हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Tuesday, March 31, 2009

अब हमारी बारी है

तो एकबार फिर से सिद्ध हो गया कि देश में कुछ संस्थाएं हैं, जो अपना काम बखूबी कर रही हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने भले ही अभिनेता से नेतागिरी के मैदान में उतरे संजय दत्त का दिल तोड़ दिया हो। लेकिन देश के बहुत से लोग खुश होंगे, आखिर एक सज़ायाफ्ता मुज़रिम के साथ जो होना चाहिए था... वही हुआ। एक ऐसा शख्स जिसने मुंबई धमाकों के वक्त अपने पास ऐसे हथियार रखे, जो सामान्य नहीं थे। देश की कौन सी अदालत कहेगी सही था ? जैसा कि साफ था, कोर्ट ने संजय दत्त को दोषी माना और उन्हें आर्म्स एक्ट के तहत 6 साल की सजा सुनाई। संजय दत्त फिलहाल जमानत पर जेल से बाहर हैं।
देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि संजय दत्त चुनाव नहीं लड़ सकते। सुप्रीम कोर्ट ने संजय दत्त की चुनाव लड़ने की इजाज़त मांगने के लिए दायर याचिका खारिज कर दी। याचिका में संजय दत्त ने मुंबई ब्लास्ट मामले में दोषी ठहराए जाने का फैसला सस्पेंड करने की मांग की थी, ताकि वह लोकसभा चुनाव लड़ सकें।
चीफ जस्टिस केजी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली बेंच ने संजय दत्त के वकील और याचिका का विरोध कर रही सीबीआई की दलीलों को सुनने के बाद अपना फैसला सुनाया। न्यायाधीशों ने कहा कि किसी व्यक्ति को चुनाव लड़ने की इजाजत देने के लिए उसकी सजा को निलंबित करने के कोर्ट के अधिकार का इस्तेमाल दुर्लभ मामलों में ही किया जाता है। कानून के जानकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बेहद अहम बता रहे हैं। लेकिन इस फैसले ने उन तमाम अपराधियों की नींद उड़ा दी है, जो जेल से नेता बनने का ख्वाब देख रहे थे।
अब इस विरोधाभाष को देखिए संजय दत्त को टाडा कोर्ट ने सज़ा सुनाई। उस कोर्ट ने जो संविधान के मुताबिक काम कर रही है। लेकिन राजनीतिक दलों को लगता है कि कोर्ट का फैसला ठीक नहीं, देश के एक राजनीतिक दल की नज़र संजू भाई पर पड़ी। जैसे उन्हें अपने लिए हीरा नज़र आ गया। और उठाकर बना दिया मुन्नाभाई को नेता। जैसे देश में नेतागिरी का ठेका दलाल, चोर, बदमाश और अपराधियों ने उठा रखा है। ऐसा नहीं कि अच्छे नेता नहीं, पर ये अच्चे नेता राजनीति की कीचड़ को साफ क्यों नहीं करते ? मेरी समझ से बाहर है।
कोई तो हो, जो ये काम करे। कोई दल, कोई नेता। कोई अपराधी नेता जब ए नाम की राजनीतिक पार्टी में होता है, तो बी पार्टी उसे कोसती है। लेकिन जब यही अपराधी नेता बी पार्टी में आता है, तो उसे डिफेंड करने लगती है। पता नहीं क्यों वोट का जुगाड़ करने के लिए ऐसे उम्मीदवार चुने जाते हैं, जो नोट और वोट का जुगाड़ एकसाथ कर सकें। चंद दिन पहले ही भारत के पूर्व उप राष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत ने कहा था कि राजनीतिक दल ऐसे उम्मीदवार चुन रहे हैं, जो नोट का जुगाड़ कर सकें। शेखावत ने कहा कि इससे पार्टियों में भ्रस्टाचार तेज़ी से बढ़ रहा है, और राजनीति में अच्छे लोग नहीं आ पा रहे।
शेखावत की बात बिल्कुल सही लगती है। पढ़े लिखे लोग वोट पॉलिटिक्स से दूर ही रहना पसंद करते हैं। यही वजह है कि जो भी नेता साफ छवि का है, या जोड़ तोड़ नहीं कर सकता वो राज्यसभा में जाकर बैठ जाता है। या फिर राजनीतिक दलों के मैनेजमेंट और प्रवक्ता की कुर्सी संभाल लेता है। और लड़ने यानि चुनाव लड़ने का काम लड़ाकू लोगों को मिल जाता है।.... और फिर ऐसे लोग ढूंढे जाते हैं, जो दबंग हों। या फिर किसी तरह से वोट का जुगाड़ कर एक सीट पक्की कर लें।
ऐसा नहीं है कि देश में सज़ायाफ्ता लोगों के चुनाव लड़ने से संबंधित कानून नहीं है। जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8 (3) के तहत दो साल से ज्यादा के सजायाफ्ता चुनाव नहीं लड़ सकते। लेकिन अक्सर इस कानून का भी फायदा उठाया जाता रहा है। अब इस फैसले के बाद उम्मीद बंधने लगी है, कि कम से कम सज़ायाफ्ता लोग चुनाव की दौड़ से बाहर रहेंगे।
हालांकि ऐसे लोग इसका भी तोड़ जानते हैं। ऐसे कई अपराधी नेता हैं, जो चुनाव नहीं लड़ सकते, सो उन्होने अपनी पत्नी, भाई या किसी और रिश्तेदार को चुनाव मैदान में उतार दिया है। यानि चेहरा बदल गया है, पर असल चीज़ में कोई बदलाव नहीं हुआ।
उम्मीद थी कि इस बार के चुनाव में राजनीतिक दल अपराधियों पर नकेल कसेंगे। लेकिन राजनीति की रसाकसी में अपराधियों के कपड़ों पर लगे खून के धब्बे किसी पार्टी को नज़र नहीं रहे। क़त्ल, लूटपाट, ब्लात्कार, चोरी, आगजनी, धोखाधड़ी, अपहरण और भी ना जाने कितने अपराध लादे नेता पार्टियों से टिकट मांगे फिर रहे हैं। एक पार्टी टिकट देने से मना करती है, तो वो आंख दिखाकर दूसरी पार्टी के दरवाजे चला जाता है। और अंतत: अपराध से सने लिपटे नेता टिकट पा रहे हैं। कोर्ट अधिक नहीं कर सकती। वो दो चार नेताओं पर नकेल कस सकती है। असल काम राजनीतिक दल कर सकते थे, लेकिन वो नहीं करते।

