हमारी संवेदनाओं को कौन मार रहा है?
म्यांमार यानी बर्मा के रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर इन दिनों देश के अंदर एक बहस छिड़ गयी है। रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी की चर्चा इस बात के लिए ज्यादा नहीं हो रही है, कि वो अपनी जड़ों से उखड़े लोग हैं। और अपने घरों से बेघर होने के बाद बेहद परेशान, पीड़ित और दर्द से भरे लोग हैं। इन्हें गहरे जख्म लगे हैं। चर्चा इस बात की नहीं हो रही है कि रोहिंग्या शरणार्थियों के गहरे जख्मों पर इंसानियत का मरहम कैसे लगेगा?
शरणार्थियों को धर्म के चश्मे से देखने का खेल
अपनी जड़ों से कटे लाखों रोहिंग्या दूसरे देशों में पनाह की तलाश कर रहे हैं। लेकिन धर्म आड़े आ रहा है। रोहिंग्या शरणार्थियों को धर्म के चश्मे से देखा जा रहा है। इसकी इजाजत शरणार्थियों के लिए दुनियाभर में काम करने वाली ‘यूएन रिफ्यूजी एजेंसी’ यानी The United Nations High Commissioner for Refugees (UNHCR) भी नहीं देता है। The UN Refugee Agency के आर्टिकल 3 और आर्टिकल 4 इस बात पर जोर देते हैं कि किसी शरणार्थी के साथ धार्मिक, नस्लीय और उसके देश के आधार पर भेदभाव न किया जाए। इस संदर्भ में The UN Refugee Agency की उस टिप्पणी को जरुर पढ़ना और समझना चाहिए। जिसके आधार पर शरणार्थियों के साथ मानवीयता की अपेक्षा की गयी है।
रोहिंग्या शरणार्थी ज्यादा हैं, या मुसलमान ज्यादा ?
लेकिन इन दिनों मीडिया की बहसों में रोहिंग्या शरणार्थियों के मुद्दे को धर्म के खांचे में सिमटा दिया गया है। धर्म के भेदभाव की लकीर बिल्कुल साफ दिखाई देती है। सरकार से लेकर मीडिया तक रोहिंग्या को धर्म के नजरिए से देखा जा रहा है। रोहिंग्या के पक्ष और विपक्ष में खड़े ज्यादातर लोग भी धर्म के आधार पर ही विरोध या समर्थन करते दिखते हैं। यहां मानवीयता, इंसानियत का पक्ष पीछे चला गया है।
मीडिया परसेप्शन – और खत्म होती संवेदनाएं
सबसे पहले मीडिया की बात करना चाहूंगा। रोहिंग्या शरणार्थियों का मुद्दा जब गर्माया, तब मीडिया की हेडलाइन्स में रोहिंग्या शरणार्थी ही थे – तब हेडलाइंस थी “रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी” आगे पीछे की बातें जोड़ी और घटाई जा सकती हैं।
फिर एक दिन सरकार ने रोहिंग्या शरणार्थियों को देश के लिए खतरा माना। मीडिया ने रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थियों में से शरणार्थी शब्द को हटा दिया। अब मीडिया हेडलाइन्स बनाने लगा। “रोहिंग्या मुसलमान”
इस बीच मीडिया में रोहिंग्या को लेकर पूरा नैरेटिव बदला जा चुका था। रोहिंग्या को देश की सुरक्षा के सबसे बड़े खतरे के तौर पर पेश किया गया। जाहिर है देश के लिए खतरा हो, तो देशभक्ति और राष्ट्रवाद उफान मारेगा। ऐसे वक्त में मीडिया ने “रोहिंग्या” शब्द को राष्ट्र के खतरे से जोड़ दिया। नैरेटिव एकबार फिर बदला गया।
रोहिंग्या आतंकी हैं या मुसलमान या एक इंसान?
