हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Monday, February 18, 2019

स्वर्गीय कैलाश चंद्र पपनै जी को याद करते हुए...

फेसबुक पर पहली बार उनके निधन की खबर पढ़ी, तो दिल धक रह गया। जब यकीन नहीं हुआ, तो इस बात को झुठलाने की गरज से नैनीताल समाचार के वट्सऐप ग्रुप को खंगाला। ऊपर नीचे करने पर पाया कि खबर सही है। कैलाश चंद्र पपनै जी अलविदा कह गए हैं।

न चाहकर भी इस बात पर यकीन करना पड़ा। आंखें कुछ पल के लिए बंद हो गई थी।

बंद आंखों के अंदर करीब 16 साल पुरानी बातें तैरने लगी। दिल्ली में हिंदुस्तान टाइम्स बिल्डिंग के एक फ्लोर में एक केबिन में ब्यूरो चीफ की कुर्सी पर बैठे कैलाश पपनै जी की तस्वीर ताजा हो गई।

पत्रकारिता के लिहाज से वो हिंदी के बड़े अखबार हिंदुस्तान के ब्यूरो चीफ रहे। पर सच कहूं तो पत्रकार कैलाश चंद्र पपनै से मेरा परिचय ज्यादा नहीं रहा। मैंने उन्हें पत्रकार नहीं, एक अच्छे इंसान के तौर पर जाना। ये बात अलग है कि मैं उनसे मिला इसी नाते। वो एक बड़े पत्रकार थे। बड़े संस्थान में बड़े पद पर थे। मैं स्ट्रगलर था, नौकरी की चाहत में यहां वहां मुंह मारता फिर रहा था।
2002 में जब मैं नैनीताल से दिल्ली के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्युनिकेशन में पत्रकारिता की पढ़ाई करने आया। तब अपने साथ एक छोटी डायरी में कुछ फोन नंबर लिख लाया था। हालांकि उस डायरी में पपनै जी का नंबर नहीं था।
 
पत्रकारिता के संस्थान में एक बात बार-बार बताई जाती है। लोगों से मिलना जुलना और बात करते रहना, ये नौकरी पाने और करियर में आगे बढ़ने का नुस्खा है।

पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद नौकरी कब मिलेगी, कहां मिलेगी और कैसे मिलेगी? इन सवालों से सामना हुआ, तो मैं भी अखबारों के दफ्तरों के चक्कर काटने लगा।
 
हिंदुस्तान अखबार के फीचर डिपार्टेमेंट के इंचार्ज उन दिनों ढौंढियाल जी थे, उनसे मिलकर कुछ फ्रीलांस काम मिला। मुझे नौकरी की दरकार थी, दो चार मुलाकात के बाद मैंने उनसे नौकरी की बात की। उन्होंने कैलाश चंद्र पपनै जी से मिलने को कहा। तब वो हिंदुस्तान अखबार में ब्यूरो चीफ का पद संभालते थे।

ब्यूरो चीफ पत्रकारिता के किसी भी संस्थान में बड़ा पद है। इतने अहम ओहदे पर बैठा शख्स, न जाने कितना व्यस्त होगा? वो मिलेंगे भी या नहीं? अगर मिले भी, तो न जाने कैसे बात करेंगे?
ये तमाम सवाल मेरे जेहन में थे। इन सवालों का बोझ लादे, बड़ी झिझक के साथ एक दिन में उनसे मिलने पहुंच गया था।

लेकिन सच मानिए; उस आदमी का असर था, पहली ही मुलाकात में मेरे मन में घूम रहे सभी सवाल गायब हो गए। उनका ओहदा और बड़े पत्रकार की छवि, जो अब तक मेरे दिल और दिमाग पर बोझ डाल रही थी। न जाने कैसे और कहां गायब हो गए?  

पहली मुलाकात में ओहदे की दीवार गिरी। शायद दूसरी मुलाकात में उनकी और मेरी उम्र और अनुभव के अंतर का बैरियर भी गिर गया। शायद अगली मुलाकात में वो एक दोस्त और अभिभावक की तरह हो गए थे। शायद इसलिए लिखा, क्योंकि सब कुछ इस तरह हुआ, जैसे पानी बहता है।
पपनै जी से जब भी मिलता, हैरानी होती।
 
उनका चमकदार चेहरा। चेहरे पर एक सकारात्मक हंसी। मीठी आवाज। और जटिल बातों को भी आसानी से लेने का उनका तरीका, लुभाता रहा। 

वो जिस गर्मजोशी से मिला करते थे, वो मुझे हैरानी से भर देता था। उन दिनों ऑफिस में बैठे किसी पत्रकार से मेरी ऐसी अपेक्षा नहीं रहती थी। वो मेरी कल्पनाओं के विपरीत मृदुभाषी थे। तब मैं जितनी उम्र का था, शायद उनकी उतनी नौकरी रही होगी। पर एक स्ट्रगलर को जैसा सम्मान वो दिया करते थे, ऐसे लोग गिने चुने ही होते हैं।

उन्होंने मेरी झिझक मिटा दी थी। फिर तकरीबन हर हफ्ता या कभी-कभी पंद्रह दिन में एक बार मैं उनके ऑफिस पहुंच जाया करता। रिसेप्शन पर बताता कैलाश चंद्र पपनै से मिलना है। वो फोन लगाते, पपनै जी से पूछते और मुझे अंदर भेज देते। 

ऐसा कभी नहीं हुआ, जब उन्होंने अपनी व्यस्तता को अपनी गर्मजोशी पर हावी होने दिया हो। वो चाहे जितना व्यस्त रहे होंगे, उन्होंने हमेशा एक प्याली चाय पिलवाई, बिस्किट के साथ।
 
अगर उन्हें मीटिंग पर भी जाना हो, तब भी वो कहते बैठो में आता हूं। और फिर आधा घंटा या कभी कभी पैंतालिस मिनट बाद लौटकर तमाम बातें करते।
ॊ 
और अंत में एक बात जरुर कहूंगा। कैलाश चंद्र पपनै जी कितने बड़े पत्रकार थे? मैं नहीं जानता। पर उनके जैसा उम्दा इंसान मैंने अपने करियर में कम देखा है।
  

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