चाहतें
वे कहते हैं
कितनी छोटी-छोटी हैं उनकी चाहतें
मानो वे कुछ नहीं चाहते
वे पेड़ों को काटना नहीं चाहते
उनका हरापन चूस लेना चाहते हैं
वे पहाड़ों को रौंदना नहीं चाहते
उनकी दृढ़ता निचोड़ लेना चाहते हैं
वे नदियों को पाटना नहीं चाहते
उनके प्रवाह को सोख लेना चाहते हैं
अगर पूरी हो गयीं उनकी चाहतें
तो जाने कैसी लगेगी दुनिया !
-मदन कश्यप
'लेकिन उदास है पृथ्वी' संग्रह से
2 Comments:
गहरे भावयुक्त रचना की प्रस्तुति। धन्यवाद।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
सच कहा-सोच कर भी भय होता है. अच्छी रचना.
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