शैतानों, रेप में धर्म की तलाश बंद करो !!
कठुआ की आसिफा न राम को जानती थी, न अल्लाह को। सात-आठ साल के किस
बच्चे में धर्म का आस्था जागती है भला? किसी आठ साल के बच्चे को कभी धर्म
की चौखट पर सिर रगड़ते देखा है? उम्र के साथ उसमें हिंदू और मुसलमां का रंग
भरा जाता है। धर्म के हरे और केसरिया रंग उसके जेहन में ठूस दिए जाते हैं।
मंदसौर की सात साल की बच्ची भी आसिफा जैसे दर्द से गुजरी है। दो दरिंदों ने मासूम बच्ची के साथ जो किया, उसे सुनकर ही रूह कांप उठती है। अगर इंसान हो, तो गुस्सा लाजिमी है।
बच्ची का नाम क्या है? ये न पूछिए। पर कुछ लोग कह रहे हैं कि सात साल की वो मासूम हिंदू है। अप्रैल में कठुआ की मासूम को जो सिर्फ आसिफा समझ रहे थे, जून में दर्द से भरे लगते हैं; और बच्ची हिंदू है, कहकर हंगामा उठा रहे हैं। इन्हें बच्ची से ज्यादा आरोपी के मजहब की चिंता है। हैवानों का नाम इरफान और आसिफ है, सो अच्छा मौका है कि धर्म की दुकानदारी कर ली जाए।
वो कौन सी कुंठा है? जो दूसरे के धर्म को गाली देने, नीचा दिखा देने से तृप्त होती है। अगर ऐसा ही है, और अगर यही सच है; तो क्यों न ऐसे धर्म को किसी अंधे कुएं में धकेल दिया जाए। पर मुझे लगता है, धर्म की किसी किताब में दूसरे धर्म के लिए गाली तो हरगिज न लिखी होगी।
कोई हैवान आसिफा के साथ हैवानियत करे, या गीता के साथ। क्या उस पल निकली उसकी चीख से कोई बता पाएगा, वो हिंदू है या मुसलमां? क्या बच्ची के चेहरे पर उभरे दर्द का किसी धर्म में कोई नाम है? क्या आंखों से रिसते आंसुओं को देखकर कह पाना मुमकिन होगा कि वो राम की औलाद है, या अल्लाह की?
जब मंदसौर की सड़कों पर लोग सात साल की बच्ची की सेहत की दुआ के साथ उतरे, तो उस भीड़ में राम भी था, और रहीम भी। सबने मिलकर बच्ची को इंसाफ दिलाने के लिए आवाज बुलंद की।
बहुत अच्छा किया मंदसौर के मुस्लिम भाईयों ने; उन्होंने हैवानों के नाम (इरफान और आसिफ) की परवाह नहीं की। कठुआ में जो गलती हुई, वो मंदसौर में नहीं दोहराई गई। कठुआ में आरोपियों के पक्ष में जुलूस निकालने का ख्याल मंदसौर के मुस्लिम भाईयों को नहीं आया, कितनी अच्छी बात है। कठुआ में वकील आरोपियों के समर्थन में नारे लगा रहे थे। मंदसौर में वकील आरोपियों के खिलाफ लामबंद हुए।
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उस आठ साल की आसिफा को अल्लाह और राम से कोई मतलब न था; उसे जंगलों में उछलना, कूदना और अपने घोड़ों के साथ हिनहिनाना भाता था। कभी कभार हम उम्रों के साथ छिपन-छिपाई, स्टैचू और पेड़ पर चढ़ जाना। एक बकरवाल की बेटी इससे उम्दा खेल खेलती भी, तो क्या खेलती?
पर दुनिया एक से बढ़कर एक खेल खेलती है। एक घिनौना खेल उस बच्ची के साथ जीते जी खेला गया। दूसरा घिनौना खेल उसकी मौत के बाद खेला गया। वो इन खेलों को न जीते जी समझी, न मरने के बाद। लोग तो उसके दर्द से भी खेलते रहे। किसी ने सिर्फ इसलिए उसके दर्द को समझा कि वो आसिफा थी। और किसी ने दर्द को समझा, पर नजरअंदाज कर दिया कि वो आसिफा थी।
मंदसौर की सात साल की बच्ची भी आसिफा जैसे दर्द से गुजरी है। दो दरिंदों ने मासूम बच्ची के साथ जो किया, उसे सुनकर ही रूह कांप उठती है। अगर इंसान हो, तो गुस्सा लाजिमी है।
बच्ची का नाम क्या है? ये न पूछिए। पर कुछ लोग कह रहे हैं कि सात साल की वो मासूम हिंदू है। अप्रैल में कठुआ की मासूम को जो सिर्फ आसिफा समझ रहे थे, जून में दर्द से भरे लगते हैं; और बच्ची हिंदू है, कहकर हंगामा उठा रहे हैं। इन्हें बच्ची से ज्यादा आरोपी के मजहब की चिंता है। हैवानों का नाम इरफान और आसिफ है, सो अच्छा मौका है कि धर्म की दुकानदारी कर ली जाए।
वो कौन सी कुंठा है? जो दूसरे के धर्म को गाली देने, नीचा दिखा देने से तृप्त होती है। अगर ऐसा ही है, और अगर यही सच है; तो क्यों न ऐसे धर्म को किसी अंधे कुएं में धकेल दिया जाए। पर मुझे लगता है, धर्म की किसी किताब में दूसरे धर्म के लिए गाली तो हरगिज न लिखी होगी।
कोई हैवान आसिफा के साथ हैवानियत करे, या गीता के साथ। क्या उस पल निकली उसकी चीख से कोई बता पाएगा, वो हिंदू है या मुसलमां? क्या बच्ची के चेहरे पर उभरे दर्द का किसी धर्म में कोई नाम है? क्या आंखों से रिसते आंसुओं को देखकर कह पाना मुमकिन होगा कि वो राम की औलाद है, या अल्लाह की?
