हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Friday, July 31, 2009

सब याद है

ज़िंदगी के उन पुराने पन्नों में
तुम भी हो
तुम्हारी यादें भी
सारे पल सिमटे हैं
कविता की शक्ल में
चंद शेरों में
तुम्हारे होने का अहसास है।।

कुछ हंसते पल हैं
कुछ बिखरते आंसू
खूशबू है
तुम्हारे होने का अहसास दिलाती है
ज़िंदगी के उन पुराने पन्नों में ।।
तुम हंसी बनकर उभरती हो
तुम खनकती हुई हंसती हो
तुम छन से रुठ जाती हो
मान भी जाती हो
ज़िंदगी के उन्ही पुराने पन्नों को
फिर पलट रहा हूं मैं
जहां तुम खुशी बनकर चहकी थी
मेरी किसी बात पर
और हुई थी ढेर सारी बातें।।

फिर से उस दोराहे से गुजरा हूं
तुमको देखा था पहली बार
मन के घोड़े खींच रहें हैं
फिर से तुम्हारी ओर
चाहता हूं / तुमसे करुं
ढेर सारी बात
कुछ वादें हैं / रोक लेते हैं ।।

फिर लौटूंगा
पलटूंगा
देखूंगा ढंग से
कहां बिगड़े थे ताने
कहां उलझे थे सिरे
ज़िंदगी के इन्हीं पन्नों में सही
एक दिन सुलझाऊंगा उलझे रिश्तों को।।



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2 Comments:

At July 31, 2009 at 9:59 AM , Blogger ओम आर्य said...

ek sakaratmak soch ko dikhati rachana ....bakhubi aapane jiwan ke ehasaas ko sundarta se ukera hai .....man bhaawan hai....

 
At August 1, 2009 at 8:46 PM , Blogger कुमार विनोद said...

अच्छा लगा तुम्हारे ब्लॉग पर आकर...
हिमालय कितना सॉफ्ट लगता है, तुम्हारे यहां... शायद तुम्हारे कोमल विचारों की वजह से... अतिसुंदर!

 

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