नत्था नहीं, हम मर रहे हैं
६ महीने हो गए, ब्लॉग पर उंगलियां चल ही नहीं पा रही थी, दिमाग में सवाल आते थे, पर यहां आते-आते जैसे धुंधले पड़ जाते, लेकिन इस फिल्म ने फिर से सवाल खड़े कर दिए, मेरे अंदर।
पिपली लाइव देखकर लौटा हूं, सोच रहा हूं कि एक कहानी जब पर्दे पर देखी जाती है, तो कितनी वीभत्स लग सकती है। पर हमारे इर्दगिर्द न जाने कितने ही नत्था मर रहे हैं, पता ही नहीं चलता। सिस्टम के फेल होने का हवाला कौन देता है? नत्था नहीं देता, न बुधिया देता है..... वो तो समझ ही नहीं पाता कि सिस्टम क्या चालबाज़ियां कर रहा है। और जो समझते हैं, वो शहरों को निकल आते हैं। पहले नौकरी, फिर एक फ्लैट... और फिर एक कार..... और हफ्ते में मिलने वाली छुट्टी पर एक फिल्म... पिपली लाइव जैसी। कभी कभार सिस्टम के फेल हो जाने पर चर्चा और फिर अगले ही पल सबकुछ भूल जाना।
सिस्टम सुधरेगा या हम ?
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लेकिन सिस्टम को कोसना तो समस्या का हल नहीं हो सकता, दरअसल हममें और नत्था में कोई बड़ा अंतर नहीं है। नत्था दो वक्त की रोटी पाना चाहता है, और उसके लिए... जो कुछ हो सकता है, करने की कोशिश कर रहा है। और हममे में से ज़्यादातर भी ऐसा ही कर रहे हैं।
फिल्म ऊपर से देखने में नत्था के मरने की कहानी ज़रुर लग सकती है, लेकिन मरता कौन है.... , सरकार , राजनीति या फिर मीडिया ? या तीनों मर रहे हैं, धीरे-धीरे।
गांव में पानी नहीं है, खेती कैसे होगी? और ये क्या पिपली गांव की कहानी है, देश के लाखों गांव इसी हालत में नहीं हैं, क्या? एक छोटे से सवाल को बड़ा कैसे किया जा सकता है, ये राजनीति और सत्ता बखूबी जानती है.... और इस काम को मीडिया नमक मिर्च लगाने को तैयार है ही।
नत्था बच गया, पर और भी हैं....
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नत्था पिपली लाइव में बच गया। लेकिन देश के लाखों करोड़ों नत्थों का बचना मुश्किल है। वो बचेंगे कैसे? जबकि सरकारी योजनाएं वक्त पड़ने पर ज़रुरतमंद के काम नहीं आती, वैसे ही जैसे सरकारी अस्पताल वक्त पड़ने पर बीमार के काम नहीं आते, पुलिस पीड़ित के काम नहीं आती, आम आदमी के वोट से विधानसभा या संसद पहुंचा नेता आम आदमी के काम नहीं आता। और देश दुनिया को सच दिखाने की कसम खाने वाला मीडिया सच नहीं दिखाता।
कौन बदलेगा सूरत? राजनीति, सरकार या मीडिया ? सवाल बेमानी है
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फिर उम्मीद कहां बचती है? क्या बदलाव की कोई सूरत नहीं है, क्या पूरा देश पिपली गांव बन जाएगा। या फिर हम सब अपने नेता, अपनी सरकार, अपना मीडिया ख़ुद बन जाएं। क्या हम कल से डरना छोड़ेंगे। क्या हम अपनी नौकरी खोने का डर छोड़ेंगे। क्या हम एक सच बोलने से होने वाले ख़तरों को मोल लेने की हिम्मत दिखा पाएंगे?
जनता के नाम पर क्या-क्या ?
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हॉलीवुड की फिल्म लॉयन्स फॉर लैम्ब में प्रोफेसर अपने छात्र से कहता है, कि अगर आप बदलाव के लिए तैयार नहीं होओगे तो आने वाला वक्त तुम्हें कोसेगा। वहां भी सत्ता जनता को डराती है, उनके सामने झूठे डर पेश करती है, मसलन इराक पर हमला क्यों ठीक है? इसमें जनता के क्या फायदे छिपे हैं.... और ये भी कि देश के हित के लिए लोगों को अपनी शहादत तो देनी ही पड़ती है। लेकिन ये समस्याएं खड़ी कौन करता है? कूटनीति और शासन नीति, नेता राजनेता या फिर आम आदमी.... नत्था जैसा आम आदमी?
मीडिया का चरित्र सुधरेगा क्या ?
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आपको कैसा लग रहा है? ये सवाल चिढ़ाता नहीं है क्या? एक सीधी सी बात के मीडिया के अपने मतलब क्यों होते हैं? पिपली लाइव देखते हुए, महसूस होता है कि मीडिया ने खुद को कितना हास्यास्पद बना लिया है। बचकाने सवाल, टीआरपी तो दिला सकते हैं, लेकिन मीडिया को सड़ा रहे हैं।
यूं तो रोने के लिए बहुत कुछ है, पर फिल्म बेहतरीन लगती है। संवाद, साधारण स्थितियों को कैसे असाधारण बनाया जा सकता है, फिल्म में कमाल तरीके से दिखाया गया है। सरकार, राजनेती और मीडिया का चरित्र.. क्या कहने। और संगीत भी बेमिसाल है।
Labels: फिल्म
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