धर्म सत्ता या 1000 साल पीछे की ओर...
राजनीति में पहले तलवारें चलती थी। ख़ून से राजतिलक हुआ करता था। फिर वक्त बदला... लेकिन राजनीति में दगाबाज़ी ज़रा भी कम नहीं हुई है। मौकापरस्ती, कुर्सी हथियाने के हथकंडे वैसे ही पहले की तरह कायम हैं। हथियार बदल गए हैं, पर लड़ाई का मैदान अभी भी वही है... और सबसे बड़ी बात लड़ाई अभी भी एक ही बात की है। सत्ता पर कौन काबिज़ होगा ?
चुनाव का चक्रव्यूह सजा हो, तो राजनीति का असली चेहरा नज़र आता है। बस तलवारें नहीं चल रही हैं, ख़ून के छींटे नज़र नहीं आ रहे हैं।.... लेकिन तलवार की जगह ज़ुबानी जंग कम नहीं। नेता बस बयान देते हैं, उनके समर्थक इस बयान की ऊर्जा से एक दूसरे पर टूट पड़ते हैं। बिना सोचे कि क्या उनके नेता ने सही कहा ? समर्थक कभी नहीं सोचता कि सही और गलत क्या है ? नेता की अंधभक्ति ही कहेंगे इसे.... नेता के इशारे पर दंगों के लिए निकल पड़ते हैं... ये समर्थक।
लड़ाई इस बात की है, कि हिंदू के वोट पर कब्ज़ा कौन करेगा ? लड़ाई मुस्लिम वोटरों को हथियाने की भी कम नहीं है। सिख वोटरों के भी कुछ खरीदार हैं, वो जानते हैं कि सिख वोटरों को किस तरह अपने पाले में किया जा सकता है। फिर कुछ ऐसे लोग भी बच जाते हैं... जो ये देखकर कि हिंदू, मुस्लिम और सिख राजनीतिक रुप से लामबंद हो रहे हैं, अपने लिए एक झंडे की तलाश करने के लिए निकल पड़ते हैं।.... तो कुल मिलाकर राजनीति की बदौलत एक समाज टुकड़ों में विभाजित हो रहा है।
ये तो धर्म के आधार पर हो रही राजनीति की बात है। जिसने एक देश को चार बड़े हिस्सों में तब्दील कर दिया है। लेकिन सत्ता और कुर्सी की चाहत देश के चार टुकड़ों से खुश नहीं है। इन्हें देश को कुछ और खांचों में बांटना है। तो फिर बिहार में हिंदू वोटर को कैसे बांटा जाए ? यादव को कैसे अपने पाले में किया जाए ? पासवान... कुर्मी... दलित.... भूमिहार, राजपूत और ब्राह्मण वोटरों पर भी नेताओं की नज़र है। लोग नेताओं की मोटी चमड़ी को जानते हैं.... लेकिन इसके खिलाफ नहीं जाते। नेता धर्म से निकलकर जाति के टुकड़ों में समाज को बांट रहे हैं। और समझदार जनता तात्कालिक बहकावे में आकर बंटवारे को स्वीकार कर लेते हैं।
इसपर भी राजनीतिक दलों को इस बात से परहेज नहीं की वो क्या कर रहे हैं ? हिंदू झंडा उठाकर अखिल भारतीय राजनीति करने वालों की भी कमी नहीं। पर सवाल ये है कि क्या हिंदू झंडे को उठाकर अखिल भारतीय राजनीति की जा सकती है ? क्या कोई दल भारत में हिंदुओं की बात कर राजनीति रुप से स्वीकार्य हो सकता है ? ज़ाहिर है जब कोई हिंदूवाद की राजनीति करेगा, तो मुस्लिम राजनीति करने के लिए स्वत: ही रास्ता बन जाएगा। और फिर शुरू होगी कभी ना ख़त्म होने वाली प्रतिक्रिया। शायद यही हमारे दौर की सबसे मुश्किल परेशानी है।
अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान, इराक में क्या चल रहा है ? ये धार्मिक राजनीति का ही परिणाम है। कभी कहा गया था कि धर्म अफीम की तरह काम करता है। काफी हद तक ये बात दक्षिण एशिया के एक बड़े हिस्से पर सही बैठ रही है। तालिबान जिस राजनीति को आगे बढ़ा रहा है.... उसके मूल में धर्म है, हालांकि तालिबान का धर्म ..... इस्लाम के मूल सिद्धांतों के कितना करीब है ? इस पर अलग से बहस होनी चाहिए। लेकिन वो जैसा भी हो, तालिबान तो इस्लाम का इस्तेमाल कर ही रहा है।
