हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Sunday, September 8, 2024

अस्कोट आराकोट अभियान, मेरी यात्रा के उन्नीस दिन

यात्राएं मजेदार होती हैं, इन्हें लेकर हमारी यही सबसे सरल और सामान्य समझ है। ज्यादातर लोग यात्राएं मजे के लिए करते हैं, इसमें कोई बुराई भी नहीं है।

पर रास्ते हमेशा फोर लेन का हाईवे नहीं होते, आपकी कार हमेशा सौ की स्पीड पर नहीं भाग सकती। कई बार अनचाहे ब्रेक लगाने पड़ते हैं। 

Balan Gaon, Chamoli; Photo By - Jitendra Bhatt

कुछ रास्ते धारचूला से पांगू की तरफ जाने वाली सड़क की तरह होते हैं। तवाघाट से आगे की तरफ ठाणीधार की तरफ बन रही नई सड़क से जब आपकी टैक्सी गुजरती है; और आप अंदर बैठे खाई की तरफ देखते रहते हैं। उस वक्त कई बुरे ख्याल मन को आशंकाओं से भर देते हैं।

कुछ रास्ते चमोली जिले के सुदूरवर्ती इलाके वाण से देवाल की तरफ जाने वाली सड़क जैसे होते हैं। जहां चालीस किलोमीटर का सफर तय करने में तीन से चार घंटे लग जाते हैं। जब बस इन सड़कों पर रेंगती है, तो ऐसे लगता है; कभी भी किसी बड़ी चट्टान से टकरा जाएगी। अगर आप उस बस के यात्री हो, तो आप यात्रा खत्म होने तक किसी अनहोनी की आशंका से सिहरते रहेंगे।

vedini Bugyal, Chamoli; Photo By - Jitendra Bhatt

यात्रा में कुछ मौके ऐसे भी आते हैं, जब आप चाहकर भी आगे नहीं बढ़ पाते। हर बढ़ाए गए कदम के साथ आपको यही लगता रहता है कि कहीं रास्ता गुमराह न कर दे। नामिक से लाहुर की तरफ जाते वक्त रास्ते जंगल में गुम हो गए थे। कहां जाएं? किस तरफ कदम बढ़ाएं? सूझता ही नहीं था।

यही वो बात है, जो यात्राओं को रोचक और रोमांचक बनाती हैं। आपको पता नहीं होता कि अगले मोड़ पर क्या बीतने वाला है। पर यात्री को अनचाहे लम्हों से प्रभावित हुए बिना आगे बढ़ना पड़ता है।

जब बात अस्कोट आराकोट अभियान की हो, तो आप घटनाओं से प्रभावित होकर अपने कदम रोक नहीं सकते। तारीख और समय निर्धारित था, हर पड़ाव का दिन तय था; और अभियान में इसका पालन अनिवार्य है, क्योंकि ऐसा नहीं होने पर पूरा कार्यक्रम बिगड़ जाता। ऐसे हालात में 45 दिन चलकर आराकोट पहुंचने के लिए 8 जुलाई की जो तारीख तय की गई थी, उसे पूरा करना मुश्किल हो जाता।

यही वो बात थी, जिसके चलते यात्रियों को एक निश्चित चाल से खुद को आगे की तरफ खींचना पड़ता था। कई बार मन बैठने का कर जाता; पर जब कुछ साथी आगे निकल जाते, तो फिर चलना जरूरी हो जाता।

यात्रा, जीवन हैं। जीवन एक यात्रा है।

यात्रा यही सिखाती है। मैंने इस यात्रा से यही सीखा। इसे अनुभव कर लिया।

मेरे अस्कोट आराकोट अभियान की शुरुआत

वो तारीख थी, 23 मई।

दिन बृहस्पतिवार और साल 2024।

अस्कोट आराकोट अभियान 2024 का मेरा सफर 23 मई की सुबह आठ बजे नैनीताल जिले के काठगोदाम से शुरू हुआ। इस दिन हम यात्रा की शुरुआत वाली जगह पांगू के लिए रवाना हुए थे।

10 जून को चमोली जिले के वाण गांव में मैंने अभियान दल के साथियों से विदा ली। मैं उन्नीस दिन पैदल रास्तों पर चला। मैं इन उन्नीस दिन अभियान दल के दूसरे साथियों के साथ नैनीताल, चंपावत, पिथौरागढ और बागेश्वर होते हुए चमोली जिले में पहुंच गया।

इन उन्नीस दिनों में कई ऐसे यादगार पल रहे, जो किस्सों की शक्ल में दिमाग में धंस गए हैं।

अस्कोट अराकोट अभियान में अपने हिस्से के तीन हफ्ते के दौरान कुछ बातें बहुत साफ नजर आई। पिथौरागढ़ के सीमावर्ती गांव पांगू से लेकर चमोली के सुदूर गांव वाण तक कदम दर कदम स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, संचार और रोजगार की खस्ता हालत दिखती रही।

सुदूर इलाकों में सड़कों का बुरा हाल

24 मई को हम पिथौरागढ़ से पांगू के लिए निकले। अगले दिन यानी 25 मई को पांगू से अस्कोट आराकोट अभियान की औपचारिक शुरुआत होनी थी।

धारचूला से पांगू की सड़क दूरी करीब 45 किलोमीटर है, पर गड्ढों से भरी सड़क को पार करने में तीन घंटे से ज्यादा वक्त लग जाता है। सड़क के ज्यादातर हिस्से की हालत ये है कि उसपर छोटी कार चलाना खतरनाक महसूस होता है। जबकि पांगू और आगे की तरफ नारायण आश्रम पर्यटन की संभावनाओं से भरा हुआ है।

यही स्थिति देवाल से वाण जाने वाली सड़क की भी है। देवाल से वाण की सड़क से दूरी करीब 40 किलोमीटर है। ये बेदिनी और आली बुग्याल का मुख्य रूट है। लेकिन 40 किलोमीटर की दूरी बस से तय करने में तीन घंटे लग जाते हैं। सुबह साढ़े पांच बजे वाण से चलने वाली बस देवाल पहुंचाती है सुबह करीब साढ़े आठ बजे। कभी-कभी नौ बजे।

जब आप सुबह के वक्त बस में सवार होकर देवाल की तरफ बढ़ते हैं, तो सड़क हर मोड़ पर डराती रहती है। कई मोड़ ऐसे हैं, जहां ड्राईवर को बस मोड़ने के लिए कम से कम दो बार बैक करना पड़ता है। इस तरह जो सफर घंटा डेढ़ घंटे में तय किया जा सकता था, उसे पूरा करने में दोगुना वक्त लग जाता है।

वाण के स्थानीय लोगों से बात करें, तो समस्याओं की लिस्ट में सड़क पहले नंबर पर है। बेरोजगारी और पवित्र बुग्याल पर मंडराता संकट भी इस लिस्ट में शामिल हैं।

वाण के स्थानीय लोगों का कहना है कि सड़क की जो हालत है, वो कभी भी बड़े हादसे की वजह बन सकती है। वाण के सामाजिक कार्यकर्ता हीरा सिंह पहाड़ी बताते हैं कि देवाल से वाण तक सड़क की मरम्मत पिछली बार 2014 में तब हुई थी, जब यहां विश्व प्रसिद्ध नंदा राजजात यात्रा निकली थी। नंदा राजजात यात्रा खत्म हुई, तो सरकार और प्रशासन ने वाण से मुंह फेर लिया।

नंदा राजजात यात्रा हर बारह साल में होती है। अगली नंदा राजजात यात्रा 2026 में होगी। हीरा सिंह पहाड़ी नाराजगी भरे स्वर में कहते हैं कि लगता है 2026 से पहले हमारी सड़क का उद्धार नहीं होगा।

पहाड़ पर अभी भी पहाड़ सा जीवन

जब आप पहाड़ी रास्तों पर चलते-चलते थककर पस्त पड़ते हैं, तब अहसास होता है कि अस्कोट आराकोट अभियान मजे करने या पर्यटन के लिए नहीं है। यह गांव और वहां रहने वाले लोगों की दिक्कतों को समझने की प्रक्रिया है।

अस्कोट आराकोट अभियान के चौथे दिन 28 मई को यात्री दल नारायणनगर से बरम के लिए निकला। करीब 25 किलोमीटर के इस पैदल रास्ते में अस्कोट, गर्जिया धार, गर्जिया और बलमरा पड़ते हैं।

ऐतिहासिक कस्बे अस्कोट से आगे की तरफ करीब चार किलोमीटर उतार वाले रास्ते पर एक से डेढ़ घंटा चलने के बाद गर्जिया धार आता है। ये दस बारह परिवारों वाली छोटी सी तोक है। यहां रास्ते के बिल्कुल बगल में भंडारी परिवार रहता है।

आवाज देने पर घर की मालकिन हंसी देवी और उनके बच्चे बाहर आ गए। बातचीत का सिलसिसा शुरू हुआ, तो पता चला कि बेटे योगेश ने बारहवीं की परीक्षा दी है। वो सेना में भर्ती होना चाहता है। हालांकि सेना में भर्ती की नई योजना ‘अग्निवीर’ से योगेश के मन में थोड़ी निराशा दिखी, लेकिन इसके अलावा कोई और रास्ता उसे नजर नहीं आता।