तो कौन करेगा राजनीति से इस कीचड़ को साफ ? अदालत ने अपना काम किया। अब हमारी बारी है।.... वोट वाले दिन हमें तय करना होगा कि वोट किसे दें ? एक अपराधी को........ जिसके दामन पर किसी गरीब के खून का धब्बा लगा है, या फिऱ ऐसे शख्स को जो ईमानदार है ?

खुद से एक सवाल पूछते रहिए ........... तब तक जब तक आप अपने वोट की ताकत से कुछ बदल ना दें।

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Saturday, March 28, 2009

रास्ते नहीं बदलते

ये जो ज़िंदगी है

हर रोज़ दिखाती है

नए नए आदमी ।

रास्ते नहीं बदलते

बदलते हैं आदमी ।।

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तुम पास ही हो...

तुम्हारा नहीं होना भी
जैसे तुम कहीं हो पास ही
जैसे खून दौड़ रहा है... नसों में
हड्डियां थामे हैं... मेरा मांस
सांस चल रही है... लगातार
आंखों पर पलकें झपक रही हैं
और तुम मेरे मन में
आती-जाती रहती हो ।।

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कुछ तो कीजिए....


क्या आप चाहते हैं कि अगली बार गर्मियों में बर्फ पड़े ? क्या आप चाहतें हैं कि बरसात में सूखा पड़े ? या फिर आप सर्दियों में लू लाने की बांट जोह रहे हैं ? शायद ही कोई हो, जो ऐसा चाहेगा। पर धरती को हम इसी ओर धकेल रहे हैं।
अब से ठीक दो घंटे बाद दुनिया को बचाने की हसरत रखने वाले लोग 'अर्थ आवर' का हिस्सा बनेंगे। जो लोग चाहते हैं कि उनकी आने वाली पीढ़ी के लिए हवा, पानी और पहाड़ बचे रहें, वो लोग अज रात ८.३० बजे से ९.३० बजे तक बत्तियां बुझाने वाले हैं। और जो पृथ्वी की परवाह नहीं करते , उनके बारे में कुछ कहना कहां मुनासिब होगा ?
लोग कह सकते हैं, कि उनके एक घंटा बिजली बंद करने से क्या फर्क पड़ेगा ? लेकिन अर्थ आवर मुहिम का हिस्सा होने का मतलब सिर्फ बत्तियां बुझा लेना नहीं है। इस मुहिम का हिस्सा बनकर हम खुद से एक वादा कर सकते हैं, कि हम बेवजह ऊर्जा बरबाद नहीं करेंगे। साथ ही हम खुद से वादा कर सकते हैं कि हम आने वाले दिनों में अपनी धरती, अपने पर्यावरण और अपने आस-पास के पेड़ों का ख्याल रखेंगे।
हर पेड़ की सुरक्षा अर्थ आवर की मुहिम का हिस्सा है। सब जानते हैं कि धरती गरम हो रही है, मौसम लगातार बदल रहा है। बरसात के दिनों में सूखा, गर्मी में बरसात-ओले और सर्दियों में लू पड़ रही है। कौन चाहेगा कि हमारी आने वाली पीढी के लिए शिमला और नैनीताल में बर्फबारी एक इतिहास बन जाए ?
क्या आप चाहेंगे, कि बर्फबारी देखने के लिए हमारी आने वाली पीढियों को अंटार्कटिका जाना पड़े। और कौन जाने कि धरती के गरम होने का सिलसिला यूं ही चला तो पचास साल बाद अंटार्कटिका का क्या हाल होगा ?
दूर क्यों जाएं ? आज से पच्चीस साल पहले तक जिस नैनीताल में भारी बर्फबारी होती थी, आज बर्फ कभी कबार ही पड़ती है। हिमालय से निकलने वाला गोमुख लगातार सिकुड़ रहा है।
हममें से कई कह सकते हैं, इसके लिए हम तो ज़िम्मेदार नहीं। पर बिजली की खपत हमने ही बढ़ाई है, घड़े को फेंककर फ्रिज़ घर में कौन लाया है ? फ्रिज़ लाने में कोई बुराई नहीं.... पर बिजली की खपत नियंत्रित रहे, ये कौन देखेगा ? ज़ाहिर है, हमें ज़िम्मेदार बनना होगा।

