हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Thursday, April 9, 2009

वो 17 साल की लडकी

वो ज़मीन पर पड़ी / चीख रही थी
सरेआम उसपर बरस रहे थे / कोड़े
वो कौन थे ?
वो पूछ नहीं सकती (?)
उन्हें ये अधिकार किसने दिया ?
ये सवाल वहां लाज़िमी नहीं !!!
इसलिए कोई पूछता भी नहीं
सब हुक्म बजाते हैं / बिना सोचे ।।

ऐसा नहीं है / कि कोई नहीं था
भीड़ बेहिसाब थी
पर सब के सब तमाशबीन थे
ना सवाल सूझते थे
और ना सवाल पूछने की हिम्मत थी / किसी के पास ।।

मर्द ???..... बनकर कोड़े बरसाने वाले
किस पर बरसा रहे थे कोड़े ?
वो १७ साल की लड़की !!
उस लड़की पर ???
या फिर एक औरत की पीठ पर
जिसकी पीठ के नीचे कोख है !!
और उसी कोख से निकला था / ये मर्द ??
पूरे नौ महीने ख़ून चूसकर !!!

वो 17 साल की लडकी
जो घर से निकली / गैर-मर्द के साथ
ज़ाहिर है.... ये उसका गुनाह था
उसे अधिकार विहिन करने वालों की नज़र में
दरअसल उसका पैदा होना ही / पाप था वहां
मां गिड़गिड़ायी होगी !!
रहने दो.... छोड़ दो / भगवान की ख़ातिर
कहीं... घर के किसी कोने पर पड़ी रहेगी ये
इतने ढेर सारे ढोर डंगर हैं / घर पर ।।
खाने की चिंता भी नहीं करनी होगी
मैं अपने हिस्से की रोटी दे दूंगी / मां ने कहा होगा !
इस तरह बच गयी होगी वो
कोड़े खाने के लिए ।।

किसी से पूछ सकती है, क्या वो ?
आखिर उसके होने के क्या मायने हैं ?
या चौंतीस कोड़े !!
उसके गुनाह के नहीं
उसके औरत होने के गुनाह के हैं !!
जो हमेशा उस पर बरसने की वजह ढूंढ लेते हैं !!

Labels:

2 Comments:

At April 9, 2009 at 8:54 PM , Blogger संगीता पुरी said...

उसके औरत होने के गुनाह के हैं !!
जो हमेशा उस पर बरसने की वजह ढूंढ लेते हैं !!
बहुत सुंदर अभिव्‍यक्ति ।

 
At April 10, 2009 at 1:20 AM , Blogger Harshvardhan said...

aapki yah ravhna bahut achchi lagi... yah jaakar khushi hui aap bhii apne uttarkhande se hai. aapke blog par pahli baar aakar achcha laga .

 

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home