हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Sunday, March 8, 2009

मां है, वो भी

हज़ारों साल का इतिहास बताता है, कि औरतों को एक वस्तु ही समझा गया। मर्दों ने अपनी इच्छाओं के अनुरुप औरत की एक तस्वीर बनाई। और फिर औरत उसी रास्ते पर चल पड़ी। वो रास्ता कौन सा था ? वो रास्ता था, मर्दों को खुश करने का। मर्द जैसा कहता, औरत वही करती। ...... हज़ारों साल से ऐसा ही होता रहा है।.... और आज भी बदकिस्मती कहें, ये जारी है। जो मर्द के बताए रास्ते पर नहीं चलता तो फिर उसके लिए दूसरे रास्ते हैं... उनके पास। .......... मर्दों का सबसे बड़ा हथियार स्त्रियों के खिलाफ..... चरित्र हरण।

औरत के गर्भ में नौ महीने खून चूसने वाला शिशु... जब भी सोचने समझने के काबिल होता है..... सबसे पहले किस पर हमला करता है ? वो औरत ही होती है।

क्या प्रकृति ने मर्दों को औरत पर शासन करने के लिए ही तैयार किया होगा ? ये सवाल मेरे दिमाग में बार-बार आता है। और ऐसे मौकों पर तो और अधिक, जब हम महिला दिवस जैसे दिनों की बात करते हैं। .... घर की चौखट लांघते ही औरत की मुश्किलें क्यों बढ़ जाती हैं ? शायद मैं गलत हूं, मुश्किलें तो चौखट के अंदर भी कम नहीं।

घर से बाहर औरतों को क्या खतरा सबसे अधिक है ? पैसे का। जेवरों का। या फिर कोई क़त्ल कर देगा।........ शायद ही किसी औरत को इन बातों से डर लगता होगा। असल खतरा कुछ और ही है।.... थोड़ी देर पहले मर्द जिस औरत को घर छोड़ आया था, उसी औरत को अपना शिकार बनाने की ताक में क्यों रहता है, वो? जिसे थोड़ी देर पहले मर्द घर छोड़कर आया था, वो कौन थी ?............. वो मां थी, वो बहन थी, या फिर पत्नी होगी। ..... और ये जो बाहर है, वो कौन है..... मर्द इस सवाल के बारे में कब सोचेंगे ? ...... ये भी तो मां है, ये बहन है..... या फिर किसी की पत्नी.... प्रेयसी।

मैं अक्सर भीड़ भरी बसों में औरतों को जूझते देखता हूं। उन्हें ऑफिस पहुंचने की जल्दी है।.... जल्दी मर्दों को भी होती है।..... पर वो ठीक समय पर निकल पड़ते हैं।..... औरत के लिए ये मुश्किल भरा काम है।..... अगर वो मां है, तो और भी मुश्किल। मां को बच्चों के लिए भी नाश्ता जो बनाना होता है। फिर पति की फरमाईश भी कम तो नहीं होती। ..... बहन के लिए भी मुश्किल होती ही हैं, अगर नाश्ता बना है.... तो यही होता होगा, मां कहती होगी..... भाई लेट हो जाएगा.... उसे खानो दो पहले।

काम के मुश्किल घंटों से घर पहुंचने की जल्दी।.... कहीं पड़ोसी ये ना कह दें, कि ये औरत लेट आती है, ज़रुर कोई चक्कर होगा।...... ट्रैफिक की दिमाग खराब करने आवाज़ों के बीच औरत के दिमाग क्या चलता होगा ?.... कई बार सोचता हूं। शायद वो यही सोच रही है। घर जाकर सब्ज़ी कौन सी बनाऊंगी? .... अरे..... आज तो आलू, टमाटर भी खत्म हो गया। अब सब्ज़ी लेने जाना होगा।

ये मुश्किलें तो घर और ऑफिस की हैं। फिर बसों पर मिलने वाले ख़ास तरह के मर्दों से बचकर सही सलामत घर पहुंचना भी रोजाना की लड़ाई की हिस्सा है।
क्या एक शब्द में औरत को इन तमाम समस्याओं को झेलने के लिए शुक्रिया अदा कर सकता हूं ? शायद मैं उनका शुक्रिया अदा ही ना कर संकू। आज तो क्या ? शायद कभी नहीं।

बस एक शब्द...... तुम्हें नमन।

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3 Comments:

At March 8, 2009 at 6:42 PM , Blogger Kavita Vachaknavee said...

जितेन्द्र जी, बहुत अच्छा व व्यावहारिक लिखा है। निस्सन्देह आपके पास एक सम्वेदनशील व संस्कारी हृदय है.

इस सम्वेदना व भावना को बनाए रहें।

अभिव्यक्ति की सच्चाई के लिए शुभकामनाएँ।

 
At March 8, 2009 at 7:27 PM , Blogger Tarun said...

जितेन्द्र भाई, बहुत सही लिखा है, कडुवा सच शायद यही है। हमारी भी नमन

 
At March 8, 2009 at 11:03 PM , Blogger Kavita Vachaknavee said...

चाहें तो आज की चिठ्ठाचर्चा में अपने ब्लॊग का उल्लेख देखें।

 

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