तो हम एक संकल्प तो ले ही सकते हैं, आज केवल एक घंटा अपने घर की बत्तियां बुझाएं। याद रखना, हमें अपनी आने वाली पीढ़ियों को वही दुनिया देनी है, जिसमें हमने सांस ली। दोस्तों.... मैं तो रात ८.३० बजे से लेकर ९.३० बजे तक बत्तियां बुझाने वाला हूं। आप क्या करेंगे नहीं जानता ?

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Friday, March 27, 2009

चलो प्रियतम, विदा

चलो प्रियतम, विदा
प्रेम रहे सदा
जीवन तो चलता रहेगा
यात्रा भी
रुक नहीं सकते कदम ।।

अब यादों में
आना-जाना होगा
याद रखना
हंसकर मिलना
मैं भी कोशिश करुंगा
चलो प्रियतम, विदा ।।

जीवन
सफर से कम तो नहीं
हम राही थे
अब बिछड़ना भी होगा
कदम दो कदम चले साथ
इतना भी काफी था
अब उन निशानों पर
देखो धूल जमी है
चलो प्रियतम, विदा ।।

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कल बत्तियां बुझाकर रखना


शिकागो, कोपनहेगन, टोरॉन्टो, डबलिन और दिल्ली, मुंबई समेत दुनिया के 371 शहर शनिवार की शाम एक घंटे के लिए अंधेरे में डूब जाएंगे। पर घबराने की कोई बात नहीं है। दरअसल इन शहरों के लोग अपनी मर्जी से एक घंटे के लिए बिजली से चलने वाले सभी उपकरण बंद कर देंगे, जिससे दुनिया में ग्लोबल वॉर्मिन्ग के बढ़ते खतरे के बारे में जागरुकता बढ़ाई जा सके।
इस घंटे का नाम ' अर्थ आवर ' यानी ' एक घंटा धरती के लिए रखा गया है। इस दिन की शुरूआत एक ख़ास मकसद के लिए 2007 में हुई, ये मकसद था, धरती को बचाना। लोगों में जलवायु समस्या के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए लोगों ने एक अलग तरीका निकाला। इस दिन लोग एक साथ अपने-अपने स्तर पर अपने-अपने घरों की बत्तियां बुझाते हैं। लक्ष्य यही है कि आने वाली पीढ़ियों को रहने लायक दुनिया मिल सके।
ऑस्ट्रेलियाई नागरिकों ने 2007 में विश्व का तापमान बढ़ने के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए "अर्थ आवर" को मनाने के लिए 60 मिनट के लिए अपनी बत्तियां बुझायी। अभियान को विश्व वन्य जीवन कोष (डब्ल्यू डब्ल्यू एफ) ने सिडनी में शुरू किया था। अब यह अभियान दुनिया भर के बड़े शहरों डब्लिन से लेकर शिकागो तक और बैंकॉक से लेकर मनीला तक फैल गया है और अर्थ आवर एक अंतर्राष्ट्रीय आंदोलन बन गया है ।
सिडनी में 2007 में जब अर्थ आवर की शुरुआत हुई, तो इस अभियान में करीब 20 लाख लोग जुड़े, लेकिन एक साल बाद ही इसमें दुनियाभर के करीब 5 करोड़ लोग जुड़ गए। जब ये अभियान सिडनी में शुरू हुआ तो लोगों को उम्मीद नहीं थी कि ये लोगों के बीच इतना लोकप्रिय हो जाएगा। इस अभियान के आयोजकों का उद्देश्य यह दिखाना है कि लोग पर्यावरण परिवर्तन के बारे में परवाह करते हैं तथा अपनी सरकारों पर निर्णायक कदम उठाने के लिए दबाव डालना चाहते हैं।