जिस बात ने मुझे ये सब लिखने के लिए मजबूर कर दिया। मीडिया की उन हेडलाइन्स को देखिए।
हेडलाइन 1: रोहिंग्या आतंकी देश के लिए खतरा
हेडलाइन 2: रोहिंग्या मुसलमानों से देश को खतरा
हेडलाइन 3: म्यांमार में हिदुओं पर रोहिंग्या का कहर
खबरों का नैरेटिव किस तरह और कितनी तेजी से बदला गया। इसके असर को समझिए। पहली हेडलाइन में “रोहिंग्या आतंकी” देश के लिए खतरा हैं। ये बात सच हो सकती है। कुछ रोहिंग्या आतंकी हैं, बिल्कुल सही है।
लेकिन दूसरी हेडलाइन में जब ये लिखा जाता है, “रोहिंग्या मुसलमानों” से देश को खतरा। तब क्या आप बारीक से फर्क को महसूस कर पाते हैं? इसको समझना जरुरी है। यहां पर हेडलाइन में “रोहिंग्या आतंकी” की जगह “रोहिंग्या मुसलमानों” ने ले ली है। और इस बात को समझिए कि अब आगे की रिपोर्ट्स में “रोहिंग्या आतंकी” की जगह “रोहिंग्या मुसलमान” ही लिखा जाएगा। और धीरे धीरे आप ये मान लेंगे कि “रोहिंग्या मुसलमान” आतंकी हैं। या फिर जितने रोहिंग्या आतंकी हैं, वो सारे के सारे मुसलमान हैं।
फिर तीसरी हेडलाइन को देखिए - “ म्यांमार में हिदुओं पर रोहिंग्या का कहर”
इसबार हिंदू मुसलमान की पुरानी दीवार को और चौड़ा कर दिया गया। ऐसा करने के करने वालों को कई फायदे हैं। एक सियासत ऐसी है, जो हिंदू मुसलमान के फर्क को उभार कर चमकती है। पहला सीधा फायदा ऐसी सियासत को ही है।
हिंदू मुसलमान का फर्क विवाद पैदा करता है। कंट्रोवर्सी मीडिया का पसंदीदा ‘डिश’ है। इससे मीडिया को टीआरपी मिलती है।
ऐसा करने से सरकार खुश होती है, मीडिया के मालिकानों और मैनेजमेंट को और क्या चाहिए?
हिंदू और मुसलमान का फर्क – सियासत को पसंद है
हिंदू और मुसलमान यानी धार्मिक विभेद को राजनीति और मीडिया मिलकर कैसे अपने फायदे के लिए उभार रहा है? एक और उदाहरण से समझिए।
कश्मीर में पिछले दिनों बीएसएफ के एक जवान मोहम्मद रमजान की उनके घर में घुसकर हत्या कर दी गयी। मोहम्मद रमजान कश्मीर के ही रहने वाले थे और छुट्टियों पर घर आए थे। मोहम्मद रमजान की हत्या के पीछे पुलिस के मुताबिक कश्मीर में ही आपरेट कर रहे आतंकी थे।
अब इस खबर के बरक्स मीडिया की हेडलाइन्स देखिए।
हेडलाइन 1: रमजान का कातिल ‘मुसलमान’ निकला
हेडलाइन 2: देशभक्त रमजान को ‘मुसलमान’ ने मारा
पहली नजर में आपको इन हेडलाइन्स में सब सही लगेगा। लेकिन थोड़ा ध्यान से देखेंगे, तो इसके असर को समझेंगे।
जवान मोहम्मद रमजान को कश्मीरी आतंकियों ने मारा था।
लेकिन मीडिया ने हेडलाइन बनाई - रमजान का कातिल ‘मुसलमान’ निकला
दूसरी हेडलाइन थी - देशभक्त रमजान को ‘मुसलमान’ ने मारा
मीडिया की हेडलाइन साफ साफ इशारा कर रही है कि मोहम्मद रमजान को आतंकी यानी मुसलमान ने मारा। मीडिया ने जो नैरेटिव पेश किया वो साफ है। कश्मीर के आतंकी मुसलमान हैं। और कश्मीर के मुसलमान आतंकी हैं।
मीडिया का ये इस्तेमाल इन दिनों तेजी से बढ़ रहा है। पहले ऐसा नहीं हुआ, ये कहना बुद्धिमानी नहीं है। किसी धर्म, कौम, खास समुदाय पर एक खास तरह का ठप्पा लगाने के लिए इसका इस्तेमाल सालों से हो रहा है। पंजाब में आतंकवाद के लंबे दौर में सारे सिखों ने इसे झेला। कश्मीर में आतंकवाद के अब तक चल रहे दौर में सारे कश्मीरी इसे झेल रहे हैं। छत्तीसगढ़, झारखंड और देश के कई दूसरे इलाकों में नक्सलियों के मामले में आदिवासियों को देखने का मीडिया का नजरिया भी इसी का एक उदाहरण है।
शरणार्थियों को लेकर UNHCR के कंवेशन को पढ़ना चाहिए
तो क्या अब भी रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थियों को सिर्फ मुसलमान मानना चाहिए। आप चाहें तो ऐसा कर सकते हैं। लेकिन एक नज़र 1951 के UNHCR – The UN Refugee Agency के कंवेशन पर डालते हैं। क्या कहता है ये?
