हवा बदल रही है क्या ?
छब्बीस मई 2014 को
नरेंद्र मोदी ने देश के पंद्रहवें प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली। उस दिन से एक पत्रकार
के तौर पर सोशल मीडिया और आम बहसों में मैंने लगातार एक बात महसूस की। जब भी मोदी
सरकार की किसी योजना की सार्वजनिक तौर से आलोचना की। हर बार खुद को चौतरफा घिरता
पाया। ऐसा अपने इर्द गिर्द दूसरे मोदी आलोचकों के साथ भी होता हुआ देखा। सोशल
मीडिया पर हमला ज्यादा तेज होता है। सोशल मीडिया में ऐसे लोगों को घात लगाकर घेरा
गया। मैं मोदी का आलोचक हूं। पर सोशल मीडिया में हमलावर होने से बचता हूं। लेकिन
जो ऐसा खुलकर करते हैं, उन्हें कई बार मोदी समर्थकों द्वारा गालियों और
अपशब्दों से नवाजते देखा है।
तथ्यों, तर्कों को सुनने में क्या जाता है?
बहुत कम मौके ऐसे आए
हैं, जब मोदी सरकार के समर्थकों को हार मानते देखा। राष्ट्रवाद, हिंदुत्व, गोरक्षा, जेएनयू से जुड़े मसलों पर तो ये सवाल ही नहीं
उठता कि मोदी समर्थक हार मान लें। लेकिन अर्थव्यवस्था के सवाल पर, जहां आंकड़ों की जुबानी सारी बातें सुनी जाती हैं। वहां भी मोदी और मोदी सरकार
के समर्थक लगातार डटे रहे। नोटबंदी जैसे एक खराब आर्थिक फैसले पर मोदी समर्थक बहस से
एक इंच भी पीछे नहीं हटे। और ज्यादातर बार ऐसी बहसों में विजयी साबित हुए। तब भी
जब रिजर्व बैंक ने ये बता दिया कि सिर्फ एक फीसदी नोट सरकार के खजाने में नहीं
लौटे हैं। मतलब ये कि नोटबंदी फेल हो गयी है।
एक चाय पार्टी बहुत दिलचस्प हो सकती है !
दरअसल मैं जो बात
लिखने के लिए बैठा हूं। वो भूमिका बनाने में छूट न जाए। इसलिए मैं मुद्दे पर आता
हूं। दरअसल आज एक करीबी के आफिस के उद्धाटन का निमंत्रण मिला था। सुबह के वक्त एक
पूजा रखी गयी थी। मैं सुबह सुबह वहां पहुंच गया। थोड़ी देर बाद मेरे उन रिश्तेदार
के दोस्त और जानने वाले जुटना शुरू हो गए। यहां ये बताना जरुरी है कि मैं अपने जिस
रिश्तेदार की बात कर रहा हूं। वो संघ यानी आरएसएस से जुड़े हुए हैं। और संघ की
शाखाओं में जाते हैं। सो यहां उनके ज्यादातर मित्र संघ की शाखाओं से जुड़े लोग थे।
आगे कहानी बढ़ेगी, तो इस तथ्य का महत्व आपको समझ आएगा।
हवा बदल रही है क्या
तो पूजा चल रही थी।
कानों में मंत्रोच्चार गूंज रहे थे। और पास में ही कुर्सियों में हम टांग पर टांग
रखे गप हांक रहे थे। शुरूआत घर, मकान और दुकान से हुई। यानी नोएडा एनसीआर में
रियल्टी सेक्टर से। इनमें कई लोगों ने घर बुक कराए थे, जो रियल्टी सेक्टर की मंदी में अब तक मिल नहीं पाए थे। सो संघ की शाखा के
कार्यकर्ता और संघ से जुड़े होने के चलते मोदी सरकार के समर्थक होने के बावजूद ये
लोग पांच से सात साल बाद भी घर नहीं मिल पाने से चिंता में दिखे।
इस बीच चाय और
पकौड़े आ गए थे। रियल्टी सेक्टर की बातें न जाने कब खत्म हो गयी। इस बीच एक शख्स
जिन्होंने खुद को कांग्रेसी घोषित किया था। वो मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की
आलोचना करने लगे। शायद वो बिजनेसमैन थे। उनकी बातों से लगा, नोटबंदी और फिर जीएसटी ने उनके धंधे की वाट लगा दी है। मुझे लगा कि इन साहब की
खैर नहीं होगी। आठ दस संघ के कार्यकर्ता मोदी विरोध के लिए इनकी बैंड बजा देंगे।
लेकिन मुझे संघ के इन महानुभावों ने निराश कर दिया।
इस बहस में चुप्पी का क्या मतलब है?