अर्थ आवर के फाउंडर ऐंडी रिडली के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया, कनाडा से लेकर फिजी तक 371 शहरों और स्थानीय प्रशासन इस मुहिम का हिस्सा बनेंगे। अर्थ आवर के तहत सभी लोग 60 मिनट के लिए बिजली का इस्तेमाल नहीं करेंगे। इनमें दफ्तर और घर सभी शामिल हैं। रिडली के मुताबिक कई यूरोपीय शहर जैसे रोम और लंदन आधिकारिक रूप से इस मुहिम से नहीं जुड़े हैं, लेकिन उम्मीद की जा रही है कि इन शहरों में भी लोग एक घंटे के लाइटें स्विच ऑफ करेंगे और अर्थ आवर का हिस्सा बनेंगे।
इस साल 'अर्थ आवर' मुहिम के तहत भारत के दो मुख्य शहर दिल्ली और मुंबई में भी लोग रात 8.30 बजे से रात 9.30 तक एक घंटे के लिए इमारतों की बत्तियां बुझाएंगे। इस अभियान में भारत पहली बार शिरकत कर रहा है। लोग बत्तियां बुझाकर दुनियाभर के नीति निर्माताओं तक यह संदेश पहुंचाना चाहते हैं कि हमारे धरती को बचाने की खातिर ठोस नीतियां बनाने और उन्हें अमल में लाने का वक्त आ चुका है।
ये अभियान ऑस्ट्रेलिया में ख़ासा लोकप्रिय हो रहा है। ऑस्ट्रेलिया में "अर्थ आवर" अभियान को मनाने के लिए कई तरह के समारोह होते हैं। जिनमें पारंपरिक ऐबोरिजिनल मशाल अभियान, पर्यावरण की दृष्टि से लाभदायक रात्रिभोज और अकेले रहने वाले लोगों के लिए मोमबत्ती के प्रकाश में विशेष शामें आयोजित की जाती हैं। कुछ नाइट क्लबों तो बत्तियां जलाए बगैर काम करते हैं, जबकि ज्यादातर ऑस्ट्रेलियाई नागरिक इस अभियान का हिस्सा बनने के लिए अपने घर पर अंधेरा करते हैं। यहां तक
की सिडनी हार्बर ब्रिज और ओपेरा हाउस जैसे प्रतीकात्मक स्थलों में भी प्रकाश धीमा कर दिया जाता है।
ऑस्ट्रेलिया में विश्व का तापमान बढ़ने का मुद्दा अहम है और इसका कारण भी है । ऑस्ट्रेलिया प्रतिव्यक्ति ग्रीनहाउस पैदा करने वाले विश्व के सबसे खराब देशों में से एक है । बहुत से देशों का मानना है कि हाल ही में पड़ा आकाल और बाढ़ पर्यावरण को असंतुलित करने के मनुष्य के कार्यों का परिणाम है ।

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Sunday, March 22, 2009

अलविदा....अब तारों संग चमकूंगी !

( आखिरकार जेड गुडी नहीं रही.... अपने बच्चों से दूर चली गयी एक मां, अपने बच्चों से दूर जाते हुए गुडी ने कहा अलविदा बच्चों.... अब आसमान की ओर देखना.... तारों संग चमकेगी तुम्हारी मां। .... ये कविता मैंने 2 दिन पहले लिखी थी। एकबार फिर लगता है... गुडी के दर्द को महसूस करते हुए, उसकी जिजिविषा को महसूस किया जाए। )

कैसा होता होगा ?
खुद को मरता हुआ देखना
एक-एक पल शरीर को गलता देखना
कैसा होता होगा ?

एक-एक सांस को उखड़ते देखना
मौत जब दबे पांव नहीं आती
उद्घोष करती है
अपने आने का
कानों के बिल्कुल करीब आकार ।।

फिर एक-एक दिन
आंखे देखती हैं
पल-पल गुजरते हुए
जैसे बंद मुट्ठी से रेत निकल जाती है
कैसा होता होगा ?

कैसा होता होगा ?
२७ साल की उम्र में
कैंसर को भोगना
वो कैंसर जो दूर-दर तक जड़ें जमा चुका है
कभी ना ठीक होने के इरादे के साथ ।।

ऐसे वक्त में
जब आप मां हो
और आपके इर्द गिर्द
दो नन्हें मुन्हें घूम रहे हों
और आपको पता हो
कल मुझे नहीं रहना ही
कैसा होता होगा ?