Convention and protocol relating to the status of refugees
“Grounded in Article 14 of the Universal Declaration of human rights 1948, which recognizes the right of persons to seek asylum from persecution in other countries, the United Nations Convention relating to the Status of Refugees, adopted in 1951, is the centerpiece of international refugee protection today.
The Convention entered into force on 22 April 1954, and it has been subject to only one amendment in the form of a 1967 Protocol, which removed the geographic and temporal limits of the 1951 Convention.
The 1951 Convention, as a post-Second World War instrument, was originally limited in scope to persons fleeing events occurring before 1 January 1951 and within Europe. The 1967 Protocol removed these limitations and thus gave the Convention universal coverage. It has since been supplemented by refugee and subsidiary protection regimes in several regions, as well as via the progressive development of international human rights law.”
UNHCR – The UN Refugee Agency के कंवेशन में कई आर्टिकल्स में शरणार्थियों के लिए मानवीयता के आधार पर कुछ प्रावधान किए गए हैं। जिन्हें दुनिया के कई बड़े मुल्क मानते हैं।
Article 1 में Refugee की परिभाषा बताई गयी है।
Article 2: General obligations
· Every refugee has duties to the country in which he finds himself, which require in particular that he conform to its laws and regulations as well as to measures taken for the maintenance of public order
Article 3: Non-Discrimination
· The Contracting States shall apply the provisions of this Convention to refugees without discrimination as to race, religion or country of origin.
Article 4: Religion
· The Contracting States shall accord to refugees within their territories treatment at least as favorable as that accorded to their nationals with respect to freedom to practice their religion and freedom as regards the religious education of their children.
एक और अहम आर्टिकल है, जो काफी अहम है।
Article 16: Access to Courts
1. A refugee shall have free access to the courts of law on the territory of all Contracting States.
2. A refugee shall enjoy in the Contracting State in which he has his habitual residence the same treatment as a national in matters pertaining to access to the Courts, including legal assistance and exemption from cautio judicatum solvi.
यहां तक की Article 20, 21, 22, 23 और 24 में शरणार्थियों के लिए राशनिंग, हाउसिंग, शिक्षा, देश के नागरिक की तरह सरकारी मदद का प्रावधान है। आर्टिकल 24 में श्रम कानून और सोशल सिक्योरिटी को लेकर वही कानून शरणार्थियों पर लागू होते हैं, जो देश के नागरिक पर।
सवाल ये है कि हमारी संवेदनाएं, क्या मीडिया और सरकारों द्वारा पेश की गयी कहानी के आधार पर काम करेंगी? या फिर हम लगातार आगे बढ़ रही इंसानी सभ्यता से कुछ सीखेंगे?
तो अगली बार आपके सामने रोहिंग्या को कोई आतंकी कहे, तो किसी शरणार्थी के चेहरे के दर्द को समझने की कम से कम एक कोशिश जरुर कीजिएगा।
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