हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Sunday, August 12, 2018

क्या सवर्ण समाज में भी कोई ‘संजय जाटव’ रहता है?


घर पर ऐसे मुद्दों पर चर्चा कम ही होती है। 
 
लेकिन पत्रकार-एक्टिविस्ट प्रशांत टंडन के एक फेसबुक पोस्ट को लेकर मन में सवाल गहराया। उन्होंने लिखा था, “एक सर्वे करते हैं। आपकी मित्र सूची में जो बलात्कार के पक्ष में पोस्ट या कमेंट लिख रहे हैं, उनके नाम कमेंट बॉक्स में लिखिए।तो इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मैं अपने फेसबुक वॉल की सैर पर निकला। ये देखने कि कठुआ और उन्नाव रेप पर मेरे दोस्तों ने क्या कुछ लिखा है? मेरे फेसबुक फ्रेंड किस तरह की प्रतिक्रिया कर रहे हैं

इसी दौरान कुछ फेसबुक मित्रों के कमेंट मुझे परेशान कर गए। इनमें कुछ कमेंट कठुआ रेप को लेकर थे, और कुछ कमेंट हाल में उभरे दलित मुद्दे को लेकर। मैंने यूं ही स्वत: प्रतिक्रिया में दलित मुद्दे पर लिखे गए कमेंट्स का जिक्र अपनी पत्नी से किया। 
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मेरी बात सुनकर वो थोड़ा परेशान हुई। फिर अचानक उन्होंने अपने स्कूल के दिनों की एक बात मुझे बताई। पत्नी की बात सुनकर मुझे मेरी रिसर्च बीच में रोकनी पड़ी।

 
स्कूल की 20 साल पुरानी बात और मिसेज श्रीवास्तव

ये उन दिनों की बात है; जब मेरी पत्नी, मेरी पत्नी नहीं थी। करीब 20 साल पहले की बात।
मेरी पत्नी का बचपन उत्तर प्रदेश के उन्नाव में बीता है। वो साल 1997 था। तब मेरी पत्नी क्लास नौंवी की स्टूडेंट हुआ करती थीं। वो उन्नाव के गर्ल्स गवर्मेंट इंटर कॉलेज में पढ़ती थीं। मिसेज श्रीवास्तव नौवीं की क्लास टीचर थीं। नाम पूरा लिखा जा सकता है। पर इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। तो मिसेज श्रीवास्तव साइंस की टीचर थीं। यानी वो फिजिक्स, केमिस्ट्री की ज्ञाता थीं। साइंस तर्क देता है। खैर इस बात का भी मूल लेख से कोई वास्ता नहीं है। तो मेरी पत्नी ने मुझे मिसेज श्रीवास्तव की क्लास की जो बात बताई। वो मैं आपसे साझा करना चाहता हूं। 

जैसा आमतौर से होता है। स्कूलों में हर जाति, धर्म और वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं। तो मेरी पत्नी की उस क्लास में भी ऐसा ही था। उस क्लास में कुछ दलित लड़कियां पढ़ती थीं। कुछ मुस्लिम थीं। और कुछ मेरी पत्नी की तरह सवर्ण वर्ग की। एक मुस्लिम लड़की मेरी पत्नी की अच्छी दोस्त हुआ करती थी। इसकी बात आगे करुंगा। 

सरकारी स्कूलों में एक वजीफे वाला दिन भी होता है। जिसमें दलित स्टूडेंट्स के फॉर्म भरे जाते हैं। और उन्हें वजीफे के पैसे दिए जाते हैं।   

जैसा मेरा पत्नी ने मुझे बताया। मेरी पत्नी की क्लास में एक कुम्हार की लड़की पढ़ती थीं। जिसके नाम के पीछे वर्मा लगा था। बात वजीफे वाले दिन की हो रही है। 

चुभते सवाल - क्या अभी भी नालियां साफ करते हो, लेटरिंग उठाते हो

वजीफे वाले दिन मिसेज श्रीवास्तव ने मिस वर्मा से पूछा। नाम के साथ वर्मा लगाते हो। पर ये तो बताओ काम क्या करते हो? वर्मा तो आजकल सब लगा लेते हैं। क्या अभी भी घड़े बनाते हो?” लड़की ने जवाब दिया, “अब तो नहीं बनाते। तो इसपर मिसेज श्रीवास्तव का जवाब था, “जब घड़े नहीं बनाते तो वजीफा क्यों लेते हो?”