जेड गुडी है उसका नाम
मौत उसे उससे छीन रही है
उसकी आंखों के सामने
डॉक्टर कहते हैं.....
एक हफ्ता और
और फिर.....
जेड को भी मालूम है
वो नहीं रहेगी
मौत आएगी
और सब ख़त्म हो जाएगा ।।

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Saturday, March 21, 2009

हमारी कहानी कौन सुनाएगा ?

  • दुनिया के सबसे बड़े बैंकों में से एक सिटीग्रुप ने ७५ हज़ार लोगों को निकाला।
  • अमरीका की कार कंपनी जनरल मोटर्स ने ४७ हज़ार लोगों की छंटनी की घोषणा की।
  • विमान कंपनी बोइंग ने इस साल ४५०० नौकरियां घटाने की घोषणा की।
  • ब्रिटेन की दूरसंचार क्षेत्र की सबसे बड़ी कंपनी ब्रिटिश टेलीकॉम (बीटी) ने १० हज़ार लोगों की छंटनी की घोषणा की।
  • कसीनो चलाने वाली बड़ी कंपनी लास वेगास सैंड्स ने मकाऊ में कैसीनो बनाने का काम रोक दिया, जिसके बाद ११ हज़ार लोगों की नौकरी ख़तरे में पड़ी।
  • दुनिया की दिग्गज मोबाइल फोन निर्माता कंपनी नोकिया 1700 कर्मचारियों की छंटनी करेगी।
  • कंप्यूटर और सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की प्रमुख आईटी कंपनी डेल घाटे के बाद एशिया क्षेत्र में छंटनी कर 4 अरब डॉलर की बचत करेगी।
  • जापान की इलेक्ट्रॉनिक उपकरण निर्माता कंपनी सोनी 350 लोगों की छंटनी करेगी।
  • आईबीएम 4600 लोगों की छंटनी करेगा।

ये है, समाचार पत्रों और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा छंटनी पर प्रकाशित और प्रसारित ख़बरों की हेडलाइन्स। पहले मंदी और फिर छंटनी पर मीडिया ने लगातार कवरेज दी है। पिछले साल अक्टूबर की ही बात है, जेट एयरवेज़ की छंटनी के वक्त मीडिया ने किस तरह काम किया। भारत की सबसे बड़ी विमानन कंपनी जेट एयरवेज़ ने जब अपने 1900 कर्मचारियों को नौकरियां ख़त्म करने का नोटिस थमाया तो मीडिया ही था... जो आवाज़ बना। काफी बवाल मचा, और मजबूरन जेट एयरवेज़ को अपने कर्मचारियों की नौकरी बहाल करनी पड़ी।

लोगों ने इस काम के लिए मीडिया की जमकर तारीफ की। मीडिया के हम लोगों ने भी अपनी पीठ ठोकी। और कहा, हम सामाजिक सरोकारों से जुड़े हैं। हमने ताल ठोककर ये भी कहा कि हम लोग समाज की सच्चाई दिखाते हैं। और ऐसे लोगों का पक्ष लेते हैं, जिनकी रोजी रोटी पर संकट आ गया हो। बात ठीक भी है, हम लोग ऐसा करते भी हैं। मीडिया ने वक्त बेवक्त अपनी भूमिका का बखूबी निर्वाह किया है।

लेकिन मीडिया एक जगह आकर चुप क्यों हो जाता है ? आप पूछेंगे, वो कौन सी जगह है... जहां हमारी सारी ताकत बेअसर हो जाती है ? बड़े-बड़े पत्रकारों की कलम जवाब देने लगती है। नेताओं के मुंह में माइक घुसेड़कर जवाब उगलवाने वाले भी चुप नज़र आते हैं। यहां आकर पत्रकार पत्रकारिता के सारे सिद्धांत भूल क्यों जाते हैं ? निडर पत्रकारिता की बात करने वाले जांबाज़ पत्रकारों को भी डर लगने लगता है।

दरअसल पूरी दुनिया जहान की परेशानियों के जवाब ढूंढने वाले हम पत्रकार अपनी ही परेशानियों की कभी बात नहीं कर पाते। हमारी नौकरी पर संकट हो तो कोई ख़बर कभी नहीं बनती। पत्रकारों की नौकरी चली जाए, तो कोई आवाज़ नहीं उठाता। ...... हाल फिलहाल के महीनों में अख़बारों, टीवी न्यूज़ चैनलों और वेबसाइटों ने सैकड़ों पत्रकारों को नोटिस थमाकर काम पर आने से रोक दिया।.... सैकड़ों पत्रकार रातों रात बेरोजगार हो गए। लेकिन छंटनी को हेडलाइन बनाने वाले मीडिया ने अपने लोगों की पीड़ा को ख़बरों में तरजीह नहीं दी। आखिर कौन सी मजबूरी है ? कौन सा डर है, जो पत्रकारों की पीड़ा बताने से रोक रहा है ?

