काफल, हिसालु और किलमोड़ी के बहाने
दो घंटा पहले काफल की एक लोककथा लिखी थी। और फिर मैं सो गया। अचानक नींद में कुछ सूझने लगा। इस बार काफल के साथ हिसालु और किलमोड़ी आए थे। तीनों मेरी उंगली पकड़कर मुझे बचपन में खींच ले गए। नींद खुल गयी है, अब क्या करुं ? सोचा क्यों ना उन पन्नों को पलटा जाए, जब ऊंचे-नीचे पथरीले रास्तों पर दौड़ लगाते हम काफल, हिसालू और किलमोड़ी खाने रुक जाते थे।
जब भी गर्मियों की छुट्टियां पड़ती, पिताजी हम सब बच्चों को पहाड़ भेज देते। वैसे जहां गांव में मेरा घर था, वहां शहर की हवा नजदीक से ही बहती है। नैनीताल से सिर्फ तीन किलोमीटर की दूरी पर है, मेरा गांव। गेठिया कहते हैं, इसे लोग। लेकिन हवा, पानी, काफल, हिसालु और किलमोड़ी गेठिया को गांव बनाते हैं।
जब भी गर्मियों की छुट्टियां पड़ती, पिताजी हम सब बच्चों को पहाड़ भेज देते। वैसे जहां गांव में मेरा घर था, वहां शहर की हवा नजदीक से ही बहती है। नैनीताल से सिर्फ तीन किलोमीटर की दूरी पर है, मेरा गांव। गेठिया कहते हैं, इसे लोग। लेकिन हवा, पानी, काफल, हिसालु और किलमोड़ी गेठिया को गांव बनाते हैं।
दो महीने की गर्मियों की छुट्टी पूरे साल का रिचार्ज कूपन हुआ करती थी। जैसे गर्मियों में निचले मैदानों से पक्षी पहाड़ों की ओर रुख करते हैं। वैसे ही हम बच्चे भी बिना पंखों के पहाड़ चले आते। वैसे तब पंख थे, मेरे पास..... कल्पना के पंख। मां पहाड़ पहुंचते ही सख्त हिदायत देती, बेटा गर्मी से आए हो... इसलिए खाने पीने का ख़ास ध्यान देना है। अधिक मत खाना कुछ भी। पर मां की कौन सुनता था, उन दिनों भला ?
वैसे गर्मियों के दिन पहाड़ों में फलों के दिन होते हैं। आड़ू, खुमानी, सेब और पूलम पेड़ों में लदे रहते हैं। लेकिन इन पर इनके मालिकों की नज़र रहती है। तो बच्चे क्या करें ? बच्चों की इस परेशानी को प्रकृति ने शायद सबसे पहले समझ लिया था। इसलिए गर्मियों में जगंली फल भी पहाड़ों में खूब लगते हैं। इन जंगली फलों का कोई मालिक नहीं होता। जिस पेड़ पर चाहे चढ़ जाइए, और जी भरकर खाइए काफल। और अगर पेड़ में चढ़ने की हिम्मत और ताकत नहीं है, तो फिर हिसालु और किलमोड़ी खाकर प्रकृति के इन लाजवाब फलों का मजा लिजिए।
मां कहती थी, बेटा हिसालु और किलमोड़ी खाने से पेट में दर्द होता है। एक अनजाना डर रहता, कि अगर पेट में दर्द हुआ, तो मां क्या कहेगी ? लेकिन फिर हिसालु और किलमोड़ी की झाड़ियां दिखती, तो मन पर काबू नहीं रह पाता। पीले-पीले, काले-जामुनी हिसालु छोटे मन पर लालच भर देते। एक-एक हिसालु हाथ से टूटता और मुंह में घुल जाता। कई बार ये सिलसिला काफी देर तक चलता रहता। मैं शहर से गांव पहुंचता था, इसलिए हिसालु की कांटेदार टहनियां अक्सर मेरे हाथों में चुभ जाती थी। कई बार इससे खून बहने लगता। इसलिए मेरे गांव के संगी साथी मेरे लिए थोड़े-थोड़े हिसालु तोड़ लेते... और मुझे खिला देते।
