हो?” इस सवाल के जवाब में कोई क्या कह सकता है? ये सोचने वाली बात है।
मेरी पत्नी ने एक और बात
बताई। उन्होंने बताया कि वजीफे वाले दिन मिसेज श्रीवास्तव की बातचीत का ये एक
सामान्य लहजा था। मिसेज श्रीवास्तव के सवाल पर अगर कोई लड़की चिढ़ती, जवाब देने में देरी करती।
तो इसपर मिसेज श्रीवास्तव पलटकर कहतीं,
“चिढ़ क्यों रही हो? ठीक से बताओ। वजीफा लेने
में शर्म नहीं आती है। बताने में शर्म आती है।“
जैसा मैंने ऊपर बताया कि
मेरी पत्नी की दोस्ती एक मुस्लिम लड़की से थी। इस बात को लेकर भी मिसेज श्रीवास्तव
के मन में कुछ बातें थी। उन्होंने मेरी पत्नी से कहा, “इससे क्यों बात करती हो? क्लास में और भी लड़कियां
हैं। उनसे बात करो।“ उन्होंने ये भी कहा, “मुसलमान अच्छे नहीं होते”।
हालांकि मिसेज श्रीवास्तव
की बातों का क्लास की छात्राओं पर ज्यादा असर नहीं हुआ। मेरी पत्नी का कहना है कि
क्लास की छात्राओं के बीच दलित और स्वर्ण का भेद उस रुप में नहीं उभरा था, जैसा मिसेज श्रीवास्तव कहा
करती थीं।
लगता तो है कि मिसेज
श्रीवास्तव की बातों का लड़कियों पर असर नहीं हुआ होगा। मेरी पत्नी जो उच्च वर्ण
ब्राह्मण समाज से आती हैं, उनपर तो मिसेज श्रीवास्तव कोई असर नहीं कर पाईं। पर क्या
दूसरी लड़कियों के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा? इस सवाल का जवाब मेरी पत्नी के पास नहीं है। पर मैं विश्वास करना
चाहता हूं कि मिसेज श्रीवास्तव की बातों का असर उनकी क्लास की सवर्ण वर्ग की
लड़कियों पर नहीं हुआ होगा।
लेकिन मैं ये भी सोच रहा
हूं कि एक सरकारी शिक्षक अपनी 30 से 35 साल की पूरी नौकरी में कम से कम 10 हजार
स्टूडेंट्स से डायरेक्ट तो जुड़ा रहता ही है। इनडायरेक्टली तो वो इससे कई गुना स्टूडेंट्स
से जुड़ता होगा। इन स्टूडेंट्स के साथ वो हर रोज 40 से 45 मिनट बिताता है। इस
दौरान औपचारिक पढ़ाई के अलावा कई अनौपचारिक बातें भी होती हैं। जैसा नौवीं की उस
क्लास में मिसेज श्रीवास्तव किया करती थीं। तो एक मिसेज श्रीवास्तव न जाने कितने
बच्चों पर असर डाल गयी होंगी। अगर एक स्टूडेंट पर भी असर पड़ा होगा, तो ये खतरनाक है।
मूंछ को कौन बनाता है, मूंछ का सवाल?
सवाल मिसेज श्रीवास्तव का
नहीं है। वो कोई और भी हो सकती थीं। ये किसी खास चेहरे की बात नहीं है। ये खास मानसिकता
की बात है।
इसी मानसिकता के शिकार कुछ
लोगों ने भावनगर में दलित लड़के प्रदीप राठौड़ की
हत्या कर दी। ऐसा करने वाले गिनती के ही रहे होंगे। पर सोचिए, प्रदीप राठौड़ ने एक घोड़ा खरीदा था और वो उस पर बैठा। इतनी
सी बात कुछ लोगों को साल 2018 में स्वीकार नहीं होती।
गांधीनगर में 17
साल के दिगंत महेरिया की मूंछ रखने पर पिटाई हुई। दिगंत की मूंछ को सवर्ण समाज के
कुछ लोगों ने मूंछ का सवाल बना दिया था। सारे सवर्ण ऐसा नहीं करेंगे, लेकिन कुछ तो करते ही हैं। उसी तरह जैसे सारे टीचर मिसेज
श्रीवास्तव की तरह क्लास में बच्चियों से वैसे सवाल नहीं पूछते थे, जैसे वो पूछती थीं।
गुजरात के ऊना में
दलितों को नंगा करके लाठी डंडों से पीटा गया। वो भी चंद लोग ही थे।
क्या सवर्ण समाज में भी कोई
‘संजय जाटव’ रहता है?