ऊपर छंटनी के आंकड़े देने के पीछे मकसद यही है, कि किस तरह मीडिया छंटनी की खबरें लगातार दिखाता रहा है। मंदी ने पूरी दुनिया में लाखों लोगों को नौकरी से बाहर कर दिया। मीडिया ने छंटनी की इन ख़बरों को खूब दिखाया। पर जब अपने घर पर छंटनी के बादल मंडराए, तो हम बस देखते ही रहे। हमारे सामने ही ना जाने कितने पत्रकारों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा। लेकिन किसी पत्रकार ने इसे एक कॉलम की ख़बर नहीं बनाया।

हम मंदी पर चर्चा करते रहे। आर्थिक मंदी के असर की हमने ढेर सारी बातें की। इसका क्या असर हो रहा है, इस पर भी खूब बातें हुई। लेकिन इन सारी चर्चाओं में नौकरी खो चुके पत्रकारों का ज़िक्र एकबार भी नहीं हुआ। बात ऐसी नहीं है कि मीडिया में छंटनी हो या फिर नहीं ? अगर मीडिया बाज़ार का हिस्सा है, तो ज़ाहिर है इसे बाज़ार के सिद्धांत ही चलाएंगे। तो फिर मीडिया की कंपनियां लोगों को चोरी छिपे क्यों निकाल रही हैं ? क्यों दूसरे क्षेत्रों की कंपनियों की तरह खुलेआम छटंनी की घोषणा नहीं की जाती ? क्या मीडिया से जुड़ी कंपनियां लोगों की छंटनी करने के बावजूद पाक साफ बने रहना चाहती हैं ?

पूरी दुनिया जानती है कि हद से ज़्यादा खुले बाज़ार ने दुनिया को एक ख़तरनाक आर्थिक परिस्थितियों की ओर धकेल दिया है। अमरीका से शुरू हुआ ये तूफान पूरी दुनिया में साइक्लोन की तरह घूम रहा है। अमरीका में साल 2008 में 26 लाख लोगों की नौकरी गई। ये आंकड़ा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अबतक तक का रिकॉर्ड है। आर्थिक मामलों के जानकार कह रहे हैं, कि साल २००९ मंदी का भयानक असर दिखाएगा।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन का कहना है कि इस साल आर्थिक मंदी की वजह से दुनिया भर में पांच करोड़ लोगों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ सकती है। ज़ाहिर है इससे एशियाई मुल्क भी नहीं बचेंगे। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक विश्व भर में छाए वित्तीय संकट के कारण साल 2009 में एशियाई देशों में लगभग २.3 करोड़ नौकरियां जा सकती हैं।

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Friday, March 20, 2009

चलो प्रियतम, विदा

चलो प्रियतम, विदा
प्रेम रहे सदा
जीवन तो चलता रहेगा
यात्रा भी ।
रुक नहीं सकते कदम ।

अब यादों में
आना-जाना होगा
याद रखना
हंसकर मिलना
मैं भी कोशिश करुंगा
चलो प्रियतम, विदा ।

जीवन
सफर से कम तो नहीं
हम राही थे,
अब बिछड़ना भी होगा ना
कदम दो कदम चले साथ
इतना भी काफी था ।
अब.... उन निशानों पर भी तो,
धूल जमी है ।
चलो प्रियतम, विदा ।

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Thursday, March 19, 2009

क्या मैं एंकर नहीं बन सकता ?

ये बहुत निजी मामला है। लोग कह सकते हैं, मैं फ्रस्ट्रेट हो गया हूं। पर फिर लगता है, कहे बिना भी तो मन नहीं मानेगा। लोग ये भी कह सकते हैं, मैं जिस थाली में खा रहा हूं, उसी में छेद करने की जुर्रत कर रहा हूं।
पर सारी बातें एक तरफ... और सच्चाई एक तरफ। सच तो कहना ही चाहिए। बहुत पहले मीडिया के एक बड़ा चेहरा है, एंकर हैं, बड़ा नाम है उनका..... इन्हीं साहब की लिखी एक किताब पढ़ी थी। उन्होने लिखा था, ' मीडिया में हम सुबह से लेकर शाम तक के टाइम स्लॉट में खूबसूरत लड़कियों से एंकर करवाना पसंद करते हैं।' ..... फिर खुद ही उन्होने साफ किया, 'ये टीआरपी का पंगा है। दिन के वक्त लोग खूबसूरत चेहरों को देखना अधिक पसंद करते हैं।' ज़ाहिर है, इससे टीआरपी का चक्का तेज़ी से घूमता है।

