हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Monday, February 23, 2009

गढ़केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा

वो अंग्रेजों की दासता का वक्त था। पूरे देश पर अंग्रेजों का राज था। देश के उत्तर में जहां हिमालय दूर-दूर तक फैला है, अंग्रेज अपनी मनमानी कर रहे थे। तत्कालीन यूनाइटेड प्रोविंस का सबसे उत्तरी छोर, जो अब उत्तराखंड कहलाता है, कुली बेगार से तड़फ रहा था।

अंग्रेज अधिकारी अपने निजी काम कराने के लिए स्थानीय लोगों का उपयोग करते थे। माल को इधर-उधर पहुंचाने के लिए जानवरों की जगह इंसानों का प्रयोग। कुली की तरह इंसानों का उपयोग। अंग्रेज अधिकारी जिस किसी से चाहे कुली बेगार करवा सकता था। और जो मना करता, उसे भारी जुर्माने के साथ-साथ जेल की सजा हो जाती।

इस दमनकारी नीति के खिलाफ १९१९ में पूरे उत्तराखंड क्षेत्र में जन-आंदोलन चला। तत्कालीन ब्रिटिश गढ़वाल (अब पौढ़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग) में इस आंदोलन की बागडोर गढ़केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के हाथ में थी।

अनुसूया प्रसाद बहुगुणा का जन्म १८ फरवरी, १८६४ में चमोली के अनुसूया आश्रम में हुआ। माता-पिता भगवान में अटूट आस्था रखते थे, इसलिए बेटे का नाम अनुसूया देवी के नाम पर अनुसूया रखा गया।

अनुसूया प्रसाद की शुरुआती शिक्षा गांव में ही हुई। पौड़ी के मिशन स्कूल से हाईस्कूल किया। इसी दौरान स्वतंत्रता आंदोलन की ओर रुझान होने पर युवक संघ की स्थापना की। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से १९१२ में बीएससी और 1916 में एलएलबी की पढ़ाई पूरी की।

एलएलबी की पढ़ाई के दौरान ही उनकी नियुक्ति नायब तहसीलदार के तौर पर हो गयी। लेकिन आज़ादी का जज़्बा मन में पैदा हो चुका था, इसलिए अंग्रेजों की नौकरी को ठोकर मार अनुसूया प्रसाद वकालत करने लगे। शुरूआत में भारतीय होने की वजह से उनके साथ भेदभाव किया गया, पर बुद्धि के धनी अनुसूया प्रसाद ने जल्दी ही सबको दिखा दिया कि वो मामूली आदमी नहीं हैं।

१९१९ में अनुसूया प्रसाद ने बैरिस्टर मुकुंदीलाल के साथ लाहौर में कांग्रेस के सम्मेलन में भाग लिया। वहां से लौटकर अब वो पूरी तरह से आज़ादी के आंदोलन में लग गए। १९१९-२० में जब कुली बेगार प्रथा के खिलाफ पूरे उत्तराखंड में आंदोलन चला तो ब्रिटिश गढ़वाल में इसकी बागडोर अनुसूया प्रसाद ने संभाल ली। गांव-गांव घूमकर लोगों को कुली बेगार के खिलाफ खड़ा किया।

अनुसूया प्रसाद की कोशिशों का नतीजा निकला, १९२१ में। अंग्रेज़ कमिश्नर रैमजे जब चमोली के दशजूला पट्टी पहुंचा, तो उसका खाना बनाने, सामान उठाने और दूसरे कामों के लिए कोई भी बेगार करने को तैयार नहीं हुआ। हार कर रैमजे ने अनुसूया प्रसाद को बातचीत के लिए बुलाया। लेकिन अनुसूया प्रसाद कुली बेगार खत्म किए बगैर बातचीत के लिए तैयार नहीं हुए। अनुसूया प्रसाद के इस साहसिक कदम के बाद जनता ने उन्हें गढकेसरी कहना शुरू कर दिया।

अनुसूया प्रसाद ने १९१६ से १९२४ के बीच बदरीनाथ और केदारनाथ मंदिरों मे फल रहे भ्रस्टाचार के खिलाफ आवाज़ उठाई। जिसके बाद प्रशासन को बदरीनाथ प्रबंध कानून बनाना पड़ा। और कानून के तहत बदरीनाथ मंदिर प्रबंध समिति का गठन किया गया। जिसके पहले अध्यक्ष डॉ. सर सीताराम बनाए गए। अनुसूया प्रसाद को तत्कालीन संयुक्त प्रांत की विधानसभा का सदस्य होने की वजह से इसका सदस्य बनाया गया।

सत्याग्रह आंदोलन में हिस्सा लेने की वजह से अनुसूया प्रसाद को 1930 में जेल जाना पड़ा। इसके बावजूद उन्हें अंग्रेज रोक नहीं सके। 1940 में सत्याग्रह आंदोलन हुआ, तो अनुसूया प्रसाद को एक साल के लिए बरेली जेल जाना पड़ा। १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान उन्हें उनके घर में ही नज़रबंद कर दिया गया।

आज़ादी का सपना देखने वाला ये परवाना देश को आज़ाद हवा में सांस लेता हुआ नहीं देख पाया। २३ मार्च १९४३ को अनुसूया प्रसाद बहुगुणा ने इस जहां से विदा ली। लेकिन इस महान आंदोलनकारी को शायद ही कभी भुलाया जा सके। जब भी आजा़दी का ज़िक्र होगा, लोग गढ़केसरी अनुसूया प्रसाद बहुगुणा को याद करेंगे।

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3 Comments:

At February 23, 2009 at 11:48 PM , Blogger अक्षत विचार said...

एक चीज खली आपने अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के गांव ‘नन्दप्रयाग’ का नाम छोड़ दिया।

 
At June 5, 2020 at 5:32 AM , Blogger Unknown said...

महोदय आपके द्वारा

 
At June 5, 2020 at 5:42 AM , Blogger Unknown said...

महोदय आपके द्वारा बहुत सुंदर जानकारी दी गई है महोदय इसमें माननीय श्री बहुगुणा जी के द्वारा ककोड़ा खाल नामक ऐतिहासिक स्थान पर आकर के एवं इस क्षेत्र की संपूर्ण जनता के द्वारा जिसमें हमारे सारे गांव के लोग इकट्ठा होकर अंग्रेजो के खिलाफ उनकी संपूर्ण सामान को वहीं पर छोड़ कर के एवं अंग्रेजों को भगाया था जिसके फलस्वरूप उन्हें बाद में काफी यातनाएं भी दी गई कई लोगों को जेल में भी डाल दिया गया था इस प्रकार से यह ककोड़ा खाल ऐतिहासिक स्थान बन गया था और यहीं पर से माननीय श्री अनुसूया प्रसाद बहुगुणा जी को गढ़ केसरी की उपाधि मिल गई थी क्योंकि उन्होंने पूरी गढ़वाल मंडल से कुली बेगार प्रथा को समाप्त करने के लिए ऐतिहासिक लड़ाई लड़ी थी ।

 

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