यूपी के कासगंज में रहने वाले संजय जाटव को आजादी के 70 साल बाद भी
अपनी पसंद के हिसाब से शादी का समारोह करने का हक नहीं है। संजय जाटव की शादी
कासगंज की एक लड़की से तय हुई। लेकिन शादी की तैयारियों से पहले उन्हें कोर्ट के
चक्कर लगाने पड़े। संजय की पत्नी कासगंज के निजामपुर इलाके में रहती थीं। जहां
ठाकुरों की तादात ज्यादा है।
जाटवों की बस्ती में जाने
का रास्ता ठाकुरों के घरों से था। संजय जाटव धूमधाम से अपनी बारात लेकर जाना चाहते
थे। घोड़ी पर चढ़कर, स्वाभिमान के साथ। लेकिन ठाकुरों के मुहल्ले में ऐसा कभी
नहीं हुआ। ठाकुरों ने विरोध किया। मामला कोर्ट में पहुंचा। और फिर अंत में कासगंज
के डीएम ने ठाकुरों और जाटवों दोनों पक्षों को बिठाकर एक समझौता कराया। कुछ शर्तों
के साथ संजय जाटव को बारात ले जाने की इजाजत मिल गयी।
सवाल ये है कि ऐसा संजय
जाटव के साथ ही क्यों होता है? क्या आप किसी सवर्ण लड़के को जानते हैं, जिसे अपनी बारात के लिए
संजय जाटव की तरह संघर्ष करना पड़ा हो। मैं जानना चाहता हूं, ऐसा सवर्ण कौन है?
देहरादून जिले के
जौनसार बावर में 340 मंदिरों में 400 साल तक दलितों के प्रवेश पर पाबंदी लगी
रही। पिछले साल उत्तराखंड हाईकोर्ट ने दलितों को मंदिर में प्रवेश दिए जाने को
लेकर आदेश सुनाया। आखिर ऐसा क्यों हुआ?
ये घटनाएं बताती
है कि कुछ लोगों में सवर्ण मानसिकता अभी भी राज कर रही है।
दलितों का
उत्पीड़न और बेतुके सवाल !
दलित समुदाय के दो अप्रैल
के भारत बंद के बाद एक सवाल बहुत बार पूछा गया? सोशल मीडिया की टिप्पणियों में भी इसका जिक्र
हुआ? एक बहस के दौरान मेरे एक मित्र ने अचंभित लहजे में मुझसे पूछा था - अब दलितों के साथ छुआछूत
कहां होता है? उस मित्र का कहना था कि उसने तो कभी देखा नहीं। पलटकर उन्होंने मुझपर ही सवाल
फेंका। तुम बताओ, क्या तुमने दलित समुदाय के साथ भेदभाव होते देखा है?
तो क्या एक दलित युवक को
घोड़े पर बैठने पर मार दिया जाए? एक दलित युवक को मूंछ रखने पर पीटा जाए? एक दलित युवक को सवर्ण समाज
के कुछ लोग अपने घर के पास से बारात न निकालने दें? और हमारे स्कूलों में कोई मिसेज श्रीवास्तव हों
और वो स्टूडेंट से पूछें – नालियां साफ करते हो क्या?
इस पर भी अगर कोई ये सवाल
पूछने लगे - अब दलितों के साथ छुआछूत कहां होता है? क्या तुमने दलित समुदाय के साथ भेदभाव होते
देखा है? तो फिर सवाल पूछने वालों के आईक्यू पर हंसा जाए या रोया। समझ नहीं आ रहा है।
ऐसे लोगों से एक सवाल पूछना
चाहता हूं। क्या आप दलित समुदाय के साथ अठारहवीं शताब्दी वाला भेदभाव और छुआछूत देखना
चाहते हैं। क्या 2018 में 1800 सन वाला भेदभाव और छुवाछूत दिखे, तभी इसे भेदभाव कहोगे?
Labels: अत्याचार, छुवाछूत, दलित आंदोलन, भेदभाव, संजय जाटव
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