इसी रोज मिसेज श्रीवास्तवे ने वाल्मिकी समाज की एक लड़की से पूछा। ये बताओ कि अभी भी तुम नालियां साफ करते हो? लेटरिंग उठाते हो?”  इस सवाल के जवाब में कोई क्या कह सकता है? ये सोचने वाली बात है।

मेरी पत्नी ने एक और बात बताई। उन्होंने बताया कि वजीफे वाले दिन मिसेज श्रीवास्तव की बातचीत का ये एक सामान्य लहजा था। मिसेज श्रीवास्तव के सवाल पर अगर कोई लड़की चिढ़ती, जवाब देने में देरी करती। तो इसपर मिसेज श्रीवास्तव पलटकर कहतीं, “चिढ़ क्यों रही हो? ठीक से बताओ। वजीफा लेने में शर्म नहीं आती है। बताने में शर्म आती है।

जैसा मैंने ऊपर बताया कि मेरी पत्नी की दोस्ती एक मुस्लिम लड़की से थी। इस बात को लेकर भी मिसेज श्रीवास्तव के मन में कुछ बातें थी। उन्होंने मेरी पत्नी से कहा, “इससे क्यों बात करती हो? क्लास में और भी लड़कियां हैं। उनसे बात करो। उन्होंने ये भी कहा, “मुसलमान अच्छे नहीं होते 
हालांकि मिसेज श्रीवास्तव की बातों का क्लास की छात्राओं पर ज्यादा असर नहीं हुआ। मेरी पत्नी का कहना है कि क्लास की छात्राओं के बीच दलित और स्वर्ण का भेद उस रुप में नहीं उभरा था, जैसा मिसेज श्रीवास्तव कहा करती थीं। 

लगता तो है कि मिसेज श्रीवास्तव की बातों का लड़कियों पर असर नहीं हुआ होगा। मेरी पत्नी जो उच्च वर्ण ब्राह्मण समाज से आती हैं, उनपर तो मिसेज श्रीवास्तव कोई असर नहीं कर पाईं। पर क्या दूसरी लड़कियों के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा? इस सवाल का जवाब मेरी पत्नी के पास नहीं है। पर मैं विश्वास करना चाहता हूं कि मिसेज श्रीवास्तव की बातों का असर उनकी क्लास की सवर्ण वर्ग की लड़कियों पर नहीं हुआ होगा। 

लेकिन मैं ये भी सोच रहा हूं कि एक सरकारी शिक्षक अपनी 30 से 35 साल की पूरी नौकरी में कम से कम 10 हजार स्टूडेंट्स से डायरेक्ट तो जुड़ा रहता ही है। इनडायरेक्टली तो वो इससे कई गुना स्टूडेंट्स से जुड़ता होगा। इन स्टूडेंट्स के साथ वो हर रोज 40 से 45 मिनट बिताता है। इस दौरान औपचारिक पढ़ाई के अलावा कई अनौपचारिक बातें भी होती हैं। जैसा नौवीं की उस क्लास में मिसेज श्रीवास्तव किया करती थीं। तो एक मिसेज श्रीवास्तव न जाने कितने बच्चों पर असर डाल गयी होंगी। अगर एक स्टूडेंट पर भी असर पड़ा होगा, तो ये खतरनाक है। 

मूंछ को कौन बनाता है, मूंछ का सवाल

सवाल मिसेज श्रीवास्तव का नहीं है। वो कोई और भी हो सकती थीं। ये किसी खास चेहरे की बात नहीं है। ये खास मानसिकता की बात है।

इसी मानसिकता के शिकार कुछ लोगों ने भावनगर में दलित लड़के प्रदीप राठौड़ की हत्या कर दी। ऐसा करने वाले गिनती के ही रहे होंगे। पर सोचिए, प्रदीप राठौड़ ने एक घोड़ा खरीदा था और वो उस पर बैठा। इतनी सी बात कुछ लोगों को साल 2018 में स्वीकार नहीं होती।