दरअसल मैं इस तरह की
बहस में हिस्सेदारी से बचना चाहता था। वो भी तब जब मुझे पता था, कि संघ से जुड़े 10 लोग वहां पर हैं। और मोदी सरकार का विरोध शायद वो पचा नहीं
पाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जिस वक्त ‘कथित’ कांग्रेसी महानुभाव ने मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ अपना उवाच तेज किया।
सभी “संघ मित्र” उनकी हां में हां मिलाने लगे। ये देखकर हौसला
बढ़ा तो मैं बहस का हिस्सा हो गया। अर्थशास्त्र और देश के आर्थिक हालात का जो
अल्पज्ञान मुझे है। और बतौर पत्रकार जो बातें मैंने पढ़कर समझी हैं, मैंने सभा के सम्मुख पेश कर दी। आश्चर्य, किसी “संघ मित्र” ने मेरी बातों के विरोध में तर्क पेश नहीं किया। सभा ने
सर्वसम्मति से नोटबंदी को फेल पाया। और इससे आगे बढ़कर देश की आर्थिक सेहत के लिए
घातक भी। एक मित्र ने कहा, नोटबंदी ने प्रोडक्शन की ऐसी तैसी कर दी। इससे
फैक्ट्रियां बंदी के कगार पर पहुंच गयी हैं। लोगों ने अपनी फैक्ट्रियों से लोगों
की छंटनी कर दी है। यानी नोटबंदी के जरिए सरकार ने बड़ी आसानी से रोजगार का
बंटाधार कर दिया।
दूसरे मित्र रियल्टी
सेक्टर के जानकार थे। कहने लगे कि नोटबंदी ने रियल्टी सेक्टर की बैंड बजा दी है।
उन्होंने अपनी आपबीती बताई। उन्होंने बताया कि दो साल पहले उन्हें उनके एक फ्लैट
की कीमत पांच हजार रुपये वर्ग फीट के हिसाब से मिल रही थी। वो ये कहते कहते थोड़ा
परेशान हो गए कि अब उसी घर की कीमत पैंतीस सौ रुपये वर्ग फीट रह गयी है। सभा से एक
आवाज उभरी। घरों की कीमत गिरी है, ये तो मोदी सरकार ने बड़ा काम किया। आम आदमीं के
लिए घर खरीदना आसान हो गया है। ये पहला तर्क था, जो आज की सुबह मोदी सरकार
की नीति के डिफेंस में उभरकर आया था। इसके जवाब में एक सहब ने तंज मारा। क्या
पैंतीस सौ रुपये वर्ग फीट में आम आदमी घर खरीद सकता है? ये तंज इस अंदाज में था, जैसे वो कह रहे हों। मैं तो बस पूछ रहा हूं?
आगे रोचक मोड़ है….
