हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Monday, September 30, 2019

एक मरी हुई संवेदना ने, एक मरी संवेदना के साथ मौत का जश्न मनाया।

हमारी संवेदनशीलता के गले को एक फंदा धीरे धीरे कस रहा है। वो मर रही है। वो चीखती होगी। पर कोई सुनता नही। मैं, हम, सब अनजान बनकर तमाशा देख रहे हैं।

एक समाज के तौर पर संवेदनशीलता का मरना हमें दिख ही नहीं रहा।

पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में जलजला उठा। घर टूटे, स्कूल गिरे, पुल गिरे, नहर टूटी और सड़कें धंस गयी।

कई लोगों के मरने और घायल होने की खबर आई।

एक समाज को इस मामले में किस बात से परेशान होना चाहिए?

स्कूलों में तो मानवता का पाठ पढ़ाया गया। धर्म की किताबों में भी यही उपदेश बार बार दोहराये गए।

पर एक समाज जिसकी संवेदनशीलता के गले को एक फंदा कस रहा है, उस समाज को न धर्म का उपदेश याद रहता है, न स्कूलों की किताबों में लिखी बातें।

मैं भीड़ की बात नहीं करता। भीड़ के पास दिमाग नहीं होता, न दिल होता है। किसी सियासी दल की भी ये बात नहीं। वो भीड़ का इस्तेमाल अपने नफे और नुकसान के लिए करते हैं।

ये बात समाज के उस हिस्से की है, जिससे संवेदना, संवेदनशीलता की सबसे ज्यादा जरूरत है।

वो मीडिया है। वो साहित्य है। वो फिल्में हैं। पर संवेदना के मरने की कहानी यहां ज्यादा गहरी है। फंदा यहां ज्यादा तेजी से कसा है।

पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में जलजला आया, तो मीडिया ने क्या किया। ख़ासतौर से टीवी की स्क्रीन ने।

मीडिया ने जलजले से उभरे दर्द, दुख, बर्बादी की कम बात की। अगर की भी, तो इसमें एक सैडेस्टिक प्लेज़र दिखता था।

पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के जिस हिस्से में जलजला आया, वहां आतंकी रहते हैं। ये जलजले की खबर के साथ जोड़ दिया गया। मानो ये प्रकृति का न्याय था।

सो खबर के जरिये समझाया गया, अच्छा हुआ जो जलजला आया।

स्क्रीन देख रही भीड़ ने संदेश को ठीक तरह समझा होगा; अच्छा हुआ जो जलजला आया, आतंकी तमाम हुए।

एक मरी हुई संवेदना ने, एक मरी संवेदना के साथ मौत का जश्न मनाया।
.
.

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home