बेटी हिमानी बीए तीसरे वर्ष की छात्रा है। वो नारायणनगर डिग्री कॉलेज में पढ़ती है। जिसके लिए पहले अस्कोट तीन से चार किलोमीटर पैदल चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। फिर अगर कोई टैक्सी मिल जाए, तो नारायणनगर तक सड़क के रास्ते जाते हैं। “अगर टैक्सी ना मिले, तो?” हिमानी के चेहरे पर निराशा का भाव था। “तब पैदल ही जाना पड़ता है”, जवाब मिला।

मां हंसी देवी ने कहा, “स्कूल, बैंक, पोस्ट ऑफिस, राशन या फिर प्राथमिक अस्पताल हर जरूरी काम के लिए तीन किलोमीटर पैदल अस्कोट जाना पड़ता है।“

रोजगार के साधन क्या हैं? घर परिवार कैसे चलता है? मैंने सवाल पूछा, तो हंसी देवी ने बताया, “सब खेती पर निर्भर है, लेकिन खेती बारिश पर टिकी है। ऊपर से जंगली सुअर और बंदर फसल तबाह कर जाते हैं।“ उनका कहना था, जंगली सुअर और बंदर खेती के लिए सबसे बड़ी समस्या बन गए हैं।

2024 में भी गर्जिया गांव के बच्चों को स्कूल के लिए रोजाना अस्कोट आना पड़ता है। हिसाब लगाकर देखिए, बच्चे रोजाना सात से आठ किलोमीटर स्कूल बैग पीठ पर लटकाए, पहाड़ी रास्तों पर दौड़ते हैं। अगर कोई बीमार पड़ जाए, तो प्राथमिक चिकित्सालय के लिए क्या करना होता होगा? इसकी कल्पना डरा देती है। गांव के लोगों को पोस्ट ऑफिस, बैंक और छोटे मोटे सामान के लिए भी जूझना पड़ता है।

उत्तराखंड में स्वास्थ्य सेवाओं का बुरा हाल

30 मई 2024। अस्कोट आराकोट यात्रा का छठा दिन था।

रात कनार गोगोई गांव में बीती। सुबह नाश्ता करने के बाद यात्री दल

छोरीबगड़ के लिए निकला। बरम पहुंचते-पहुंचते धूप सिर पर आ गई थी। ये काफी गरम दिन था।

बरम पहुंचने के बाद हमें पूरे दिन एक घाटी में चलना पड़ा। गोरी नदी पूरे दिन हमारे साथ बहती रही। बरम से सेरा तक के रास्ते में गोरी नदी सड़क के समांतर बहती है।

कनार गोगोई से बरम पहुंचने में करीब एक घंटा लगा। बरम में स्थानीय लोगों के साथ बातचीत शुरू हुई। बरम गांव के भूपेंद्र सिंह परिहार जो प्रधान पति हैं, उन्होंने बताया कि पूरे इलाके की सबसे बड़ी समस्या स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार और सड़क को लेकर है।

बरम गोरी नदी के पास घाटी का इलाका है। यहां खेती बाड़ी अच्छी होती है, लेकिन सिंचाई की उचित व्यवस्था की कमी से किसानों को फसलों का सही उत्पादन नहीं मिल पाता। बंदर भी किसानों के लिए समस्या पैदा कर रहे हैं। बंदरों के झुंड खड़ी फसल को बर्बाद कर देते हैं। खासतौर से फलों को।

इन दिक्कतों के बावजूद बरम और आसपास के गांवों के किसान खेती में आधुनिक मशीनों का इस्तेमाल कर रहे हैं। भूपेंद्र सिंह परिहार ने बताया कि हाल के वर्षों में 29 किसान छोटे ट्रैक्टर की मदद से खेती कर रहे हैं। 

बरम गांव के नौजवान निवासी मनीष सिंह परिहार ने स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली की बात बताई। मनीष सिंह परिहार का कहना है कि उनके दादा एक जमाने में बरम गांव के प्रधान हुआ करते थे, उन्होंने गांव में आयुर्वेदिक अस्पताल खोलने के लिए जमीन दान की थी। इस जमीन पर चार बेड का एक आयुर्वेदिक अस्पताल बना भी था, लेकिन चालीस पचास साल बाद अब अस्पताल की हालत जर्जर है। गांववालों ने बताया कि अस्पताल की छत से पानी टपकता है।  अस्पताल में डॉक्टरों की भी कमी है। सिर्फ एक डॉक्टर और एक नर्स से काम चल रहा है। गांववालों ने बताया कि कोई इमरजेंसी होने पर बीमार को पिथौरागढ़ ले जाना पड़ता है। हालांकि गांव में एक एएनएम सेंटर है, जिसकी गांववाले तारीफ करते रहे।

अस्कोट आराकोट अभियान के दौरान एक बात साफतौर से नजर आई। आप जैसे-जैसे पहाड़ों के सुदूर इलाकों की तरफ जाएंगे, स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति उतनी ही खराब दिखेगी।

सड़कों ने गांवों को जोड़ा, पहाड़ों को खोद दिया है

अस्कोट आराकोट अभियान के दौरान हर इलाके में एक बात देखने को मिली। सड़क बनाने के लिए पहाड़ों का बेतरतीब और अनियंत्रित कटान चल रहा है।

Badiyakot to Borblada Road; Photo By - Jitendra Bhatt

धारचूला से पांगू के बीच बन रही सड़क का मलबा बगल में बह रही काली नदी में गिराया जा रहा था। यही हाल धौलीगंगा प्रोजेक्ट के आसपास के इलाकों का है। इस कटान ने पहाड़ों को खोखला कर दिया है।

नामिक ग्लेशियर और पूर्वी रामगंगा नदी के आसपास के इलाकों की भी यही स्थिति दिखी। दो जून को जब अस्कोट आराकोट अभियान का दल नामिक गांव से कीमू की तरफ बढ़ रहा था, तब अचानक विस्फोटकों की तेज आवाज सुनाई देने लगी। पहले लगा कि ये लैंडस्लाइड होगा। ध्यान से देखने पर पता चला कि पहाड़ों को विस्फोटक लगाकर तोड़ा जा रहा था।

बड़ी-बड़ी जेसीबी मशीनों से पहाड़ के टूटे मलबे को नीचे के जंगलों में धकेलना का काम चल रहा था। साफ-साफ दिखा कि मलबे के नीचे आने से हजारों पेड़ दब गए हैं। यही मलबा बारिश के पानी के साथ बहकर पूर्वी रामगंगा में आ जाता है। 

बदियाकोट के दूनी विनायक से समदर की यात्रा

छह जून को जब यात्री दल बदियाकोट से आगे की तरफ बढ़ा। तब भी सड़क निर्माण के विनाशकारी दृश्य दिखते रहे।

दूनी विनायक के बाद का पैदल रास्ता नई बन रही सड़क के मलबे ने बर्बाद कर दिया है। पुराने पैदल रास्ते अब दिखते नहीं, इसलिए दूनी विनायक से बोरबलड़ा का ज्यादातर रास्ता नई खुदी सड़क पर ही चलना पड़ा।

बदियाकोट से बोरबलड़ा के बीच सड़क बनाने का काम चल रहा था। पहाड़ों को पहले ही काटा जा चुका था। मजदूर सड़क बनाने के काम में लगे थे। रोड रोलर लगातार कोलतार में मिली गिट्टी दबा रहे थे। ट्रैक्टर ट्रॉली से माल की ढुलाई हो रही थी। सड़क पर चलते हुए डीजल और कोलतार की गंध नाक में जाती रही।

इस पूरे रास्ते का वर्णन आप दो तरीके से कर सकते हैं। पहला, सड़क बन रही है, अब लोगों को सुविधा होगी, उन्हें पैदल नहीं चलना होगा। और दूसरा, इस सड़क ने हजारों बड़े पेड़ों को मार दिया है।

अगर आप देखना चाहें, या यूं कहें कि आप देख सकें; तो इन पेड़ों की लाशें, पूरे रास्ते नजर आएंगी। विशालकाय पेड़ मिट्टी के मलबे में दबे नजर आते हैं। सड़क बनने की कीमत शायद इन्हीं पेड़ों से वसूली गई है।

जंगलों के प्रति संवेदनशीलता सरकारों में कभी नहीं रही। ना जन प्रतिनिधियों को जंगल का सवाल परेशान करता है। ठेकेदार तो मुनाफे के लिए काम करते हैं, सो उनसे इसकी कल्पना ही बेकार है।

इस रास्ते पर चलते हुए, कटे पेड़ों को देखकर कुछ बातें मन को कचोटती रही। मैं खुद से सवाल पूछता रहा कि क्या इन पेड़ों की काटे जाने का अहसास स्थानीय लोगों को भी नहीं हुआ?

पहाड़ों को काटकर सड़कें बनाने का काम कई गांवों में हो रहा है। इसका एक पहलू सकारात्मक है। उन गांवों तक शहरों की पहुंच हो रही है, जहां जाने के लिए लोगों को पूरा दिन पैदल चलना पड़ता था। स्कूल जाने के लिए कई घंटे पसीना बहाना पड़ता था। किसी बीमार को इलाज के लिए डोली में बिठाकर घंटों चलना पड़ता था।

इसी के साथ इन बन रही सड़कों के बगल से गुजरते हुए आप महसूस करने लगेंगे कि ये सड़कें पहाड़ों को खोखला कर रही हैं। फिर मन में सवाल आता है कि क्या सड़कों के निर्माण का कोई दूसरा रास्ता हो सकता है? ऐसा रास्ता जो हमारे जंगलों को कम से कम नुकसान पहुंचाए।

सवाल मन में ये भी आया कि क्या दुनिया के विकसित मुल्कों में भी सड़क के नाम पर जंगलों की इस तरह बेकद्री होती है?