अचानक ये सभा भंग हो
गयी। बहस और तर्क कर रहे लोग घरों के लिए निकलने लगे। दुआ सलाम और हाथ मिलाकर लोग
निकल गए। लेकिन इस बहस का बेहद ही रोचक और चौंकाने वाला मोड़ आना अभी बाकी था। अब
मेरे करीबी रिश्तेदार की दुकान पर तीन चार लोग ही रह गए थे। इनमें एक एक मित्र
मेरे करीब आ गए। वो मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों पर चली बहस का हिस्सा थे। हम
दोनों उसी जगह से आगे बढ़े, जहां बड़ी सभा स्थगित होकर अपने अपने गंतव्यों
के लिए निकल गयी थी। उन्होंने मेरा नाम
पूछा, मेरे व्यवसाय के बारे में जानने की कोशिश की। मेरे जवाब से
वो ज्यादा नहीं चौंके। लेकिन जवाब देने के बाद मैंने भी वही सवाल किए। उनके जवाब
से मैं चौंका। नहीं, उन साहब का नाम चौंकाने वाला नहीं था। दरअसल
उनके काम में चौंकाने की कई संभावनाएं छिपी थी।
मीडियम, मैसेज और इन्फोर्मेशन की लड़ाई जीतने वाला राजा बनेगा
उन्होंने बताया कि
वो बीजेपी के लिए काम करते हैं। और “न” आर्मी चलाते हैं। दरअसल ये मित्र कोई लठैत नहीं
थे। न ही ये बंदूक कंधे पर टांगकर पहुंचे थे। आर्मी से इनका मंतव्य किसी विशेष
शख्स के लिए लड़ाई लड़ने से था। और सही भी है। सारी लड़ाई बंदूक, तलवार, बम, टैंक और लाठियों ने नहीं लड़ी जाती। जैसा मीडिया
थ्योरी के बड़े नाम मार्शल मैक्लुहान कहकर गए हैं – “दी मीडियम इज दी
मैसेज”। और कई कम्युनिकेटर कह गए हैं – “इन्फॉर्मेशन इज पावर”। तो कई दशकों से एक लड़ाई मीडियम, मैसेज और इन्फोर्मेशन के जरिए भी लड़ी जा रही है। सेकेंड वर्ल्ड वॉर के दौरान
हिटलर और मुसोलिनी से लेकर खाड़ी युद्ध में पश्चिमी देशों ने मीडियम, मैसेज और इन्फोर्मेशन का अपने अपने हिसाब से इस्तेमाल किया। भले ही अब हकीकत
सामने आ रही है।
एक युद्ध… जो सोशल मीडिया में लड़ा गया
तो ज्यादा सस्पेंस
का कोई फायदा नहीं है। इन मित्र की “न” आर्मी में इनके मुताबिक सैकड़ों सैनिक काम करते
थे। ये मित्र अपने सैनिकों यानी आर्मी के जरिए एक इन्फोर्मेशन वॉर लड़ रहे थे। उस
शख्स के लिए, जिससे इन्होंने काफी उम्मीदें पाल ली थी। दरअसल इन्हें देश
के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में अटूट आस्था थी। ये अपनी “न” आर्मी के जरिए सोशल मीडिया पर मोदी और बीजेपी के लिए हवा
यानी माहौल बनाने का काम पिछले आठ साल से कर रहे थे। इन्होंने बताया कि वो मोदी जी
से उस वक्त मिले थे। जब चुनाव होने में तीन से चार साल का वक्त बचा था। और तभी से
ये इमेज बिल्डिंग में लग गए। हालांकि इन्होंने कहा कि अभी धंधा मंदा चल रहा है।
बीजेपी को लगता है कि मोदी जी अकेले चुनाव जीता सकते हैं। सो ऐसी आर्मी का
इस्तेमाल कुछ कम कर दिया गया है। और अगर हो भी रहा है, तो इसके लिए भी बड़े नेताओं से जुड़े लोगों को अहमियत दी जाती है।
इन साहब ने दो तीन
बड़ी बातें बताई। इन्होंने बताया कि इनका काम अपने नेता की इमेज बिल्डिंग के साथ
साथ विरोधी नेता की छवि खराब करने का भी था। अपने नेता की इमेज बिल्डिंग कैसे करते
थे, मुझे इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। क्योंकि इसके उदाहरण