गांधीनगर में 17 साल के दिगंत महेरिया की मूंछ रखने पर पिटाई हुई। दिगंत की मूंछ को सवर्ण समाज के कुछ लोगों ने मूंछ का सवाल बना दिया था। सारे सवर्ण ऐसा नहीं करेंगे, लेकिन कुछ तो करते ही हैं। उसी तरह जैसे सारे टीचर मिसेज श्रीवास्तव की तरह क्लास में बच्चियों से वैसे सवाल नहीं पूछते थे, जैसे वो पूछती थीं। 

गुजरात के ऊना में दलितों को नंगा करके लाठी डंडों से पीटा गया। वो भी चंद लोग ही थे। 

क्या सवर्ण समाज में भी कोई संजय जाटव रहता है

यूपी के कासगंज में रहने वाले संजय जाटव को आजादी के 70 साल बाद भी अपनी पसंद के हिसाब से शादी का समारोह करने का हक नहीं है। संजय जाटव की शादी कासगंज की एक लड़की से तय हुई। लेकिन शादी की तैयारियों से पहले उन्हें कोर्ट के चक्कर लगाने पड़े। संजय की पत्नी कासगंज के निजामपुर इलाके में रहती थीं। जहां ठाकुरों की तादात ज्यादा है।

जाटवों की बस्ती में जाने का रास्ता ठाकुरों के घरों से था। संजय जाटव धूमधाम से अपनी बारात लेकर जाना चाहते थे। घोड़ी पर चढ़कर, स्वाभिमान के साथ। लेकिन ठाकुरों के मुहल्ले में ऐसा कभी नहीं हुआ। ठाकुरों ने विरोध किया। मामला कोर्ट में पहुंचा। और फिर अंत में कासगंज के डीएम ने ठाकुरों और जाटवों दोनों पक्षों को बिठाकर एक समझौता कराया। कुछ शर्तों के साथ संजय जाटव को बारात ले जाने की इजाजत मिल गयी। 

सवाल ये है कि ऐसा संजय जाटव के साथ ही क्यों होता है? क्या आप किसी सवर्ण लड़के को जानते हैं, जिसे अपनी बारात के लिए संजय जाटव की तरह संघर्ष करना पड़ा हो। मैं जानना चाहता हूं, ऐसा सवर्ण कौन है?  

देहरादून जिले के जौनसार बावर में 340 मंदिरों में 400 साल तक दलितों के प्रवेश पर पाबंदी लगी रही। पिछले साल उत्तराखंड हाईकोर्ट ने दलितों को मंदिर में प्रवेश दिए जाने को लेकर आदेश सुनाया। आखिर ऐसा क्यों हुआ?

ये घटनाएं बताती है कि कुछ लोगों में सवर्ण मानसिकता अभी भी राज कर रही है। 

दलितों का उत्पीड़न और बेतुके सवाल !

दलित समुदाय के दो अप्रैल के भारत बंद के बाद एक सवाल बहुत बार पूछा गया? सोशल मीडिया की टिप्पणियों में भी इसका जिक्र हुआ? एक बहस के दौरान मेरे एक मित्र ने अचंभित लहजे में मुझसे पूछा था - अब दलितों के साथ छुआछूत कहां होता है? उस मित्र का कहना था कि उसने तो कभी देखा नहीं। पलटकर उन्होंने मुझपर ही सवाल फेंका। तुम बताओ, क्या तुमने दलित समुदाय के साथ भेदभाव होते देखा है

तो क्या एक दलित युवक को घोड़े पर बैठने पर मार दिया जाए? एक दलित युवक को मूंछ रखने पर पीटा जाए? एक दलित युवक को सवर्ण समाज के कुछ लोग अपने घर के पास से बारात न निकालने दें? और हमारे स्कूलों में कोई मिसेज श्रीवास्तव हों और वो स्टूडेंट से पूछें नालियां साफ करते हो क्या

इस पर भी अगर कोई ये सवाल पूछने लगे - अब दलितों के साथ छुआछूत कहां होता है? क्या तुमने दलित समुदाय के साथ भेदभाव होते देखा है? तो फिर सवाल पूछने वालों के आईक्यू पर हंसा जाए या रोया। समझ नहीं आ रहा है। 

ऐसे लोगों से एक सवाल पूछना चाहता हूं। क्या आप दलित समुदाय के साथ अठारहवीं शताब्दी वाला भेदभाव और छुआछूत देखना चाहते हैं। क्या 2018 में 1800 सन वाला भेदभाव और छुवाछूत दिखे, तभी इसे भेदभाव कहोगे? 