विकास बनाम पर्यावरण, सुदूर समदर गांव को क्या चाहिए?

विकास बनाम पर्यावरण, एक ऐसा जटिल सवाल है, जिसका सही-सही जवाब किसी शहर में बैठकर नहीं दिया जा सकता। ऐसे सवालों का जवाब समदर और बोरबलड़ा जैसे दूरदराज के इलाकों में ही मिल सकता है।

समदर तक नई सड़क आई है, जो कुछ बदलाव भी लाई है। समदर गांव के मुहाने पर सड़क के बगल में कुछ गांववालों ने चाय की दुकानें खोल ली हैं। यहां चाय पीते-पीते स्थानीय लोगों से बातचीत शुरू हुई।

लोगों ने बताया कि जरुरी सामान के लिए या किसी इमरजेंसी में सबसे नजदीक बड़ा बाजार कर्मी है। जहां जाने के लिए टैक्सी वाले सात सौ रुपये लेते हैं।

क्या सरकारी बस की व्यवस्था नहीं है? जवाब निराशाजनक ही रहा। अगर किसी की तबियत बिगड़ जाए, तो लोग कहां ले जाते हैं? जवाब मिला। इमरजेंसी में बागेश्वर जाना पड़ता है। समदर से बागेश्वर जाने के लिए टैक्सी वाला एक हजार रुपये लेता है।

ये भी एक विडंबना ही है कि बागेश्वर तो बीमार पहुंच जाएगा। पर वहां इलाज मिलेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। ऐसी स्थिति में बीमार को हल्द्वानी लाना होगा, यानी कम से कम पांच सौ से एक हजार रुपये और खर्च करने पड़ेंगे।

अगर समदर या बोरबलड़ा से किसी गांववाले को इमरजेंसी की स्थिति में इलाज के लिए हल्द्वानी आना पड़े, तो उसे डेढ़ से दो हजार रुपये खर्च करने होंगे।

सवाल ये है कि फिर सड़क बनने का क्या फायदा हुआ? गांववालों ने बताया कि पहले बीमार को डोली में बिठाकर सड़क तक लाने में चार घंटे लग जाते थे। अब सड़क गांव से निकली है, तो ये वक्त बच रहा है। यानी बीमार की जान बच रही है।

कुल मिलाकर बदियाकोट से बोरबलड़ा की तरफ बन रही सड़क इसके आसपास के गांववालों के लिए बहुत बड़ी सहुलियत है।

पर्यटन को लेकर समग्र नीति नहीं दिखती

अस्कोट आराकोट अभियान की शुरुआत पिथौरागढ़ के सीमावर्ती गांव पांगू से होती है। पांगू प्राकृति की सुंदर नजारों से भरपूर गांव है, लेकिन मई के टूरिस्ट सीजन में भी धारचूला से आगे का रास्ता धूल भरे गड्ढों से भरा मिला। यह हाल तब है जबकि यह आदि कैलाश जाने का रूट है।

पांगू गांव के लोगों की शिकायत है कि आदि कैलाश के लिए सड़क बनने के बाद इलाके में सिर्फ एक काम बढ़ा है। टैक्सी चलाने का काम।

यही हाल नामिक और चमोली के वाण का भी है। नामिक गांव नामिक ग्लेशियर जाने वाले ट्रैकिंग रूट पर है। हर साल हजारों ट्रैकर और सैलानी यहां आते हैं। ट्रैकिंग का यह धंधा करोड़ों रुपए का है। पर इसका बहुत छोटा हिस्सा ही स्थानीय लोगों को मिल पा रहा है।

चमोली जिले के सुदूर गांव वाण में भी यही दिखा। वाण से बेदिनी बुग्याल के लिए 13 किलोमीटर का ट्रैक शुरू होता है। पर वाण में सैलानियों के लिए सुविधाएं विकसित नहीं हो पाई हैं। वाण गांव से बेदिनी बुग्याल और आली बुग्याल तक ट्रैकिंग का पूरा काम बड़ी कंपनियों के कब्जे में है। 

चाहे नामिक हो या फिर वाण, दोनों ही गांव में एक बात देखने को मिली कि ट्रैकिंग के बड़े कारोबार में स्थानीय लोगों की हिस्सेदारी बहुत छोटी है। स्थानीय लोगों के हिस्से में सामान ढोने का काम ही आया है। ट्रैकिंग गाइड हों, या दूसरे बड़े काम ये सब बाहर की ट्रैकिंग कंपनियां कर रही हैं। यहां तक कि खाने पीने का सामान भी ट्रैकिंग कंपनियां बाहर से लेकर आती हैं, यानी स्थानीय रेस्टोरैंट के लिए यहां भी कमाई के सीमित अवसर हैं।

प्रकृति के मखमली कालीन पर संकट के बादल

पूरी यात्रा के दौरान स्थानीय लोगों से बातचीत करते हुए एक बात बार-बार उभरकर आई कि पर्यटन को लेकर सरकार की नीति न पहाड़ों के मुफीद है, और न ही स्थानीय लोगों के। पर्यटन नीति में लोक संस्कृति, स्थानीय संसाधन, जल-जंगल-जमीन और गांव कस्बों को बचाकर विकसित करने का कोई लक्ष्य नहीं है।

सरकार पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए करोड़ों के बजट और योजनाओं का दावा करती है। पर हकीकत यही है कि सरकार की नीति और योजनाओं का असर सुदूर इलाकों में नहीं दिख रहा है।

प्राकृतिक जल स्रोत, जंगल, झरने, गधेरे और पुराने रास्ते कैसे बचेंगे? इसकी तरफ सरकार और प्रशासन का ध्यान नहीं है।

10 जून को अपनी यात्रा के आखिरी दिन मैं चमोली जिले के वाण गांव से बेदिनी बुग्याल के लिए निकला। बेदिनी बुग्याल उत्तराखंड के सबसे बड़े बुग्यालों में से एक है। देश ही नहीं दुनियाभर से सैलानी बेदिनी और आली बुग्याल देखने आते हैं।

वाण से तेरह किलोमीटर की दूरी पर स्थित बेदिनी बुग्याल की हालत देखकर बहुत दुख हुआ। बेदिनी बुग्याल दर्जनों जगह धंस रहा है। इस धंसने की प्रक्रिया में बेदिनी बुग्याल की मखमली घास को जबरदस्त नुकसान पहुंचा है।

वन विभाग की तरफ से इस धंसाव को रोकने के लिए रस्सी के जाल लगाए गए हैं, लेकिन ये खूबसूरत बेदिनी बुग्याल पर एक धब्बे जैसा दिखता है।

मेरे साथ गाइड के तौर पर बेदिनी बुग्याल आए वाण के सामाजिक कार्यकर्ता हीरा सिंह पहाड़ी बुग्याल में धंसाव के लिए वन विभाग की लापरवाही के साथ-साथ स्थानीय लोगों को भी जिम्मेदार बताते हैं। हीरा सिंह पहाड़ी का कहना है कि स्थानीय लोग ही अपने जानवरों को बुग्यालों में छोड़ दिया करते थे, जानवरों के खुरों से मखमली घास को भारी नुकसान पहुंचा।

हालांकि 2018 के उत्तराखंड हाईकोर्ट के फैसले के बाद बेदिनी बुग्याल में जानवरों की आवाजाही पर रोक है, साथ ही पर्यटकों के बुग्याल में रात में रुकने की भी मनाही है। लेकिन लापरवाही के चलते बेदिनी बुग्याल को जो चोट पहुंची है, उसके जख्म अभी भी दिखते हैं।

सिर्फ बेदिनी बुग्याल की बात नहीं है। कम मशहूर बुग्यालों पर भी गहरा संकट मंडरा रहा है। बदियाकोट से बोरबलड़ा तक करीब 25 किलोमीटर लंबी सड़क ने जंगलों और बुग्यालों का बुरा हाल किया है।

बदियाकोट के पास दूनी विनायक एक बड़ा बुग्याल है। जिसे नई सड़क ने दो हिस्सों में बांट दिया है। सड़क बनने और उसके कटान से निकले मलबे ने दूनी विनायक बुग्याल की मखमली घास को भारी नुकसान पहुंचाया है।

दूनी विनायक बुग्याल टूरिस्ट स्पॉट नहीं है। इसलिए इसकी चिंता खबरों का हिस्सा नहीं है।

बुग्याल और चरवाहों का जीवन

पहाड़ों के दूरदराज इलाकों में रहने वालों का जीवन खेती पर निर्भर है। लोग भेड़ बकरी भी पालते हैं। बिर्थी के बाद जब यात्रा आगे की तरफ बढ़ती है, तब पशुपालक रास्तों में दिखने लगते हैं।

बिर्थी से नामिक और फिर आगे की तरफ पहाड़ों और जंगलों के बीच से गुजरते हुए कई बुग्याल मिलते हैं। बुग्याल यानी घास के बड़े बड़े मैदानों में पशुपालकों के अस्थायी ठिकाने यानी छानियां दिखने लगती हैं। 

Duni Vinayak Bugyal; Photo By - Jitendra Bhatt

बदियाकोट से बोरबलड़ा की तरफ जाते वक्त दूनी विनायक बुग्याल में चरवाहों की एक टोली से उनके काम और जीवन के बारे में लंबी बात हुई। छह चरवाहे सात सौ बकरियों और भेड़ों को लेकर शंभू बुग्याल की तरफ बढ़ रहे थे।