साफतौर से सोशल मीडिया के जरिए हम देखते ही रहते हैं। और ये तो एक समर्थक का
कर्तव्य है ही कि वो अपने नेता की शान में कसीदे गढ़े। मेरा इंटरेस्ट इस बात में
था कि इन मित्र की आर्मी विरोधियों की छवि कैसे खराब करती है। सो मैंने यही सवाल
इनसे पूछा। इन्होंने बड़ी जबर्दस्त बात बताई। इन्होंने कहा कि अब विपक्षी पार्टियां
भी सोशल मीडिया की लड़ाई में कूद गयी हैं। लेकिन दो तीन साल पहले तक ये क्या करते
थे। इन्होंने उदाहरण के जरिए ये बताया।
इमेज बिल्डिंग और छवि बिगाड़ने का खेल
इन साहब ने बताया कि फर्ज कीजिए। राहुल गांधी किसी मंदिर में पूजा करने गए हैं। तो इनकी आर्मी पहले “राहुल गांधी भगवान की शरण में” इसे प्रचारित करते थे। और फिर अचानक कैंपेन का मोड बदल दिया जाता। शाम होते होते राहुल गांधी की जूते चप्पल पहने तस्वीर पर लिखा जाता। “राहुल गांधी मंदिर में चप्पल या जूते पहनकर गए”। इनका कहना था कि बाद वाले नैरेटिव के जरिए विरोधी नेता की निगेटिव छवि बनाने पर जोर रहता था। इन साहब ने बताया कि राहुल गांधी के भाषण की किसी गलती को बार बार उछाला जाता। और फिर राहुल गांधी “पप्पू” वाला नैरेटिव तैयार किया जाता।
मित्र की कहानी और
काम दोनों इंटरेस्टिंग था। जैसा मित्र ने बताया उन्होंने अपनी आर्मी के जरिए
सत्ताधारी पार्टी के लिए गुजरात से लेकर पश्चिम बंगाल तक के चुनाव में काम किया।
लेकिन हाल फिलहाल के चुनाव में इस तरह के काम में इन्हें सत्ताधारी पार्टी ने
ज्यादा तवज्जो नहीं दी। इस बात से ये परेशान तो हैं। आप चाहें तो इस बात को इनके मोदी
सरकार की नीतियों के विरोध से आसानी से जोड़ सकते हैं।
क्या मैनेज की गई चमक फीकी पड़ रही है?
दरअसल मैं जिस बहस
का जिक्र कर रहा हूं। उसमें मैंने एक बात काफी अलग महसूस की। पहली, बहस करने वाले लोगों में ज्यादातर बीजेपी, संघ और मोदी के समर्थक थे।
विरोध या आलोचना करने वाले सिर्फ दो लोग थे। जिनमें मैं भी एक था। पर आश्चर्यजनक
रुप से मोदी सरकार की नीतियों और खासतौर से प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना समर्थकों
के मुंह से सुनाई दी। हालांकि ये लोग अभी भी संघ और बीजेपी को छोड़ने के मूड में
नहीं हैं। लेकिन नोटबंदी और जीएसटी ने अर्थव्यवस्था को जिस दोराहे पर लाकर खड़ा
किया है, उसका जवाब देने के लिए इनके पास तर्क नहीं हैं। ज्यादातर
लोगों ने कहा कि नोटबंदी और जीएसटी के सवालों के जो जवाब सरकार की तरफ से आए हैं, हम उनसे सहमत नहीं।
सोशल मीडिया के
जानकार मित्र जिन्होंने इससे पैसा कमाया और सत्ताधारी पार्टी को फायदा पहुंचाया।
उन्होंने कहा कि सत्ताधारी पार्टी और उसके नेता की इमेज मैनेज की हुई थी, कुछ ऐसे लोगों द्वारा जिन्हें नियमित रुप से पेमेंट किया जाता है। लेकिन एक
ऐसे बड़े वर्ग के द्वारा भी जो सच में नरेंद्र मोदी को करिश्मे की तरह देखकर, देश के विकास की उम्मीद लगा रहे थे। इस मित्र ने माना कि काम नहीं हुआ। बातें
ज्यादा हुईं। और अब मैनेज की गयी इमेज की चमक फीकी पड़ रही है।
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