हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Tuesday, June 9, 2009

चलो, सबसे प्यार करें


हम कितना कुछ रोज देखते हैं। लेकिन सबकुछ नज़रअंदाज़ करते रहते हैं। छोटी-छोटी बातें बड़े अर्थ रखती हैं। लेकिन क्या हम समझ पाते हैं ? शायद नहीं। हम अपनी ही दुनिया में मस्त हैं। हमें अपने दुखों और मुश्किलों से फुरसत नहीं। हमें अपनी खुशियों की परवाह है... बस।

दरअसल कल बस में एक अहसास ने मुझे ये सोचने पर मजबूर कर दिया। मैं दिल्ली की भीड़ भरी बस में कहीं जा रहा था। बैठने के लिए कहीं सीट नहीं थी। फिर थोड़ी देर बाद एक सीट मिली तो जैसे सांस में सांस आई। गर्मियों के दिन... चलो इतनी राहत भी काफी है। मैंने सीट लपकी और निश्चिंत होकर बैठ गया। बस थोड़ी ही आगे बढ़ी थी... एक बुजुर्ग सा शख्स मेरे बगल में बैठ गया। वो थका हुआ सा लगता था ... जैसे रात की नींद ढंग से पूरी नहीं हो पाई थी।

वो ऊंघने लगा। और बार-बार नींद की वजह से उसका सिर मेरे कंधे पर लधर जा रहा था। पहली बार मुझे उस बुजुर्ग पर गुस्सा आया। मैं खीझ से भर गया.... और मैंने झट से अपने आप को उस बुजुर्ग से अलग कर लिया। ..... वो सकपका गया.... जैसे अचानक नींद से कोई जाग जाता है.... ऐसा ही हुआ। लेकिन नींद उस पर हावी थी..... फिर से उसका सिर मुझपर लधर गया था।

लेकिन इस बार मैंने खुद को अलग नहीं किया।....... मेरे दिमाग में अचानक एक ख़्याल आ गया था। मुझे एक लड़की का ख़्याल आया था।.... वो लड़की जिससे मैं प्रेम करता हूं। ये बात और है कि मेरा ये प्यार ' प्लेटोनिक लव' से ज़्यादा कुछ नहीं। ख़ैर..... मैं सोच रहा था.... अगर इस बुजुर्ग की जगह वो लड़की होती, जिसके बारे में..... मैं एक खूबसूरत अहसास रखता हूं.... तो क्या तब भी मैं ऐसा ही करता ?..... बस इस एक सवाल ने मुझे एक अजीब से अहसास से भर दिया।

थोड़ी देर पहले ही जिस बुजुर्ग के मेरे कंधे पर सोने से मैं खीझ रहा था।... अब ऐसा नहीं था... मेरे कंधे पर बुजुर्ग का सिर पड़ा हुआ था।... जैसे एक बच्चा अपने किसी बड़े के कंधे पर सिर रखकर निश्चिंत पड़ा हो.... वो बुजुर्ग करीब एक घंटे तक सोते रहे। और मैं मन ही मन खुश होता रहा।...मन एक अजीब तरह के सुकून से भर गया था। पहली बार इस तरह से सोचने पर महसूस हुआ..... हम किसी भी शख्स के बाहरी आवरण को देखर कितना कुछ तय कर लेते हैं ? जबकि हम तो उसके बारे में ज़्यादा कुछ जानते ही नहीं। मैंने तय किया.... मैं इस अहसास को ज़िंदा रखने की कोशिश करुंगा। मैंने खुद से एक सवाल पूछा, क्यों नहीं मैं दूसरों के साथ भी प्लेटोनिक लव करुं... कम से कम उनके साथ जिनके साथ संभव हो।

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4 Comments:

At June 9, 2009 at 8:06 PM , Blogger श्यामल सुमन said...

नेक और दुरुस्त खयाल। शुभकामना।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

 
At June 9, 2009 at 8:22 PM , Blogger अजय कुमार झा said...

बहुत खूब जीतेन्द्र जी...दिलचस्प अनुभव लिखा आपने..

 
At June 9, 2009 at 11:31 PM , Blogger Science Bloggers Association said...

अच्‍छा लगा आपके अनुभवों को जानना।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

 
At June 10, 2009 at 2:43 AM , Blogger ghughutibasuti said...

बहुत खूब लिखा है। सच में किस के भी स्थान पर अपने किसी प्रिय या फिर अपने परिवार के लोगों को रख कर देखें तो सभी को समझा जा सकता है और बहुतों से स्नेह हो सकता है।
घुघूती बासूती

 

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