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देश में बहुत तनाव है क्या, कुछ पता तो करो चुनाव है क्या?

सजग और संवेदनशील नहीं रहे, तो आपको समझ नहीं आएगा। आप उनका खेल कभी जान नहीं पाएंगे। जब घटनाएं होंगी, तो आप खास लोगों द्वारा तय की गयी बातों पर यकीन करने लगेंगे। वो सच पर चौतरफा घेरकर वार करते हैं। ये धूल भरी आंधी जैसा होता है। जिस पल आंधी आए, आंखों के आगे धूल छा जाती है। और कुछ पलों के लिए आंखें खोलना मुश्किल हो जाता है। 

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बात को समझिए। गोयबल्स के प्रचार तंत्र के दो मुख्य बिंदु थे। पहला, झूठ ही सही, पर उसे बार बार बोलो। दूसरा, कुछ खास बातों पर फोकस करो। ये खास बातें उनका हथियार हैं;  इसमें धर्म और राष्ट्रवाद सबसे पैना हथियार है। नस्ल, भाषा, संस्कृति और जातिवादी पहचान भी उनके शस्त्रागार में शामिल हैं। जैसा मौका हो, वो अपने लिए हथियार चुन लेते हैं। 


याद रखिए, गोयबल्स ने हिटलर और उसकी सत्ता के लिए जर्मनी और जर्मन्स की सर्वोच्चता को चुना। इसके अलावा जो कुछ बचा, वो शत्रु था।  

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तो प्लान ये है कि झूठ सौ बार बोला जाए। सौ मुंह से कहा जाए। 

झूठ अलग अलग दिशाओं से कहा जाएगा। झूठ अलग अलग माध्यमों से आपने सामने परोसा जाएगा। संचार विज्ञानी मार्शल मैक्लुहान के शब्दों में कहें तो द मीडियम इज द मैसेज, अर्थात माध्यम ही संदेश है। 

तो क्या हो रहा है? झूठ, सामान्य बात बहस के जरिए आप तक पहुंच रहा है। अखबार और टेलीविजन चैनल्स के जरिए आपको प्रभावित कर रहा है। फेसबुक, ट्विटर और वट्सऐप के जरिए आपके दिमाग पर छा रहा है।

सिर्फ विवेक ही है, जो गोयबल्स से आपको बचाएगा। पर उसके लिए सजग रहना जरुरी है।

ढेर सारी कहानियां हैं, जो हमारे इर्दगिर्द बुनी जा रही हैं। कुछ प्रयोग चल रहे हैं। इनमें कुछ सफल रहे, कुछ आंशिक रुप से सफल। पर ढेर सारे प्रयोग विफल भी हुए, क्योंकि प्रतिक्रिया नहीं हुई। 

जो कुछ घटा , या घटने वाला है। उसे स्वत: स्फूर्त घटनाओं का जामा पहनाया गया, आगे भी कोशिश जारी है। पर गौर से इन घटनाओं को देखिए। इसमें एक खास पैटर्न दिखेगा। कुछ संगठनों का विचार और राजनीति इसमें शामिल दिखेगी। शासन का एक बड़ा हिस्सा इसका साझीदार है। ऊपर से देखेंगे तो शासन कहीं नहीं दिखेगा। लेकिन ये लुकाछिपी का खेल है। शासन और सत्ता में बैठे लोग चुप रहेंगे। नीचे की फौज अपना काम करती रहेगी। एक खास तरह का झुंड घटनाओं में सक्रिय भागीदार है। झूठ को तथ्य और सच बनाने के खेल में जाने अनजाने सूचना तंत्र भी हिस्सेदार है।
कहानी लंबी है। और कई हैं। पहली कहानी उत्तर प्रदेश के बिजनौर की है।  

बिजनौर में हिंदूओं के पलायन की एक कहानी गढ़ी गयी!  


शायर राहत इंदौरी का एक शेर है। जिसमें शायर कहता है। सरहदों पर बहुत तनाव है क्या, कुछ पता तो करो चुनाव है क्या?” 

