पहाड़
पहाड़ / जब भी धूसर से नज़र आते हैं
सोचता हूं / किसने किया ये सब ?
किसने काटे पेड़ ?
किसने हिलाए पहाड़ ?
किसने मोड़ दिए नदियों के रास्ते ?
एक दिन में नहीं हुआ / ये सब
सबने थोड़ा-थोड़ा कुरेदा है इनको
फिर दरक गए पहाड़
जहां कभी हरियाली थी
आज धूसर उदासी है
फूल नहीं हैं / वहां पर ।।
Labels: मेरी रचना
4 Comments:
पहाड़ एक आलम्बन है,
मानवता के लिए और प्राणि-जगत के लिए।
यदि पहाड़ न हों तो जगत का वजूद खत्म हो जायेगा।
सारी दुनिया बीमार नजर आयेगी।
कम शब्दों में आपने
लोटे में समन्दर समा दिया है।
बधाई।
वाह भट्ट साहब पहाड़ का अच्छा प्रयोग पहाड़ का दर्द बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया है।
बहुत सही रचना है।बधाई।
Dajyu Bahute Sundar Likhcha Apu..
----------Prachi Ke Paar-----------
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