पर सारे लोग ऐसे नहीं होते। आसिफा हो या गीता। शबनम हो या शालिनी। बहुत सारे लोग हैं, जो नाम में फर्क नहीं करते। मंदसौर में कुछ लोगों की कोशिश नाकाम हुई न? वो ऐसे ही लोगों की बदौलत है।मासूम बच्ची से रेप हो; और समाज का कोई हिस्सा ये कहने लगे, आसिफा को न्याय के लिए तो खूब नारे लगाए थे; अब मंदसौर के मामले में कहां हो? और इस सवाल के इर्द-गिर्द धर्मनिरपेक्षता, बुद्धिजीवी जैसे शब्दों को जबरन ठूंस दिया जाए। तो इस सवाल के पीछे छिपी मंशा और पूछने वाले की भावना को समझने की कोशिश कीजिए। समझिए, सवाल उठा रहे शख्स के दिमाग में हरे और केसरिया रंग की छाप गहरी है। तो माफ कीजिए, ऐसे लोगों को। धर्मनिरपेक्षता और बुद्धिजीवी पर उंगली उठाकर वो पहले ही इशारा दे चुके हैं कि वो ‘एक सड़े धर्म’ के दलदल में गहरे धंसे हैं; और उनका बुद्धिजीवी पर सवाल उठाना साबित करता है कि उनकी बुद्धि से गहरी जंग है।
जब मंदसौर की सड़कों पर लोग सात साल की बच्ची की सेहत की दुआ के साथ उतरे, तो उस भीड़ में राम भी था, और रहीम भी। सबने मिलकर बच्ची को इंसाफ दिलाने के लिए आवाज बुलंद की।
बहुत अच्छा किया मंदसौर के मुस्लिम भाईयों ने; उन्होंने हैवानों के नाम (इरफान और आसिफ) की परवाह नहीं की। कठुआ में जो गलती हुई, वो मंदसौर में नहीं दोहराई गई। कठुआ में आरोपियों के पक्ष में जुलूस निकालने का ख्याल मंदसौर के मुस्लिम भाईयों को नहीं आया, कितनी अच्छी बात है। कठुआ में वकील आरोपियों के समर्थन में नारे लगा रहे थे। मंदसौर में वकील आरोपियों के खिलाफ लामबंद हुए।
तो एकबार फिर उस सवाल पर लौटते हैं; जिसमें समाज का कोई हिस्सा ये कहता है। आसिफा को न्याय के लिए तो खूब नारे लगाए थे; अब मंदसौर के मामले में कहां हो? तो मेरे दोस्त कठुआ और मंदसौर के इस फर्क को समझिए। कठुआ में एक भीड़ आरोपियों के साथ खड़ी थी; मर चुकी बच्ची का परिवार अकेला खड़ा था। मंदसौर में आरोपी अकेले खड़े हैं; भीड़ बच्ची के साथ एकजुट है। बुद्धिजीवियों से आप बहुत खार खाते हो, पर थोड़ी बुद्धि का इस्तेमाल करना। बुद्धि का इस्तेमाल न कर सको, तो मां के पहलू पर जाना और मां से पूछना। मां सही बात कौन सी है?सबसे अच्छा काम तो मंदसौर के शहर काजी और अंजुमन सदर ने किया। उन्हें सलाम फरमाया जाए। मंदसौर से शहर काजी आसिफ उल्लाह और अंजुमन सदर यूनुस शेख बच्ची के साथ खड़े हुए; इन दोनों ने आरोपी इरफान और आसिफ को लानतें भेजी। शहर काजी ने फतवा जारी किया कि आरोपियों को शरियत के मुताबिक फांसी दी जाए। अंजुमन सदर ने ऐलान कर दिया कि ऐसे दरिंदों को कब्रिस्तान में भी जगह नहीं दी जाएगी।
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