तो बात चुनाव की ही थी। कैराना में ऐसा चुनाव हुआ, जिसका असर 2019 तक होने वाला है। कैराना और नूरपुर उपचुनाव से पहले बिजनौर से तनाव की एक खबर आई। शुरू में ही कह दिया गया है कि सजग और संवेदनशील रहना जरुरी है। हर खबर पर यकीन भारी परेशानी पैदा कर सकता है। 

ये घटना 29 अप्रैल की है। कैराना और नूरपुर में उपचुनाव से ठीक एक महीने पहले बिजनौर में वोटों के धुर्वीकरण की जबर्दस्त प्लानिंग की गयी। बिजनौर के गारवपुर गांव के बूढ़े बाबा देवस्थल में एक बल्ली पर लगे लाडस्पीकर को प्रशासन ने उतार दिया। जिसके बाद गांव में तनाव बढ़ा। मामला बढ़ा तो खास राजनीतिक दल से जुड़े हिंदू संगठन बीच में कूदे। इन्होंने इस मामले को हिंदू मुस्लिम बनाने की कोशिश की। कहा गया कि गांव की मस्जिद में भी लाउडस्पीकर लगे हैं। उन्हें क्यों नहीं हटाया जा रहा। 

हिंदू संगठन के कूदने से विवाद ने नया रंग लिया। बूढ़े बाबा देवस्थल कमेटी से जुड़े कुछ परिवार बैलगाड़ियों में अपना सामान भरकर गांव से बाहर आ गए। इन परिवारों ने गांव से बाहर खेतों में तंबू गाड़ दिए। 

हिंदू संगठन और कुछ सियासी लोगों ने मीडिया में इसे हिंदूओं का पलायन बताया, और गांव में हिंदू-मुसलमानों के बीच खाई गहरी करने की कोशिश शुरू हुई। बिजनौर से दूर बैठे मीडिया ने भी इसे उसी तरह दिखाने की कोशिश की, जैसा कुछ सियासी लोग चाहते थे। हेडलाइन्स चलाई गई बिजनौर में हिंदूओं का पलायन।

पुलिस और प्रशासन ने इन परिवारों से बात की, लेकिन हल नहीं निकला। ऐसे में भारतीय किसान यूनियन के जिलाध्यक्ष चौधरी दिगंबर सिंह ने गांव के हिंदूओं और मुसलमानों से बातचीत की। भारतीय किसान यूनियन ने दोनों पक्षों में समझौता कराया। समझौते के तहत मुसलमानों ने गांव में मंदिर बनवाने और लाउडस्पीकर लगवाने की बात कही। 

माहौल बिगाड़ने की कोशिश 29 अप्रैल को हुई। हिंदू संगठनों ने हिंदू परिवारों को भड़काने की खूब कोशिश की। लेकिन भारतीय किसान यूनियन ने एक खास राजनीतिक दल से जुड़े हिंदू संगठन की कोशिशों पर पानी फेर दिया। विवाद शुरू होने के बाद ठीक सत्रहवें दिन गारवपुर गांव में हिंदू और मुसलमानों ने मिलकर शिव मंदिर की नींव रखी। मंदिर की नींव रखने में गांव के मुस्लिम ग्राम प्रधान भी शामिल हुए। इस तरह गारवपुर गांव के जरिए पूरे इलाके को हिंदू-मुस्लिम में बांटने का प्रयोग विफल हो गया। 

बिजनौर के गारवपुर गांव की इस घटना में दो तीन बातों को गौर से समझिए।
पहली बात, बूढ़े बाबा देवस्थल से लाउडस्पीकर प्रशासन ने हटाया। मुसलमानों का इससे लेनादेना नहीं था।

दूसरी बात, हिंदू परिवार लाउडस्पीकर हटाए जाने के बाद प्रशासन और सरकार से नाराज थे। मुसलमानों से नाराजगी एक संगठन द्वारा मैन्यूफैक्चर की गई।
तीसरी बात, मुसलमानों का लाउडस्पीकर से कोई लेना देना नहीं था। लेकिन हिंदू संगठन ने इसे मस्जिद के लाउडस्पीकर से जोड़ा और फिर पूरे मामले को हिंदू-मुस्लिम रंग दे दिया।

तारीफ करनी चाहिए, भारतीय किसान यूनियन की जिसने दोनों पक्षों को हकीकत समझाई। दोनों पक्षों के लोगों की भी जिन्होंने समझा कि उन्हें भड़काकर राजनीति की रोटी सेकी जा रही है। 


इबादत को लड़ाई का मुद्दा कौन बना रहा है, और किसके लिए?