हिसालु मीठे थे, तो किलमोड़ी थोड़ी खट्टी होती थी। लेकिन इसको खाने का मजा भी अलग ही था। किलमोड़ी खाने से मां अधिक रोकती थी। मां का कहना था, इससे बच्चों के पेट में दर्द होता है। लेकिन मेरे साथ के सारे बच्चे रोज किलमोड़ी खाते। और उनके पेट में दर्द नहीं होता। तो मैं सोचता क्यों ना मैं भी इसका मजा लूं ? .... यही सोचकर मैं भी किलमोड़ी खाने निकल पड़ता। लेकिन किलमोड़ी खाना इतना आसान नहीं है। किलमोड़ी खाकर आप ये नहीं कह सकते कि आपने ये फल नहीं खाया। दरअसल किलमोड़ी का जामुन की तरह का रंग हाथों और होठों को रंग देता था। और मां काले जामुनी हाथों को देखकर अपनी डांट मुझ पर छोड़ देती।
काफल छोटे बच्चों की पहुंच में नहीं होता। ये बड़े-बड़े पेड़ों में लगता है। बड़े-बड़े जंगली पेड़ों में। जो गर्मियों में लाल-लाल काफल के दानों से भर जाते हैं। दूर घने जंगलों में काफल के पेड़ पर लाल-लाल दाने दूर से ही चमकते हैं। लोग पेड़ों पर चढ़कर फल के एक-एक दाने को टोकरी में भर लेते हैं। मैं बचपन में जंगल नहीं जा सकता था, इसलिए घर पर लाए गए काफलों का मज़ा लेता।
ये बचपन की बात है, करीब पंद्रह साल पुरानी। तब से अबतक वक्त काफी बदल गया है। अब गांव में जाने का उतना वक्त नहीं मिलता। अगर कभी पहुंचे तो भी उतना समय नहीं होता, कि हिसालु और किलमोड़ी खाने की हिम्मत की जाए। हिसालु और काफल की झाड़ियां भी पिछले दिनों में सिमटती जा रही हैं। अब जंगल सिकुड़ गए हैं... इसलिए काफल के लिए भी लोगों को और दूर के जंगलों में जाना पड़ता है। काफल और हिसालु इतने कम मिलते हैं कि नैनीताल जैसे शहर में जहां गर्मियों के दिनों में सैलानियों की आमद बढ़ जाती है। हिसालु और काफल इन दिनों किसी दूसरे फल की तुलना में अधिक महंगा बिकता है। काफल पचास से सौ रुपए किलो और हिसालू की एक नन्ही सी टोकरी पांच से दस रुपए की होती है। इस नन्ही सी टोकरी में पचास ग्राम हिसालु भी नहीं आते। लेकिन सैलानियों के लिए प्रकृति के इन नायाब फलों का स्वाद चखना किसी नए अनुभव से कम नहीं। सो इन दिनों गांव के बच्चों को थोड़ा पैसा कमाने का अच्छा ज़रिया मिल जाता है। बच्चे दिनभर जंगलों से काफल और हिसालु जमा करते हैं। और फिर इन्हें बाज़ार में बेचकर थोड़ा पैसा कमा लेते हैं।
लेकिन अब जब कोई बच्चा गर्मियों में शहर से गांव पहुंचता है, तो काफल, हिसालु और किलमोड़ी मिलना उतना आसान नहीं रहा। ख़ासतौर से नैनीताल के नजदीक के इलाकों में। जहां इन दिनों तेज़ी से मकान बनने लगे हैं। सोचता हूं.... क्या 25 साल बाद भी प्रकृति की ये नायाब देन हमें यूं ही मिलती रहेगी ?
Labels: यादें
2 Comments:
मज़ा आ गया पढ़कर. और फोटो तो बहुत सुन्दर हैं.
बहुत अच्छे से अपनी स्म्रतियों को खंगाला है। अच्छा संस्मरण है।
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