हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Friday, June 5, 2009

अब सावन नहीं आता है, वहां

अब सावन नहीं आता है, वहां
वो सालों पहले आया था, अंतिम बार
तब वहां घने झुरमुट थे
राह नहीं सूझती थी
पक्षी चहचहाते थे
वनराज गरजते थे वहां ।।

ठंडी छांव में, नदी के किनारे
हम भी बैठे थे कभी
घंटो बाते की थी
कई बार दुखी होकर
इसी जगह पर
मैं लेट गया था
कई बार, खुश होकर
हवाओं को बाहों में भरकर
ज़ोर-ज़ोर से पुकारा था ।।

अब सावन नहीं आता है, वहां
आज भी झुरमुट हैं, वहां घने
लेकिन पेड़ नहीं है
कंकरीट के दानव खड़े हैं
आज भी रास्ते नहीं दिखते
जैसे, लहरों पर लहरें / सवार होकर दौड़ रही हों ।।

आज भी शोर है वहां
पक्षी नहीं चहचहाते तो क्या ?
मृग नहीं भरते हिलोरे
शेर नहीं गरजते
ठंडी छांव नहीं मिलती
लेकिन ठंड कम नहीं है
नदी का किनारा तो नहीं
स्वीमिंग पुल हैं वहां पर ।।

पर दुखी होकर
लेट नहीं सकता वहां
क्योंकि, उस जगह से हाइवे गुजरता है ।।

खुश होकर
हवाओं को बांहों में नहीं भर सकता
क्योंकि अब सावन नहीं आता है वहां ?


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