पहले था ढेर सारा अकेलापन (.)
पहले था ढेर सारा अकेलापन (.)
जैसे एक बंद कमरा हो
और मैं उसमें क़ैद हूं
और मेरे होठों पर
किसी ने रख दी है चुप की उंगली ।।
ऐसा नहीं था
कि मैं बोल नहीं सकता था
पर वहां था ही नहीं कोई
मेरे इर्द-गिर्द कोई अपना सा
बार-बार कुछ शब्द गले से उतरकर
होठों के दरवाज़े तक आते थे
पर फिर उस दरवाज़े को बंद पाकर
उदास से होते ।।
ऐसे ही एक दिन... दो दिन
और कई दिन गुजरे
फिर इन्ही गुजरे दिनों में से एक दिन
तुम आई थी
जैसे समंदर में आकर एक और बूंद मिल गयी
मेरी ढेर सारी तनहाई को बिना छेड़े
तुमने दस्तक दी थी
और जैसे सालों से क़ैद मैं
रिहाई मिल गयी ।।
पर फिर वही दिन लौटे हैं
मैं, मेरा वही कमरा
मैं उसमें क़ैद हूं
होठ फिर बंद हैं
शब्दों के पैरों पर जंज़ीर पड़ी है
मैं बोल नहीं सकता ।।
फिर इंतज़ार है....
किसी दिन तुम आओगी
और मुझे / मेरी क़ैद से मिलेगी रिहाई
मुझे / मेरी क़ैद से मिलेगी रिहाई ।।
Labels: मेरी रचना
4 Comments:
बहुत भाव पूर्ण रचना है।बधाई।
अच्छी रचना .. बधाई।
मनोभावों की सुन्दर अभिव्यक्ति!!
मन के भावों को आपने बखूबी उकेरा है ....बहुत खूब
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
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