दूनी बुग्याल में इन चरवाहों ने डेरा डाल रखा था। प्लास्टिक की पन्नी का तंबू गड़ा हुआ था। बकरियां और भेड़ बुग्याल में गाड़े गए तंबू के इर्द -गिर्द ही चर रही थी।

पहाड़ी इलाकों में बुग्याल या चारागाह गांवों के हिसाब से बंटे रहते हैं। उदाहरण के तौर पर, दूनी बुग्याल में मिले पशुपालकों ने बताया कि इस बुग्याल में बदियाकोट और किलपरा गांव के लोग जानवर चराने आते हैं।

पशुपालकों की इस टोली में शामिल विमल सिंह बदियाकोट के रहने वाले हैं, जबकि पुष्कर सिंह किलपरा गांव के। पुष्कर सिंह ने बताया कि दूनी बुग्याल में उनका ठिकाना तीन चार दिन का है। दो दिन बाद वो आगे की तरफ बढ़ जाएंगे।

दूनी बुग्याल से चरवाहों का ये समूह तिलमिलिया जाएगा। फिर वहां से शंभू नदी के पास से होते हुए शंभू बुग्याल। शंभू बुग्याल में चरवाहों की ये टोली करीब तीन महीने रुकेगी। फिर वहां से दिवाली के आसपास वापस गांवों की तरफ आ जाएगी। विमल सिंह ने बताया कि इस तरह करीब छह महीने वो बुग्यालों में बकरियों और भेड़ों को चराते हैं।

यहां इन पशुपालकों के बारे में एक रोचक बात पता चली। ये सारी बकरियां और भेड़ इन चरवाहों की नहीं थी। दरअसल भेड़ और बकरियों को चराने का एक सिस्टम बना हुआ है। चरवाहे गांव के दूसरे लोगों की बकरियां और भेड़ भी अपने साथ लेकर जाते हैं। चरवाहों ने बताया कि छह महीने एक बकरी या भेड़ चराने के लिए 250 रुपये मिलते हैं। इस तरह चरवाहों के लिए ये आमदनी का एक बड़ा जरिया है।

ये भी पता चला कि बदियाकोट से पशुपालकों की ऐसी तीन चार टोलियां बुग्यालों की तरफ निकलती हैं। कुछ टोलियां पहले ही आगे की तरफ चली गई हैं। इस तरह बदियाकोट की दो से ढाई हजार बकरियों और भेड़ों के साथ चरवाहे बुग्यालों में आते हैं।

इन पशुपालकों का जीवन मुश्किलों से भरा है। जानवरों से साथ घर से दूर तो रहना ही है। करीब छह महीने जिंदगी तंबुओं में ही बीतती है। तंबू में खाना, यहीं सोना।

ये पुष्कर सिंह के शब्द हैं, “ये काम बहुत मेहनत का है। फौजी को छुट्टी मिल जाएगी, पर हम चरवाहों की कोई छुट्टी नहीं।“

अब सवाल ये है कि इतनी मेहनत के बाद इन चरवाहों को मिलता क्या है? पुष्कर सिंह ने बताया कि वो 700 बकरियां लेकर शंभू बुग्याल जा रहे हैं। अब  लौटेंगे एक हजार बकरियां लेकर। यानी छह महीने के दौरान इन सात सौ बकरियां और भेड़ें तीन सौ बच्चों को जन्म दे देंगी। यही तीन सौ बकरियां इन चरवाहों की कमाई है।

पर ये सब इतना आसान नहीं है, क्योंकि जंगलों में कई खतरे भी हैं। सबसे बड़ा खतरा तो बाघ और भालू का है। विमल सिंह ने बताया कि पिछले साल बाघों ने उनकी टोली की 35 बकरियां मार दी थी।

मैंने पूछा। इन बकरियों का करते क्या हो? पुष्कर सिंह ने बताया कि एक फुल साइज का बकरा 18 से 20 हजार में बिक जाता है। वो साल में 20 से 25 बकरे बेच देते हैं। इस तरह साल में चार से पांच लाख रुपये की कमाई इन बकरों को बेचकर हो जाती है। इसके अलावा भेड़ों का ऊन भी बिक जाता है। बकरियों का दूध घर पर काम आ जाता है।

इन पशुपालकों के लिए कमाई का एक और जरिया भी है। कीड़ा जड़ी की मांग बढ़ने से कई पशुपालक परिवारों के साथ बुग्यालों में कीड़ा जड़ी निकालने का काम भी करते हैं। पर पिछले कुछ सालों में कीड़ा जड़ी को जिस अंधाधुंध तरीके से बुग्यालों से निकाला गया है, उसका असर अब दिख रहा है।

किलपरा गांव के पुष्कर सिंह और बदियाकोट के विमल सिंह ने बताया कि इस बार ज्यादा कीड़ा जड़ी नहीं मिली। वो इस बार के सीजन में करीब एक महीने में तीन से चार तोला सूखी कीड़ा जड़ी ही तैयार कर पाए। सूखी कीड़ा जड़ी की कीमत आठ से दस हजार रुपये तोला है। इस तरह इन लोगों ने करीब 30 से 40 हजार रुपए कीड़ा जड़ी बेचकर कमाए। पुष्कर सिंह कहते हैं कि इस बार तो सिर्फ दिहाड़ी निकली।

पहाड़ी वास्तुशिल्प कहां गुम हुआ?

पहाड़ों के दूरदराज के इलाकों में घूमते हुए, एक बड़ा बदलाव घरों की निर्माण शैली का साफतौर से दिखता है। चाहे पिथौरागढ़ का सीमावर्ती पांगू गांव हो, या दूरस्थ नामिक गांव। या फिर बागेश्वर जिले का बदियाकोट और बोरबलड़ा गांव।

हर गांव में एक बात नजर आती है कि अब पहाड़ की पुरानी शैली के घर नहीं बन रहे हैं। गांवों में भी लोग ईंट, ब्लॉक वाले लिंटर के घर बना रहे हैं।

6 जून 2024 को यात्री दल बदियाकोट से बोरबलड़ा पहुंचा। पहाड़ की ऊंचाई पर बसा है, छोटा सा गांव बोरबलड़ा।

बोरबलड़ा, बागेश्वर जिले का आखिरी गांव है।

यहां बमुश्किल 10-12 घर नजर आते हैं। कुछ घर काफी पुराने हैं। इनकी बनावट में पहाड़ी वास्तुशिल्प की पूरी झलक मिलती है। बोरबलड़ा गांव में मुलाकात हुई बयासी साल के नैन सिंह दानू से। नैन सिंह के दादा का बनाया 80 से 100 साल पुराना घर आज भी खड़ा है। दीवारें टूट जरूर रही हैं, दरवाजे भी गल रहे हैं।

Borbalda Gaon, Bageswer; Photo By - Jitendra Bhatt

पहाड़ी वास्तुशिल्प में पुराने घर दो मंजिला बनाये जाते थे। ग्राउंड फ्लोर और पहली मंजिल। ग्राउंड फ्लोर में जानवरों के रहने और स्टोरेज की जगह होती थी। पहली मंजिल पर परिवार रहते थे।

अब जमाना बदला है, तो पहाड़ी घर बनाने का ये वास्तुशिल्प भी ढल गया है। नैन सिंह दानू के दादा का बनाया घर वक्त के साथ बिखर रहा है। घर के अंदर लोग अभी भी रहते हैं, पर दीवारों पर लगे पत्थरों के बीच की मिट्टी खिसक रही है।

पुराने वक्त के इस घर के ठीक सामने पटाल वाले आंगन से सटा एक और घर बन रहा है। जिसे ईंट, सीमेंट और कॉन्क्रीट से तैयार किया गया है। दरवाजे और खिड़कियां भी पुराने वास्तुशिल्प से मेल नहीं खाती हैं। बनाने वाले कहते हैं कि ये नए जमाने का घर है। पर दादा जी के सौ साल पुराने घर के सामने लगातार कुछ तो अखरता ही रहा।

लोग पत्थर और लकड़ी के घरों की जगह ईंट और कंक्रीट के घर क्यों बना रहे हैं? ये पहाड़ों में होने वाली अकादमिक बहस का बड़ा मुद्दा है। इसकी कई वजहें हैं, जो आपस में मिली हुई हैं। सामाजिक, आर्थिक और कानूनी वजहें।

इसी दिन यात्री दल बदियाकोट से समदर तरफ बढ़ रहा था। गरगुटी और कालीगाड़ गधेरा पार करने के बाद उनू नाम की तोक आती है। उनू से ठीक पहले चढ़ाई चढ़ते हुए एक बन रहा था। दीवारें बनाने का काम चल रहा था। मिस्त्री नई टेक्नॉलजी से बनाए गए एएसी ब्लॉक को एक के ऊपर एक रखकर दीवार बना रहा था।

मकान बनवा रहे ग्रामीण से बातचीत होने लगी। उन्होंने बताया कि घर बनाने के लिए ईंट और एएसी ब्लॉक हल्द्वानी से आते हैं। हल्द्वानी में जो एएसी ब्लॉक 80 रुपये का मिलता है, वो बदियाकोट तक पहुंचते-पहुंचते 125 से 130 रुपये का हो जाता है। यानी करीब पचास रुपये ढुलाई में चले जाते हैं।

यही स्थिति ईंट की भी है, बदियाकोट में ढुलाई का खर्च जोड़ने के बाद एक ईंट 15 रुपये की बैठ रही है। बावजूद इसके लोग ईंट और एएसी ब्लॉक से घर क्यों बनवा रहे हैं?

