हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Wednesday, April 22, 2009

पहले था ढेर सारा अकेलापन (.)

पहले था ढेर सारा अकेलापन (.)
जैसे एक बंद कमरा हो
और मैं उसमें क़ैद हूं
और मेरे होठों पर
किसी ने रख दी है चुप की उंगली ।।

ऐसा नहीं था
कि मैं बोल नहीं सकता था
पर वहां था ही नहीं कोई
मेरे इर्द-गिर्द कोई अपना सा
बार-बार कुछ शब्द गले से उतरकर
होठों के दरवाज़े तक आते थे
पर फिर उस दरवाज़े को बंद पाकर
उदास से होते ।।

ऐसे ही एक दिन... दो दिन
और कई दिन गुजरे
फिर इन्ही गुजरे दिनों में से एक दिन
तुम आई थी
जैसे समंदर में आकर एक और बूंद मिल गयी
मेरी ढेर सारी तनहाई को बिना छेड़े
तुमने दस्तक दी थी
और जैसे सालों से क़ैद मैं
रिहाई मिल गयी ।।

पर फिर वही दिन लौटे हैं
मैं, मेरा वही कमरा
मैं उसमें क़ैद हूं
होठ फिर बंद हैं
शब्दों के पैरों पर जंज़ीर पड़ी है
मैं बोल नहीं सकता ।।

फिर इंतज़ार है....
किसी दिन तुम आओगी
और मुझे / मेरी क़ैद से मिलेगी रिहाई
मुझे / मेरी क़ैद से मिलेगी रिहाई ।।

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4 Comments:

At April 22, 2009 at 9:31 AM , Blogger परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत भाव पूर्ण रचना है।बधाई।

 
At April 22, 2009 at 11:40 AM , Blogger संगीता पुरी said...

अच्‍छी रचना .. बधाई।

 
At April 22, 2009 at 11:46 AM , Blogger Udan Tashtari said...

मनोभावों की सुन्दर अभिव्यक्ति!!

 
At April 22, 2009 at 1:38 PM , Blogger अनिल कान्त said...

मन के भावों को आपने बखूबी उकेरा है ....बहुत खूब

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

 

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