अभिलाषाओं तुम धीरे चलना
'अभिलाषाओं' तुम थम जाओ
अपने पंखों को सीमा दो
इक जीवन पथ पर दौड़ाओ
तुमको देखा है
खुले गगन में ऊंचा-ऊंचा उड़ते हो
कभी-कभी तो टूट बिखर
तेज़ी से तुम गिरते हो ।।
'अभिलाषाओं' तुम रुक जाओ
अपनी सांसों पर हाथ रहे
इतना चल कि / वापस घर की याद रहे
अक्सर होता है
दूर राह पर.... राही खो जाते हैं
अपनी, अपनों की / अपने घर की बांट रहे ।।
'अभिलाषाओं' तुम धीरे चलना
अपनी गति का / थोड़ा सा ख़्याल रहे
ऐसे चलना कि / सबकी चालों का भान रहे
अक्सर होता है
तेज़ी से चलने वाले / गिर जाते हैं
ऐसा ना हो
गिरकर / उठने की
फिर ना कोई / आस रहे ।।
Labels: मेरी रचना
2 Comments:
ultimate ....bahut achchha likha hai aapne
'अभिलाषाओं' तुम धीरे चलना
अपनी गति का / थोड़ा सा ख़्याल रहे
ऐसे चलना कि / सबकी चालों का भान रहे
-सुन्दर.
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