घर बनवा रहे ग्रामीण ने बताया कि पत्थर आसानी से नहीं मिल रहा है। मिल भी जाए, तो कम से कम तीन हजार रुपये में एक सैकड़ा यानी सौ वर्ग घन फीट पत्थर मिलता है। फिर इसे घर तक लाने के लिए घोड़े या खच्चर लगाने पड़ते हैं। एक घोड़े का दिनभर ढुलाई का खर्च छह सौ रुपये है। पत्थर निर्माण स्थल तक पहुंचने के बाद उसे कटाई करके चिनाई लायक बनाना पड़ता है। पहाड़ी मिस्त्री बदियाकोट में छह सौ रुपये दिन की मजदूरी लेते हैं। फिर कटाई करने के बाद चिनाई होती है।

अकादमिक बहस में अक्सर ये सवाल बहस का विषय बनता है कि पहाड़ों में अब पुराने वास्तुशिल्प वाले घर क्यों नहीं बन रहे हैं? इन बहसों में ये चिंता का बड़ा मुद्दा रहती है कि लोग पहाड़ों में ईंट, सरिया और कॉन्क्रीट के घर बना रहे हैं। टीन या पटाल वाली छत की जगह लिंटर डाले जा रहे हैं।

बदियाकोट की इस तोक में घर बनवा रहे ग्रामीण से बात करके समझ आया कि पुराने पहाड़ी वास्तुशिल्प से घर बनवाना अब कितना महंगा हो गया है। पहले तो पत्थर नहीं मिलेगा। पत्थर मिल भी जाए, तो वो काफी महंगा है। उसे निर्माण स्थल तक पहुंचाना यानी ढुलाई और भी महंगी है। रही सही कसर पत्थरों से होने वाले निर्माण की जटिलता पूरी कर देती है।

पत्थर की दीवारें बनाने वाले अच्छे मिस्त्री ढूंढे नहीं मिलते। पत्थर से दीवार तैयार करने की रफ्तार काफी धीमी होती है। जिसकी वजह से निर्माण करने में मजदूरी पर काफी पैसा चला जाता है। साथ ही पत्थरों से दीवार बनाने में सीमेंट और रेत का इस्तेमाल भी ज्यादा होता है। मतलब पत्थर से घर बनाना काफी महंगा पड़ता है।

पहाड़ के दूर-दराज वाले इलाकों में छत तैयार करने के लिए अब अच्छे पटाल मिलना भी बहुत मुश्किल है, और महंगा भी बहुत है।

इन्हीं सब वजहों से लोग पुराने तरीके के पहाड़ी घर बनाने के बजाय सस्ते और शॉर्टकट तरीके चुन रहे हैं।

बागेश्वर के बोरबलड़ा से चमोली जिले के हिमनी का सफर

अस्कोट आराकोट अभियान में मेरी उन्नीस दिन की यात्रा के दौरान मैं पिथौरागढ़ के दूरस्थ गांव नामिक से बागेश्वर जिले के कीमू पहुंच गया। फिर एक दिन बागेश्वर के बोरबलड़ा गांव से होते हुए हम चमोली जिले के हिमनी गांव पहुंच गए।

आपको चलते हुए अहसास होगा कि जिलों और मंडलों की सीमाएं सिर्फ नक्शे में खींची गई लाइनें हैं। आपको पता ही नहीं चलता कि जिला बदल गया है।

Manatoli Bugyal; Photo By - Jitendra Bhatt

बोरबलड़ा गांव कुमाऊं मंडल में आता है, यहां से माणोतोली बुग्याल पार करने के बाद गढ़वाल मंडल के हिमनी गांव में प्रवेश कर जाते हैं। यहां प्रशासनिक सीमाएं बदलती हैं, पर पहाड़ वही रहते हैं। पेड़ पौधे वही रहते हैं। लोगों के बोलचाल, पहनने खाने का तरीका भी नहीं बदलता।

बोली भी ज्यादा नहीं बदलती। जो गीत बोरबलड़ा में सुने थे, वही हिमनी में सुनाई दिए।

Friday, September 6, 2024

Waggle Dance देखा है क्या ?

कभी मधुमक्खी को फूलों पर मंडराते देखा है?

आप देखेंगे, तो आपका ध्यान एक बिंदु पर केंद्रित होने लगेगा।
वो प्वाइंट इधर उधर खिसकेगा। पर नजर उसे पकड़ ही लेगी।
ये ध्यान लगाने जैसा है। 

मनचाहा संगीत सुनने जैसा है। 

किसी नदी के किनारे बैठकर पानी के हल्के शोर को सुनने जैसा है।
आपके उस डांस जैसा है, जो आप तब करते होंगे; जब खुश होते हैं।
डांस की बात है, तो मधुमक्खी का डांस भी देखिए।

इसे Waggle Dance कहते हैं। 

इसमें मधुमक्खी Eight (8) की आकृति बनाते हुए मूवमेंट करती है।
इस तरह मधुमक्खी अपने दल की दूसरी मधुमक्खियों को फूलों की दिशा का संकेत भेजती हैं।

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Tuesday, August 20, 2024

बदियाकोट से बोरबलड़ा की यात्रा और आदिबद्री मां भगवती का मंदिर

तारीख 6 जून 2024। अस्कोट आराकोट अभियान का चौदहवां दिन। सुबह करीब आठ बजे अभियान दल के सदस्य बदियाकोट से अगले पड़ाव बोरबलड़ा के लिए निकले। चारों ओर पहाड़ियों से घिरा बदियाकोट एक छोटा सा खूबसूरत गांव है। यह गांव कपकोट तहसील के मल्ला दानपुर क्षेत्र में आता है। हमारी पांच जून की रात बदियाकोट में ही बिती।
बदियाकोट गांव की एक सुबह Photo By - Jitendra Bhatt

सुबह उठे, तो रात में बारिश की हल्की बौझारों से मिट्टी और घास भीगी हुई थी। पर धीरे-धीरे आसमान खिल गया। सूरज की पहली किरणों ने पहाड़ों को सुनहरा बना दिया। दूसरी तरफ बर्फ वाला पहाड़ बिल्कुल सामने खड़ा दिखने लगा। आठ बजते बजते अच्छी धूप खिल आई। ये तय हुआ कि बोरबलड़ा की तरफ बढ़ने से पहले यात्री दल मां भगवती आदिबद्री के मंदिर को देखने जाएगा।
बदियाकोट गांव की एक सुबह Photo By - Jitendra Bhatt

करीब आधा पौना किलोमीटर संकरे पहाड़ी रास्ते पर घरों और खेतों के बगल से गुजरते हुए हम गांव के आखिरी छोर पर पहुंच गए। यहां घरों का झुंड खत्म हो जाता है। इसके बाद इक्का दुक्का घर हैं। यहीं से मां भगवती आदिबद्री मंदिर का चढ़ाई वाला रास्ता शुरू होता है। बदियाकोट और इसके आसपास के गांवों में मां भगवती आदिबद्री की बड़ी मान्यता है। 
बदियाकोट का आदिबद्री मां भगवती मंदिर Photo By - Jitendra Bhatt

मंदिर के गेट से करीब एक या सवा किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ते हुए हम आदिबद्री मां भगवती के मंदिर पहुंच गए। बदियाकोट गांव का ये मंदिर बहुत भव्य है, और कई मायनों में अलग भी है। ऐसे कम ही मंदिर दिखते हैं, जो दो मंजिला हों। ये मंदिर नक्काशीदार लकड़ी और पत्थरों से बना है। मंदिर का मुख्य गर्भग्रह पहली मंजिल पर स्थित है। 
बदियाकोट का आदिबद्री मां भगवती मंदिर Photo By - Jitendra Bhatt

मंदिर का मूल ढांचे का निर्माण काफी पुराना है, ये आज भी जस का तस है। मंदिर के ढांचे में प्राचीनता अभी भी पूरी तरह नजर आती है। हालांकि हाल के वर्षों में स्थानीय लोगों ने मंदिर के बाहरी और अंदरूनी हिस्से में कुछ सजावटी बदलाव किए हैं। 
बदियाकोट का आदिबद्री मां भगवती मंदिर Photo By - Jitendra Bhatt

मंदिर में लकड़ी का यह नया काम अलग ही नजर आता है। इसमें परंपरागत डिजाइन कम, आधुनिकता की छाप ज्यादा है। हालांकि स्थानीय लोगों की तरफ से परंपरा का मेल करने की कोशिश भी कई है, लेकिन ये ज्यादा नहीं हो पाया है। 
बदियाकोट का आदिबद्री मां भगवती मंदिर Photo By - Jitendra Bhatt

आदिबद्री मां भगवती मंदिर के बारे में आसपास के इलाके में कई मान्यताएं हैं। जो किवदंतियों के रूप में स्थानीय लोगों से सुनी जा सकती हैं। बदियाकोट के स्थानीय निवासी धर्मेंद्र सिंह दानू जिनकी पत्नी ग्राम प्रधान हैं, वो बताते हैं कि आदिबद्री मां भगवती मंदिर में देवी मां चमोली जिले के पीपलकोटी इलाके के पास स्थित बंड से आईं। मान्यता है कि देवी मृग के रूप में यहां पहुंची। दो भाई छलि दानू और बलि दानू शिकार करने के इरादे से उनके पीछे पड़ गए। 
बदियाकोट का आदिबद्री मां भगवती मंदिर Photo By - Jitendra Bhatt