सच कहता हूं.... मुझे उनके तर्क पर गुस्सा आया था। उन्होने अपनी इस किताब में टेलीविजन न्यूज़ के बारे में बताते हुए लिखा----- 'टीवी न्यूज़.... साहब ये एंकर और रिपोर्टर होते हैं। एकंर और रिपोर्टर मिलकर टीवी न्यूज़ का निर्माण करते हैं।' मन किया उनसे सवाल पूछूं.... श्रीमान जी ये डेस्क (प्रोड्यूसर) वाले क्या करते हैं। इनका टेलीविज़न न्यूज़ में कोई योगदान होता है क्या ?

खैर... मैं मामले से क्यों भटकूं ? सारा मामला तो एंकरिंग का है। सच बताऊं तो मैं भी एंकर बनना चाहता हूं। पर कोई तो हो, जो कहे... भई, तुम एंकरिंग क्यों नहीं करते ? कोई तो पारखी नज़र हो जो कहे.... चलो आज से तुम शुरू करो। छह साल हो गए मुझको... काम करते हुए। सारे लोग यही कहते हैं, कि मैं अच्छा काम करता हूं। पर कोई ये नहीं कहता, कि चलो एंकरिंग करो।

पर इन पारखी लोगों की नज़रे खूबसूरत चेहरों को बहुत जल्दी पहचान लेती हैं। जो लोग मीडिया को करीब से जानते हैं, वो सहमत होंगे कि मीडिया में पदों पर बैठे लोगों को खूबसूरत चेहरे पहचानने में ज़रा भी दिक्कत नहीं होती। ये लोग जिसे चाहें उसे एंकर बना दें। एंकर बनने और बनाने के पीछे क्या चलता है। इसकी मुझे कोई जानकारी नहीं है। पर वक्त बेवक्त मैंने कई कहानियां सुनी है। सारी सच ही होंगी ऐसा मैं नहीं कह सकता।

मैं जानता हूं, ऐसे हसीन चेहरों को, जिन्हें ये मालूम नहीं कि मुलायम सिंह यादव कौन हैं ? और गठबंधन किसे कहते हैं ? पर साहब .... पारखी लोगों को इससे क्या फर्क पड़ने वाला। उनके लिए जैसे एंकर होने की पहली प्राथमिकता एक खूबसूरत चेहरा और दूसरा हंसकर बात करने की कला है।

अब फिर से उन बड़े एकंर... बड़े नाम से एक सवाल।.... जो ये कहते हैं कि टीवी न्यूज़ एंकर और रिपोर्टर है।..... तो साहब आपको बता दूं कि मुलायम सिंह कौन हैं ? ये सवाल पूछने वाले ज्ञानवान एंकरों को हम डेस्क वाले नादान ही बताते है.... कौन है, मुलायम सिंह ?

आपके साथ हुआ हो या नहीं, मेरे साथ तो हुआ है। ऐसे भी ज्ञानवान एंकरों को जानता हूं, जो लाठी चार्ज वाली घटना पर रिपोर्टर से सवाल पूछ रही थी...... ' तो .... बताइए..... कैसा माहौल है ?.... अच्छा ये बताइए अब अगला लाठी चार्ज कब होगा ? ' ........................अब अगला लाठी चार्ज कब होगा !!!!!!!!!!!!! पर ये भी खूबसूरत थी, ज़ाहिर है बॉस ने कहा होगा, चलो सीख जाएगी.... काम करते-करते। सही कहा था बॉस ने। ये एकंर आज देश के एक बड़े चैनल पर चमक रही है।

पर मैं ऐसे लोगों को भी कुढते हुए देखता हूं। जो टीवी के पर्दे पर चमक रहे थे। लेकिन आजकल उन पर धूल जम गयी है। भई... क्यों जमी है, उन पर धूल.... ये सवाल कोई पारखी नहीं पूछता ? अब ऐसे लोगों के दर्द के सामने मेरा दर्द तो कुछ भी नहीं है ना।..... मैं तो बनना चाहता हूं, पर वो बेचारे बने हुए थे...... लेकिन उनकी बेकद्री कर दी गयी।

