हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Thursday, February 26, 2009

पहाड़ पर लालटेन

जंगल में औरतें हैं
लकड़ियों के गट्ठर के नीचे बेहोश
जंगल में बच्चें हैं
असमय दफनाए जाते हुए
जंगल में नंगे पैर चलते बूढ़े हैं
डरते-खांसते अंत में गायब हो जाते हुए
जंगल में लगातार कुल्हाड़ियां चल रही हैं
जंगल में सोया है रक्त

धूप में तपती चट्टानों के पीछे
वर्षों के आर्तनाद हैं
और थोड़ी सी घास है बहुत प्राचीन
पानी में हिलती हुई
अगले मौसम से जबड़े तक पहुंचते पेड़
रातोंरात नंगे होते हैं
सुई की नोक जैसे सन्नाटे में
जली हुई धरती करवट लेती है
और एक विशाल चक्के की तरह घूमता है आसमान

जिसे तुम्हारे पूर्वज लाए थे यहां तक
वह पहाड़ दुख की तरह टूटता आता है हर साल
सारे वर्ष सारी सदियां
बर्फ की तरह जमती जाती हैं नि:स्वप्न आंखों में
तुम्हारी आत्मा में
चूल्हों के पास पारिवारिक अंधकार में
बिखरे हैं तुम्हारे लाचार शब्द
अकाल में बटोरे गए दानों जैसे शब्द

दूर एक लालटेन जलती है पहाड़ पर
एक तेज आंख की तरह
टिमटिमाती धीरे-धीरे आग बनती हुई
देखो अपने गिरवी रखे हुए खेत
बिलखती स्त्रियों के उतारे गए गहने
देखो भूख से बाढ़ से महामारी से मरे हुए
सारे लोग उभर आए हैं चट्टानों से
दोनों हाथों से बेशुमार बर्फ झाड़कर
अपनी भूख को देखो
जो एक मुस्तैद पंजे में बदल रही है
जंगल से लगातार एक दहाड़ आ रही है
और इच्छाएं दांत पैने कर रही हैं
पत्थरों पर।

-मंगलेश डबराल

(ये कविता २००० में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित वरिष्ठ कवि और पत्रकार मंगलेश डबराल की है, जो कि उनके काव्य संग्रह 'पहाड़ पर लालटेन' से ली गयी है। इस कविता के बारे में अब कुछ कहना शायद संभव नहीं।)

1 Comments:

At February 26, 2009 at 6:03 PM , Blogger डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

पर्वतीय जन-जीवन का चित्रण,
सुन्दर और निराला है।
लालदेन से,छिपी भूख का,
अच्छा वर्णन कर डाला है।।

 

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