ऐसी लोककथाएं बुजुर्ग बच्चों को आज भी सुनाते हैं कि देवी ने बदियाकोट में आकर दोनों भाईयों को साक्षात दर्शन दिए। धर्मेंद्र सिंह दानू ने बताया कि बदियाकोट में रहने वाले दानू परिवार खुद को इन्हीं छलि बलि का वंशज मानते हैं। 
बदियाकोट का आदिबद्री मां भगवती मंदिर Photo By - Jitendra Bhatt

जिस तरह चमोली जिले के वॉण में स्थित लाटू देवता की पूजा होती है, दानपुर क्षेत्र में दानू देवता की पूजा की जाती है। 
आदिबद्री मां भगवती मंदिर के बारे में एक बात बतानी जरूरी लगती है। आदिबद्री मां भगवती के इस मंदिर के मुख्य पुजारी ब्राह्मण नहीं हैं। वो राजपूत जाति से आते हैं, स्थानीय दानू लोग ही मंदिर में पुजारी हैं, इन्हें यहां धामी कहते हैं। ऐसा ही वॉण के मशहूर लाटू देवता के मंदिर में भी देखने को मिलता है। यहां भी लाटू देवता के मंदिर में पुजारी ठाकुर यानी राजपूत जाति से आते हैं। 
बदियाकोट का आदिबद्री मां भगवती मंदिर Photo By - Jitendra Bhatt

ग्लोबलाइजेशन के दौर में जैसी एकरूपता रहन सहन और पहनावे में दिखती है। उसका असर इस मंदिर पर भी साफतौर से नजर आता है। आदिबद्री मां भगवती के इस मंदिर में भी धार्मिक एकरूपता का असर हुआ है। साइनबोर्ड पर बड़ा सा ओम दिखता है। ऐसा लगता है कि शहर के किसी मॉर्डन और नए मंदिर में पहुंच गए हों। आमतौर से ऐसा पहाड़ के पुराने मंदिरों में नजर नहीं आता है। 
बदियाकोट का आदिबद्री मां भगवती मंदिर Photo By - Jitendra Bhatt

प्राचीन मंदिर में समय अपने हिसाब से बदलाव ला रहा है, इस बदलाव की व्याख्या हम अपने अपने तरीके से कर सकते हैं। बावजूद इसके स्थानीय लोगों की मंदिर और आदिबद्री मां भगवती में आस्था अटूट है।

बदियाकोट के चरवाहों का कठिन जीवन, कठिन यात्रा

तारीख 6 जून 2024।

अस्कोट आराकोट अभियान दल के सदस्य सुबह आठ बजे चलकर दोपहर करीब सवा बारह बजे दूनी विनायक पहुंचे। ये एक बड़ा बुग्याल है।

दूनी विनायक बुग्याल, बदियाकोट Photo By - Jitendra Bhatt


पहाड़ी इलाकों में बुग्याल या चारागाह गांवों के हिसाब से बंटे रहते हैं। उदाहरण के तौर पर, दूनी बुग्याल में मिले पशुपालकों ने बताया कि इस बुग्याल में बदियाकोट और किलपरा गांव के लोग जानवर चराने आते हैं। 


पशुपालकों की इस टोली में शामिल विमल सिंह बदियाकोट के रहने वाले हैं, जबकि पुष्कर सिंह किलपरा गांव के। पुष्कर सिंह ने बताया कि दूनी बुग्याल में उनका ठिकाना तीन चार दिन का है। दो दिन बाद वो आगे की तरफ बढ़ जाएंगे।

दूनी विनायक बुग्याल, बदियाकोट Photo By - Jitendra Bhatt


दूनी बुग्याल से चरवाहों का ये समूह तिलमिलिया जाएगा। फिर वहां से शंभू नदी के पास से होते हुए शंभू बुग्याल। शंभू बुग्याल में चरवाहों की ये टोली करीब तीन महीने रुकेगी। फिर वहां से दिवाली के आसपास वापस गांवों की तरफ आ जाएगी। विमल सिंह ने बताया कि इस तरह करीब छह महीने वो बुग्यालों में बकरियों और भेड़ों को चराते हैं। 

यहां इन पशुपालकों के बारे में एक रोचक बात पता चली। ये सारी बकरियां और भेड़ इन चरवाहों की नहीं थी। दरअसल भेड़ और बकरियों को चराने का एक सिस्टम बना हुआ है। चरवाहे गांव के दूसरे लोगों की बकरियां और भेड़ भी अपने साथ लेकर जाते हैं। चरवाहों ने बताया कि छह महीने एक बकरी या भेड़ चराने के लिए 250 रुपये मिलते हैं। इस तरह चरवाहों के लिए ये अलग आमदनी का जरिया बन जाता है। 

दूनी विनायक बुग्याल, बदियाकोट Photo By - Jitendra Bhatt


ये भी पता चला कि बदियाकोट से पशुपालकों की ऐसी तीन चार टोलियां बुग्यालों की तरफ निकलती हैं। कुछ टोलियां पहले ही आगे की तरफ चली गई हैं। इस तरह बदियाकोट की दो से ढाई हजार बकरियों और भेड़ों के साथ चरवाहे बुग्यालों में आते हैं। 


इन पशुपालकों का जीवन मुश्किलों से भरा है। जानवरों से साथ घर से दूर तो रहना ही है। करीब छह महीने जिंदगी तंबुओं में ही बीतती है। तंबू में खाना, यहीं सोना। ये पुष्कर सिंह के शब्द हैं, “ये काम बहुत मेहनत का है। फौजी को छुट्टी मिल जाएगी, पर हम चरवाहों की कोई छुट्टी नहीं।“ 

दूनी विनायक बुग्याल, बदियाकोट Photo By - Jitendra Bhatt


अब सवाल ये है कि इतनी मेहनत के बाद इन चरवाहों को मिलता क्या है? पुष्कर सिंह ने बताया कि वो 700 बकरियां लेकर शंभू बुग्याल जा रहे हैं। अब  लौटेंगे एक हजार बकरियां लेकर। यही तीन सौ बकरियां इन चरवाहों की कमाई है। पर ये सब इतना आसान नहीं है, क्योंकि जंगलों में कई खतरे भी हैं। सबसे बड़ा खतरा तो बाघ और भालू का है। विमल सिंह ने बताया कि पिछले साल बाघों ने उनकी टोली की 35 बकरियां मार दी थी। 


मैंने पूछा। इन बकरियों का करते क्या हो? पुष्कर सिंह ने बताया कि एक फुल साइज का बकरा 18 से 20 हजार में बिक जाता है। वो साल में 20 से 25 बकरे बेच देते हैं। इस तरह साल में चार से पांच लाख रुपये की कमाई इन बकरों को बेचकर हो जाती है। इसके अलावा भेड़ों का ऊन भी बिक जाता है। बकरियों का दूध घर पर काम आ जाता है।

दूनी विनायक बुग्याल, बदियाकोट Photo By - Jitendra Bhatt


इन पशुपालकों के लिए कमाई का एक और जरिया भी है। कीड़ा जड़ी की मांग बढ़ने से कई पशुपालक परिवारों के साथ बुग्यालों में कीड़ा जड़ी निकालने का काम भी करते हैं। पर पिछले कुछ सालों में कीड़ा जड़ी को जिस अंधाधुंध तरीके से बुग्यालों से निकाला गया है, उसका असर अब दिखने लगा है।

दूनी विनायक बुग्याल, बदियाकोट Photo By - Jitendra Bhatt


किलपरा गांव के पुष्कर सिंह और बदियाकोट के विमल सिंह ने बताया कि इस बार ज्यादा कीड़ा जड़ी नहीं मिली। वो इस बार के सीजन में तीन से चार तोला सूखी कीड़ा जड़ी तैयार कर पाए। सूखी कीड़ा जड़ी की कीमत आठ से दस हजार रुपये तोला है। इस तरह इन लोगों ने करीब 30 से 40 हजार रुपए कीड़ा जड़ी बेचकर कमाए। पुष्कर सिंह कहते हैं कि इस बार तो सिर्फ दिहाड़ी निकली।


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Friday, July 26, 2024

पत्थरों के सोफे

तारीख 7 जून। 

अस्कोट आराकोट अभियान का चौदहवां दिन।

बागेश्वर जिले के बोरबलड़ा से चमोली जिले के हिमनी की तरफ जाते वक्त रास्ते में हमें "पत्थरों के सोफे" दिखे।

माणातोली बुग्याल से पहले पत्थरों के सोफों पर बनाने वाले का नाम लिखा है, निर्माण का साल भी दर्ज है। 

बोरबलड़ा से हिमनी के रास्ते पर Photo By - Jitendra Bhatt

वक्त के थपेड़ों ने पत्थरों पर उकेरी गई इबारतों को कुछ धुंधला सा कर दिया है। 

अगर आंखों पर जोर डालें, तो कुछ शब्द समझ आ जाते हैं। एक सोफे पर नाम खुदा है शेर सिंह धामी, साल लिखा था 1997।

बोरबलड़ा से हिमनी के रास्ते पर Photo By - Jitendra Bhatt

हमारे साथ चल रहे गांव वालों ने बताया कि "पत्थरों के सोफे" स्थानीय लोगों ने अपने पुरखों की याद में बनवाए हैं। जिससे इस रास्ते से आने जाने वाले लोग यहां पर विश्राम कर सकें।

बोरबलड़ा से माणातोली बुग्याल और फिर हिमनी की तरफ जाने वाले रास्ते पर बने "पत्थरों के सोफे" ये बताते हैं कि कभी ये पैदल रास्ता काफी व्यस्त रहा होगा। यहां से लोगों की खासी आवाजाही रही होगी।