चुनाव कर्नाटक में भी हुए। हिंदू मुसलमान का मुद्दा सियासी नफे नुकसान का मुद्दा है। कर्नाटक के बेंगलुरु से बाईस सौ किलोमीटर दूर गुरुग्राम में हिंदू-मुसलमान के विवाद को हवा कौन दे रहा था, ये जानना चाहिए। 

12 मई को कर्नाटक में वोट डाले गए। लेकिन इससे 22 दिन पहले 20 अप्रैल को गुरुग्राम में हिंदू-मुसलमान का मुद्दा गरम करने की जमकर कोशिश हुई। गुरुग्राम के खाली पड़े प्लॉट में मुसलमान दसियों साल से शुक्रवार के दिन नमाज पढ़ रहे थे। किसी हिंदू को कभी फर्क नहीं पड़ा। लेकिन अचानक 20 अप्रैल को कुछ लोगों ने खाली पड़े प्लॉट पर नमाज पढ़ने पर आपत्ति जताई। इन हुड़दंगियों ने नारेबाजी की। नमाज पढ़ रहे लोगों को बीच नमाज उठा दिया। सालों से उस प्लॉट पर नमाज पढ़ रहे लोग शासन, प्रशासन से राहत की उम्मीद करने पहुंचे। पुलिस के पास जाकर इन लोगों ने हुड़दंगियों की शिकायत दर्ज कराई।  

पर शासन, प्रशासन की मुस्तैदी देखिए। अगले कुछ दिनों में खाली पड़े प्लॉट पर एक नोटिस बोर्ड लग जाता है। पुलिस प्लॉट की रखवाली में तैनात कर दी गयी। नमाजियों को उस खाली प्लॉट पर नमाज पढ़ने से रोक दिया गया। इसी के बाद हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा - सार्वजनिक और खुली जगहों पर नमाज नहीं पढ़नी चाहिए। इशारा साफ है। 

ईश्वर नमाजियों को आबाद रखे, उन्होंने हिंदूओं के ठेकेदार बने लोगों से भिड़ने के बारे में नहीं सोचा। वो नारे लगाने के लिए मोर्चा बनाकर सड़क पर भी नहीं उतरे। मैं कहना चाहता हूं कि आपने अच्छा किया, मेरे दोस्तों। यकीन मानिए, इससे उनका प्लान फेल हो गया। 

मुसलमानों की नमाज से हिंदुओं को दिक्कत कब से होने लगी?

गुरुग्राम में खुले में नमाज पढ़े जाने पर विवाद खड़ा किया गया, तो हिंदू संगठनों के साथ साथ मीडिया वालों ने भी इस मुद्दे को लपक लिया। यहां वहां जहां भी जुमे के दिन सड़क या खाली जगहों पर नमाज पढ़ी जाती है। कैमरे तैनात कर दिए गए।
वो जुमे का दिन था। ऐसा वहां हर जुमे को होता है। दिल्ली शहर के भजनपुरा का सुभाष चौक। मस्जिद की मीनार से उठती अजान के साथ हजारों सिर एक साथ सजदे में गिरे, और फिर उठे। ये सब चंद मिनटों के लिए बाजार की सड़क पर हुआ।
यूं समझो, वो सड़क 15 से 20 फीट की रही होगी। एक दो फीट ज्यादा या एक दो फीट कम। जिस सड़क पर मुसलमान ने घुटने टेककर ऊपरवाले को याद किया। उसी सड़क के ओर छोर पर हिंदूओं की दुकानें लाइन से लगी हुई थीं। बीच बीच में मुसलमानों की दुकानें भी हैं। 

जब तक जुमे की नमाज चली। दुकानें बंद रहीं। नमाज खत्म होने के बाद शटर ऊपर उठे। नमाज खत्म होने के बाद रिपोर्टर ने हिंदू दुकानदार से पूछा सड़क पर मुसलमान नमाज पढ़ते हैं, आपको कई परेशानी नहीं होती? हिंदू दुकानदार ने जवाब दिया। कोई परेशानी नहीं है। कितना टाइम लगता है। ज्यादा से ज्यादा आधा घंटा। आधे घंटे में क्या हो जाता है? कुछ भी नहीं। यही लोग हमारे कस्टमर हैं। यही लोग आते हैं मेरे पास।  