दुनिया एक मुश्किल दौर से गुजर रही है। हमारे पड़ोस में धार्मिक राज्य की सत्ता अपना प्रभाव बढ़ा रही है। यानि हमारा पड़ोस एक हज़ार साल पुराने योरोप की ओर बढ़ रहा है। जहां धर्म की सत्ता मज़बूत थी। एक ऐसा धर्म सत्ता जिसे तोड़ने के लिए योरोप को तीन सौ साल लग गए। और फिर शुरू हुआ आधुनिक योरोप बनने का सिलसिला। धार्मिक सत्ता का पराभव योरोप के विकास का पहला पत्थर था।
लेकिन इंसान इतिहास से सबक नहीं लेता। हमारा पड़ोस उसी इतिहास की ओर बढ़ रहा है। सोचिए भारत की एक लंबी सीमा रेखा पर एक मज़बूत धर्म केंद्रित राज्य....... पाकिस्तान में तालिबान शक्तियां मज़बूत हो रही है.... अफगानिस्तान के हालात पहले से ही बदतर हैं..... बचा बांग्लादेश तो वहां भी कठमुल्ला तालिबान के हाथ का खिलौना बनने को तैयार बैठे हैं। जाहिर है.... भारत के लिए ख़तरा सबसे अधिक है। और इससे लड़ने के हमारे पास अधिक साधन नहीं हैं।
कहते हैं अगर बाहर हवा में रोग के कीटाणु अधिक हों तो हमें हमारी भीतरी ताकत ही रोग से बचा सकती है। यानि प्रतिरोधक क्षमता की मज़बूती ज़रुरी है। प्रतिरोधक क्षमता का मतलब परमाणु हथियार से लैस होना है क्या ? या फिर सेना में लाखों सैनिक होना ? या फिर वायु सेना की मज़बूती ?.... इन सबकी मज़बूती से इनकार नहीं किया जा सकता, पर यही देश को बाहरी हमले से बचा पाएंगे कहना ठीक नहीं होगा।.... असल शक्ति देश की जनता है। देश का हर नागरिक, वो हिंदू है... वो मुस्लिम है... सिख और ईसाई है।.... हर नागरिक बिना किसी भेदभाव के। .... अगर हर नागरिक को ये अहसास रहे कि केंद्र और राज्य में बैठी सरकार उसके साथ भेद नहीं करेगी। उसे भरोसा हो कि हर कीमत पर कानून उसके अधिकारों की रक्षा करेगा। उसे भरोसा रहे कि स्कूल, कॉलेज और नौकरी में उसके साथ धर्म आधारित भेद नहीं होगा।................ तो शायद बाहर से हमला करने वाले कामयाब नहीं हो पाएंगे।
लेकिन हो क्या रहा है ? गेरुआ झंडा उठाकर राजनीति करने वाले हिंदू हितों की बात करते हैं। लोग कहेंगे वो मुसलमानों का विरोध नहीं करते। लेकिन हिंदू हितों की बातें करते हुए वो मुस्लिम हितों का विरोध कर ही देते हैं।..... तो अगर ये सरकार केंद्र या राज्य में बैठी तो एक बड़े समुदाय को सरकार पर भरोसा कैसे होगा ?
Labels: राजनीति
1 Comments:
हिन्दू को धर्म के नाम पर कट्टर नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि वह स्वभाव से ही धर्म निरपेक्ष है.इसी लिए केवल हिन्दू वोटों के भरोसे हिन्दू हितों की बात करने वाले दल कोई करिश्मा नहीं दिखा पाते.लेकिन अन्य छद्म धर्म निरपेक्ष दलों की लगातार मुस्लिम परस्ती ने रुझान थोडा बदला है. वर्तमान में वरुण के भड़काऊ बयान का समर्थन अधिकांश हिन्दू नही करता, लेकिन उस पर रासुका लगाना मुस्लिम वोटर को खुश करने का कदम मानता है. ऐसी ही बातें हिन्दू को भी धर्म के नाम पर वोट देने हेतु उकसाती हैं. संसद में धर्म, जाति, धनबल और बाहुबल के आधार पर बड़ी संखा में लोग पहुँच रहे हैं. यह हमारे लोकतंत्र की विफलता है.
[आपके इस ब्लॉग में मेरे कम्प्युटर पर हिन्दी के अक्षरों की जगह केवल डॉट दिखाई देते हैं. यह पोस्ट मैंने टिप्पणि के लिए क्लिक करके मूल पोस्ट के ऑप्शन पर जा कर पढी.]
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home