यही वजह है कि लोगों ने यहां पर पैदल यात्रियों के विश्राम के लिए "पत्थरों के सोफे" बनवा दिए।

बोरबलड़ा से हिमनी के रास्ते पर Photo By - Jitendra Bhatt

ये ध्यान देने वाली बात है कि इस तरफ बोरबलड़ा बागेश्वर जिले का आखिरी गांव है। तो यहां से आगे की तरफ जाने पर हिमनी चमोली जिले का पहला गांव।

यहीं से हम कुमाऊं से गढ़वाल में प्रवेश कर जाते हैं। 

यहां प्रशासनिक सीमाएं बदलती हैं, पर पहाड़ वही रहते हैं। पेड़ पौधे वही रहते हैं। लोगों के बोलचाल, पहनने खाने का तरीका भी नहीं बदलता। बोली भी ज्यादा नहीं बदलती।

जो गीत बोरबलड़ा में सुने थे, वही हिमनी में सुनाई देते हैं।

#askotarakotabhiyan2024 #aaa2024 #pahad #travelyatrijitendra #uttarakhand

Thursday, April 9, 2020

नफरत के दौर में, दिल दिमाग खुले रखना


इन दिनों मीडिया और सोशल मीडिया में लोगों के बीच एक दीवार से खींच दी गई है। आप नफरत के खिलाफ बोलिए या लिखिए। लोग मोहब्बत को गाली देने लगेंगे। कई तरह की दलीलें दी जाएंगी। पहली बात यह कही जाएगी, आपने उस मुद्दे पर क्यों नहीं लिखा? इससे उनका सीधा मतलब होगा कि आपने अमुक समुदाय के खिलाफ क्यों नहीं लिखा?

इस नफरत ब्रिगेड के निशाने पर इन दिनों एक अल्पसंख्यक समुदाय है। कोरोना के झंझट के बीच दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज में तबलीगी जमात के लोगों के इकट्ठा होने और फिर इनमें से कई लोगों के कोरोना पॉजिटिव पाए जाने के बाद, नफरत फैलाने का एक सिलसिला शुरू हुआ है। 

करीब 10 दिन होने को आए हैं, मरकज की तरफ से कई सफाई आ गई हैं, पर तबलीगी जमात के बहाने एक पूरे समुदाय को निशाने पर लेने का चौतरफा खेल जारी है। नफरत के इस खेल के कई खिलाड़ी हैं; मीडिया, सोशल मीडिया और खास तरह की सियासत करने वाले लोग।

नफरत का खेल कौन खेल रहा है?

इस खेल की शुरुआत मीडिया के जरिए की गई। फिर इसमें सियासत का तड़का लगा, और अब सोशल मीडिया के जरिए फर्जी और झूठी खबरें लगातार फैलाई जा रही हैं। इसमें से ज्यादातर खबरें अपुष्ट हैं, भ्रामक हैं। कुल मिलाकर कई खबरें फर्जी हैं। 

एक बार टेलीविजन न्यूज़ के जरिए या सोशल मीडिया के जरिए जब फर्जी खबर दूर देहात और छोटे कस्बों में फैल गई, तो वह सच बन जाती है। कितनी भी सफाई देते रहिए झूठ, सच बनकर लोगों के दिलो-दिमाग पर पड़ा रहता है।
आप अपने किसी पड़ोसी से बात करिए, वो तबलीगी जमात के बारे में कई तरह की बातें बताने लगेगा। इनमें से ज्यादातर बातें फर्जी खबरों का हिस्सा होंगी।

मसलन एक मुसलमान फलवाले द्वारा फलों पर थूकने की बात। पुलिसवाले पर थूकने की बात। ये खबरें भी खूब जोर शोर से फैलाई गई कि अमुक अमुक शहर में तबलीगी जमात के कुछ लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए, और जब पुलिस या मेडिकल टीम उन्हें लेने पहुंची, तो उन्होंने पथराव शुरू कर दिया।

अच्छे भले, पढ़े-लिखे लोग भी इन खबरों पर यकीन कर रहे हैं। सोशल मीडिया के जरिए फर्जी खबरों का एक ऐसा जाल बुन दिया गया है, जिसके पार देख पाना एक आम इंसान के लिए संभव नहीं।

फिरोजाबाद पुलिस की बड़े मीडिया हाउस को चेतावनी

सोशल मीडिया पर बार-बार यह खबरें फैलाई गई कि किसी शहर में तबलीगी जमात के कुछ लोग कोरोना पॉजिटिव है। उन्हें जब मेडिकल टीम लेने पहुंची, तो पथराव शुरू कर दिया गया।

ऐसी खबर एक बड़े मीडिया हाउस ने अपनी वेबसाइट पर छापी। मीडिया हाउस का नाम लेना मुनासिब नहीं, पर जो खबर छपी उस का स्क्रीनशॉट आप देख सकते हैं।
ये खबर यूपी के शहर फिरोजाबाद को लेकर चलाई गई। 6 अप्रैल की इस खबर में लिखा था "फिरोजाबाद में 4 तबलीगी जमाती कोरोना पॉजिटिव, इन्हें लेने पहुंची मेडिकल टीम पर हुआ पथराव।"

जाहिर है इस खबर को न जाने कितने लोगों ने पढ़ा होगा। और फिर तबलीगी जमात के बहाने एक समुदाय, दूसरे समुदाय के लोगों की नफरत का निशाना बन गया।
लेकिन सच क्या है? ज्यादातर मामलों में सच पता ही नहीं चल पाता। झूठी और फर्जी ख़बरें सच बन जाती हैं। लोग इन पर 100 फ़ीसदी यकीन करने लगते हैं।

इस फर्जी खबर के साथ भी यही होता, अगर फिरोजाबाद पुलिस तुरंत एक्टिव ना होती। अच्छी बात है कि फिरोजाबाद पुलिस ने इस फर्जी खबर पर तुरंत प्रतिक्रिया दी।
फिरोजाबाद पुलिस ने मीडिया हाउस के ट्विटर हैंडल को टैग करते हुए लिखा, "आपके द्वारा असत्य और भ्रामक खबर फैलाई जा रही है। जबकि जनपद फिरोजाबाद में न तो मेडिकल टीम और ना ही किसी एंबुलेंस गाड़ी पर कोई पथराव हुआ है।"

फिरोजाबाद पुलिस ने मीडिया संस्थान को एक चेतावनी भरे लहजे में ट्वीट डिलीट करने को कहा, फिरोजाबाद पुलिस के इस ट्वीट में लिखा गया - "आप अपने द्वारा किए गए ट्वीट को तत्काल डिलीट करें।"

बाराबंकी के डीएम ने अखबार को पत्रकारिता सिखाई

फिरोजाबाद में ही नहीं यूपी के बाराबंकी में भी एक बड़े अखबार में तबलीगी जमात से जुड़ी खबरों को गलत और भ्रामक अंदाज में छापा गया। इस अखबार की खबरों पर बाराबंकी के डीएम और एसएसपी को चेतावनी तक देनी पड़ी।
फिरोजाबाद के डीएम ने 6 अप्रैल को अपने ट्विटर हैंडल पर एक अखबार को भ्रामक खबर छापने के लिए आड़े हाथ लिया। 

उन्होंने अपने वेरीफाई टि्वटर हैंडल पर लिखा, "कम से कम जागरण से इस प्रकार के Yellow Journalism और Rumour Mongering की अपेक्षा नही थी। बेहद दुःखद।"



इस ट्वीट के साथ डीएम साहब ने एक नोट भी शेयर किया। इस नोट में लिखा था, "इन विषम परिस्थितियों में ऐसी अफवाहों पर तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर, बिना प्रशासन का पक्ष जाने निराधार खबर विकसित करना, पत्रकारिता एवं जागरण के अपने मापदंडों के विपरीत है। बेहद दुखद।"

डीएम साहब ने दूसरे ट्वीट में लिखा, "आशा है अब सभी प्रकार की अफवाहों और निराधार खबरों पर विराम लगेगा।"
बाराबंकी के पुलिस अधीक्षक ने भी टि्वटर हैंडल के जरिए कहा, "COVID2019 के दृष्टिगत भ्रामक खबरों पर ध्यान न दें।"
अंदाजा लगा सकते हैं कि अखबार की जिस खबर को डीएम और पुलिस के आला अधिकारी झूठा और भ्रामक बता रहे हैं, उस खबर को पढ़कर आम लोगों के 
मन में किस तरह की भावनाएं पैदा हुई होंगी।

सहारनपुर पुलिस ने मीडिया को दिखाया आईना

भ्रामक खबरों का सिलसिला यहीं नहीं रुकता। सहारनपुर पुलिस ने ऐसी ही कुछ भ्रामक और फर्जी खबरों की पोल खोली। दरअसल कुछ टेलीविज़न न्यूज़ चैनल, अखबार और कुछ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स में तबलीगी जमात के लोगों के बारे में झूठी और फर्जी खबरें छापी गई। इन्हीं खबरों पर सहारनपुर पुलिस को स्टेटमेंट जारी करना पड़ा।
सहारनपुर पुलिस द्वारा जारी स्टेटमेंट का शीर्षक है, खबर बनाम सच। 