एक दूसरे हिंदू दुकानदार ने इस सवाल के जवाब में कहा। हम लोगों को इसमें कोई प्रॉब्लम नहीं है। ये 10 मिनट का काम होता है, हफ्ते में एक दिन। किसी को कोई प्रॉब्लम नहीं है  

रिपोर्टर मुसनमानों की तरफ मुड़ा। मुस्लिम भाई बोला। हमारे हिंदू भाई हैं। देश सभी का है। उनका आरती भजन होता है, तो हम लोग जगह देते हैं। वो आगे बोला। हिंदू नमाज़ के लिए चटाई बिछाते हैं। वजू के लिए पानी देते हैं। 10 मिनट के लिए क्या होता है?


वो काले झंडे वाले काले लोग !

असम के उन काले झंडों से निकला झूठ न खुलता, तो न जाने कितने लोग असम के मुसलमानों को आईआईएस का आतंकी ही मानते। झूठ बेपर्दा हुआ है, तो पता चला है कि आईएसआईएस के वो काले झंडे आतंकियों के कारस्तानी नहीं थे। वो एक प्लान का हिस्सा था। प्लान था, एक खास धर्म के लोगों को आतंकी के तौर पर प्रचारित किया जाए। योजना अच्छी थी। पर भेद खुल गया। 

मामला तीन मई का है। असम के नलबाड़ी में आईएसआईएस के झंडे पेड़ पर लटके मिले थे। मीडिया ने इस खबर की पड़ताल किए बिना इसे मुसलमानों से जोड़ा। खबरों में बताया गया कि असम के मुसलमान आईएसआईएस से जुड़े हैं। और झंडे इन्हीं मुसलमानों ने लगाए हैं। 

मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पुलिस ने तफ्तीश शुरू की, तो चार दिन बाद 7 मई को पुलिस ने नलबाड़ी के बेल्सोर इलाके से बीजेपी से जुड़े छह लोगों को पकड़ा। पुलिस को शक है कि झंडे इन्हीं लोगों ने लगाए। मकसद क्या रहा होगा, ये समझना क्या मुश्किल है?

हिंदू-मुसलमान के बंटवारे की सियासी चाल को समझिए

ये जो घटनाएं हैं। अगर आप इसे एक संयोग मानते हैं? तो आप गलत सोच रहे हैं। यकीन मानिए, ये प्लानिंग के साथ डिजाइन किया जा रहा है। इस योजना का हर कदम सोच समझकर रखा जा रहा है। आपको समझ नहीं आएगा असल में इसके पीछे कौन है? क्योंकि सत्ता में बैठे लोग सिर्फ देख रहे हैं। वो भाषणों में सबके साथ होने और सबका कल्याण करने की बातें करेंगे। पर उनके नीचे तमाम संगठन फैले हैं। कोई गोरक्षा के नाम पर सड़क पर मुसलमान को पकड़कर पीट देगा। कई लव जिहाद के नाम पर हंगामा करेगा। कोई नमाज के नाम पर हुड़दंग मचाएगा।

सबसे ऊपर बैठे लोग कुछ नहीं कहेंगे। क्योंकि इसका सीधा फायदा उन्हीं को चुनाव दर चुनाव मिलने की उम्मीद है। 

और अंत में नब्बे साल पहले वाले जर्मनी से सबक लेना जरुरी है। वहां जर्मन्स के सियासी इस्तेमाल के लिए हिटलर के नेतृत्व में गोयबल्स ने जो तरीका अपनाया। वो बड़ा खतरनाक था। यहूदियों के खिलाफ लोगों को भड़काया गया। चर्चों पर हमले की बातें प्रमुखता से उभारी गयी। इनमें से ज्यादातर बातें अफवाह थी। कई बार उसने चर्चों पर हिटलर के लोगों ने खुद ही हमले करवाए और इसका इस्तेमाल यहूदियों के खिलाफ प्रोपेगैंडा के तौर पर किया गया।

कुछ समझ आ रहा है आपको या नहीं?

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