हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Saturday, April 11, 2009

पहाड़

पहाड़ / जब भी धूसर से नज़र आते हैं
सोचता हूं / किसने किया ये सब ?
किसने काटे पेड़ ?
किसने हिलाए पहाड़ ?
किसने मोड़ दिए नदियों के रास्ते ?

एक दिन में नहीं हुआ / ये सब
सबने थोड़ा-थोड़ा कुरेदा है इनको
फिर दरक गए पहाड़
जहां कभी हरियाली थी
आज धूसर उदासी है
फूल नहीं हैं / वहां पर ।।



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4 Comments:

At April 11, 2009 at 8:30 AM , Blogger डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

पहाड़ एक आलम्बन है,
मानवता के लिए और प्राणि-जगत के लिए।
यदि पहाड़ न हों तो जगत का वजूद खत्म हो जायेगा।
सारी दुनिया बीमार नजर आयेगी।
कम शब्दों में आपने
लोटे में समन्दर समा दिया है।
बधाई।

 
At April 11, 2009 at 10:37 AM , Blogger Prakash Badal said...

वाह भट्ट साहब पहाड़ का अच्छा प्रयोग पहाड़ का दर्द बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया है।

 
At April 11, 2009 at 10:58 AM , Blogger परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सही रचना है।बधाई।

 
At April 12, 2009 at 10:13 PM , Blogger दर्पण साह said...

Dajyu Bahute Sundar Likhcha Apu..

----------Prachi Ke Paar-----------

 

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