सहारनपुर पुलिस ने लिखा - "अवगत कराना है कि विभिन्न समाचार पत्रों, न्यूज़ चैनलों एवं सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रकाशित की जा रही खबर 'क्वॉरेंटाइन किए गए जमतियों ने खाने में नॉनवेज ना मिलने पर किया जमकर हंगामा, जमातियों by ने खुले में ही कर डाली शौच' की सत्यता की जांच व आवश्यक कार्यवाही करने हेतु थाना प्रभारी रामपुर मनिहारन को निर्देश दिए गए थे, जिनके द्वारा जांच की गई तो जांच में विभिन्न समाचार पत्रों, न्यूज़ चैनलों एवं सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर प्रकाशित की जा रही उक्त खबर पूर्ण रूप से गलत एवं असत्य पाई गई है। अतः सहारनपुर पुलिस उक्त प्रकाशित खबर का पूर्णता खंडन करती है।"



सोचिए, ऐसी खबरों ने न जाने कितने पढ़े लिखे और भले इंसानों के दिमाग दूषित किए होंगे। ऐसी खबरों को देखकर सुनकर ही कुछ लोग नफरत के खिलाफ बोलने पर लांछन लगाते हैं।

लखनऊ में महिला नर्सों पर हमले की खबर फर्जी निकली

सोशल मीडिया फर्जी खबरों की सबसे बड़ी फैक्ट्री बन गया है। सोशल मीडिया के जरिए फर्जी खबरें जोर शोर से फैलाई जा रही है। लखनऊ में एक ऐसा ही मामला सामने आया। लखनऊ में सोशल मीडिया के जरिए कैसरबाग में महिला नर्सों पर हमले की खबर फैलाई गई। 

इन्हीं फर्जी खबरों के आधार पर एक महिला ने ट्विटर पर लखनऊ पुलिस से शिकायत की। इस महिला ने ट्विटर पर लिखा - "लखनऊ के कैसरबाग, कसाईबाड़ा में महिला नर्सों के साथ अभद्रता की गई। गाली गलौज देते हुए, पत्थर उठाने पर जान बचाकर भागे स्वास्थ्यकर्मी।"
इस ट्वीट पर लखनऊ पुलिस का जो जवाब आया, वो चौंकाने वाला है। लखनऊ पुलिस ने लिखा - "उक्त प्रकरण में SHO कैसरबाग द्वारा बताया गया कि इस प्रकार की कोई भी घटना कैसरबाग थानाक्षेत्र में नही हुई है।"

फलों पर थूकने वाले वीडियो का कोरोना से लेना-देना नहीं

आप मोहब्बत की बात करिए, नफरत के खिलाफ बोलिए; तो झट से कुछ लोग फलों पर थूकने वाली बात का जिक्र कर देंगे। ऐसे लोगों को मूर्ख मत कहिए। यह उनकी अज्ञानता है। 


फलों पर थूकने वाले वीडियो को लेकर टीवी न्यूज़ चैनल्स और सोशल मीडिया में खूब हल्ला मचा। अब पड़ताल के बाद पता चल रहा है कि वो वीडियो पुराना है।
फलों पर थूकने वाला वीडियो मध्य प्रदेश के रायसेन का है। इस खबर की क्विंट वेबसाइट ने पूरी पड़ताल की। क्विंट ने रायसेन की एसपी से बात की। उन्होंने बताया कि यह वीडियो 16 फरवरी का है, और इसका कोरोना वायरस से कोई लेना-देना नहीं।


आरोपी के परिवार का कहना है कि शेरू मियां की मानसिक हालत ठीक नहीं है, हालांकि इस मामले में पुलिस ने केस दर्ज करके आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन फलों पर थूकने वाले इस वीडियो को एक साजिश बताकर फैलाया गया। फेसबुक सहित तमाम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर यह वीडियो देखते ही देखते वायरल हो गया। पढ़े लिखे समझदार लोगों ने भी इस वीडियो का हवाला देकर जमकर नफरत फैलाने की कोशिश की। हम जैसों को उलाहना और ताना देने में यह प्रकरण बहुत काम आया।
पुलिस पर थूकने वाला वीडियो पुराना है!
एक और वीडियो को सोशल मीडिया में खूब प्रचारित किया गया। यह वीडियो मुंबई का है। इस वीडियो में दिखाया जा रहा है कि एक शख्स पुलिस पर थूकता है। पड़ताल में यह साफ हो गया है कि यह वीडियो 2 मार्च का है, और इसका कोरोनावायरस से कुछ भी लेना देना नहीं।
नफरत और मोहब्बत का खेल, दोनों अलग-अलग खेले जा रहे हैं। इतनी सच्चाई जानने के बाद भी, शायद ही नफरत फैलाने वाले मानेंगे। नफरत फैलाने वाले माने या ना मानें, मोहब्बत करने वालों को मोहब्बत करते रहनी चाहिए।
और अंत में जिगर मुरादाबादी का एक शेर है।
उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें,

मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे।।


Wednesday, April 8, 2020

कोरोना ठीक हो जाएगा। पर नफरत कैसे ठीक होगी?


बहुत दुख होता है लोग बदल रहे हैं। पर वो खुद नहीं जानते, वो कितना बदल गए हैं? हम अक्सर खुद में होने वाले बदलाव को कहां पहचान पाते हैं? यह ठीक वैसे ही हो रहा है। 
‌एक नफरत धीरे धीरे हमारे इर्द-गिर्द फैलती जा रही है। इस नफरत ने हमारे रिश्तों को, हमारे सामाजिक ताने-बाने को अपने शिकंजे में कस लिया है।
‌जहां देखो लोग नफरत से भरे बैठे हैं।
‌दुख उन लोगों के बदलने पर ज्यादा होता है, जिन्हें हम जानते हैं, पहचानते हैं।
‌उनमें से कई मेरे दोस्त हैं। कुछ चाचा, कुछ मामा, कुछ भाई। और भी न जाने क्या-क्या रिश्ते।
‌हर बात में नफरत बह रही है।
कोरोना ठीक हो जाएगा। पर नफरत कैसे ठीक होगी?
‌सत्ता से होती हुई ये नफरत मीडिया के जरिए मेरे, तुम्हारे, हमारे घरों में घर कर गई है। इस नफरत का सिरा मिलता ही नहीं। आखिर क्यों फैली है ये नफरत?
‌मैं परेशान इसलिए ज्यादा हूं। क्योंकि ये नफरत अनचाही नहीं है। गौर से देखो, तो पता चलेगा। इस नफरत को पाला गया, पोसा गया। एक लंबा वक्त लगा होगा इसे तैयार करने में। और अब इसे मेरे, तुम्हारे, हमारे घरों और रिश्तों के बीच छोड़ दिया गया है। अब ये नफरत अपना शिकार खुद कर रही है।
‌तो किसने पाला इस नफरत को? सत्ता या सत्ता से जुड़े प्रतिष्ठानों ने या फिर सत्ता की गुलामी में लगे मीडिया संस्थानों ने? या एक समाज के तौर पर हम फेल हुए हैं।
‌मैं बेचैन हूं, तब से जब से मैंने एक व्हाट्सएप मैसेज देखा है। मैं जानता हूं यह पहला व्हाट्सएप मैसेज नहीं है। इससे पहले न जाने कितने ही ऐसे व्हाट्सएप मैसेज मैंने देखें हैं।
‌पर ये मैसेज किसी खास ने मुझे भेजा है। मैं जानता हूं यह मैसेज फॉर्वर्डेड है। किसी खास फैक्ट्री में किसी खास विचारधारा से प्रेरित लोगों ने बनाया होगा।
‌मैं सोचता हूं उनके (मेरे खास) मन में नफरत ना होगी! पर फिर यकीन नहीं होता!
‌आखिर इस तरह के नफरती संदेश कोई क्यों कर भेजेगा?
कई सवाल बार-बार दिल पूछता है?
‌मैसेज एक समुदाय के खिलाफ नफरत भड़काने वाला है।लिखा है, "मुल्लों का आर्थिक बहिष्कार। सूची तैयार हो गई है। सब हिंदू इसे कम से कम 10 ग्रुप में भेजो।"
‌फिर नीचे लिखा है "आर्थिक बहिष्कार ऐसा होना चाहिए कि अगले महीने ही इनकी बैलेंस शीट आधी हो जाए। फिर इनके शेयर औंधे मुंह गिरेंगे"
‌आगे लिखा है - "गोली नहीं मार सकते तो उंगली मार दो। बर्बाद कर दो इन जिहादियों को। यदि इतना भी दम नहीं है, तो मरोगे ही। तुम्हें कोई नहीं बचा सकता।"
यह मैसेज लंबा है। पूरा का पूरा नफरत से सना हुआ है।
‌यह व्हाट्सएप मैसेज एक उम्मीद के साथ मुझे भेजा गया था। भेजने वाले को लगता था मैं इसे 10 ग्रुपों में भेजूंगा।
‌पर मैं माफी चाहता हूं मेरे उस अजीज से। मैं यह न कर सकूंगा। माफ करना।
‌अगर हिंदू होने का वास्ता देकर मुझे एक समुदाय के खिलाफ नफरत से भरा जा रहा है, तो मैं कहना चाहता हूं मेरा ऐसे धर्म पर जरा भी विश्वास नहीं। मैं कहना चाहता हूं जिस हिंदू धर्म को मैंने जाना, समझा; वो बिला शक ऐसा नहीं। अगर यही हिंदू धर्म है, तो मैं इस धर्म का हिस्सा नहीं रहना चाहता।
माफ करना, मेरे चाचा।
माफ करना, मेरे मामा।
माफ करना, मेरे भाई।
माफ करना, मेरे दोस्त।
मैं नफरत में तुम्हारा संगी नहीं बन सकता।
तुम्हारा ही एक हिस्सा।