पर फिर भी कहता हूं। ................. बहुत मन करता है..... मैं भी एंकर बनूं

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महफूज़ नहीं बेटियां

ये सब लिखते हुए, मन कई सवाल पूछ रहा है। घटना ही कुछ ऐसी है। ऑस्ट्रिया के जोसेफ फ्रित्जल की कहानी सुने एक दो दिन ही हुए थे, बिल्कुल करीब से एक ऐसी ही कहानी सुनने को मिल गयी। मुंबई में एक आदमी अपनी ही बेटी से ९ साल तक बलात्कार करता रहा।

मैंने कुछ दिनों पहले ही ' मां है, वो भी ' शीर्षक से एक पोस्ट लिखी थी। मैंने उसमें महिलाओं के सामने घर में उपजने वाले ख़तरों की ज़िक्र किया था। लेकिन उस वक्त मेरे दिमाग में ये बात कहीं भी नहीं थी कि बेटियों को ख़तरा अपने पिता से भी होता है।

पहले वो पढ़िए... जो मैंने लिखा था--- ' क्या प्रकृति ने मर्दों को औरत पर शासन करने के लिए ही तैयार किया होगा ? ये सवाल मेरे दिमाग में बार-बार आता है। और ऐसे मौकों पर तो और अधिक, जब हम महिला दिवस जैसे दिनों की बात करते हैं। .... घर की चौखट लांघते ही औरत की मुश्किलें क्यों बढ़ जाती हैं ? शायद मैं गलत हूं, मुश्किलें तो चौखट के अंदर भी कम नहीं। '---------- ( मां है, वो भी)

मुंबई में बेटी से बलात्कार नौ साल तक हुआ। तब उस बदनसीब की उम्र महज़ 11 साल थी। जब वहशी बाप ने उसे पहली बार अपना शिकार बनाया। पिता ही अपनी बेटी का दुश्मन नहीं था, मां ने भी अपने वहशी पति का साथ दिया। मां के सामने पिता बेटी की अस्मत लूट रहा था, लेकिन मां ने नहीं रोका। ऐसा कैसे हो सकता है ? ये सवाल जितना बड़ा है, उतना ही जटिल भी।

ऑस्ट्रिया के जोसेफ फ्रित्जल की कहानी भी इतनी ही शर्मनाक है। जोसेफ अपनी बेटी के साथ २४ साल तक बलात्कार करता रहा। उसके अपनी ही बेटी से सात बच्चे पैंदा हुए। २४ साल तक एक बेटी को वो सब भोगना पड़ा, जिसकी कल्पना मात्र से रुह कांप जाती है। हालांकि अब ये वहशी अपने किए की सज़ा भुगत रहा है। ऑस्ट्रिया की अदालत ने उसे उम्रकैद की सजा सुनाई है। 73 वर्षीय इस हैवान बाप ने का कहना है कि उसे पता ही नहीं था कि बात इतनी बढ़ जाएगी।

जिस वक्त अदालत वहशी बाप को सज़ा सुना रही थी, बदनसीब बेटी एलिजाबेथ कुर्सी पर बेजान पत्थर सी बैठी थी। लोग उसकी ओर एकटक देख रहे थे, लेकिन एलिजाबेथ चुपचाप बैठी रही। उसके चेहरे पर किसी किस्म का कोई हाव-भाव ना था। होता भी कैसे ? सारे भाव तो उसके अपने ही बाप ने कुचल डाले।
जोसेफ ने अपनी बेटी के साथ बलात्कार का सिलसिला उस समय शुरू किया, जब वो 18 साल की थी। उसने अपनी बेटी को तहखाने में कैद करके रखा, ताकि उसकी करतूतों का पता किसी को ना चल सके। जोसेफ के कुकर्मो की शिकार एलिजाबे बारबार गर्भवती होने लगी।

जोसेफ के कुकर्मो का खुलासा उस समय हुआ, जब उसकी एक बेटी गंभीर रूप से बीमार हो गई। उसकी हालत देख जोसेफ को उसे अस्पताल ले जाने के लिए मजबूर होना पड़ा। डॉक्टरों को बेटी की हालत देखकर शक हुआ। उन्होंने जोसेफ से उसकी मां बारे पूछा और उसे अस्पताल लाने को कहा। जोसेफ एलिजाबेथ को अस्पताल ले गया। और इसी ने उसकी सारी पोल खोल दी। अस्पताल पहुंची दुखियारी एलिजाबेथ ने सभी के सामने अपने बाप के कुकर्मो की कहानी सुना डाली। उसकी कहानी सुन हर किसी की आंख भर आई और वहशी जोसेफ के खिलाफ उनके मनों में नफरत भर गई।

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जेड गुडी के नाम पर


कैसा होता होगा ?
खुद को मरता हुआ देखना
एक-एक पल शरीर को गलता देखना
कैसा होता होगा ?
एक-एक सांस को उखड़ते देखना

मौत जब दबे पांव नहीं आती
उद्घोष करती है
अपने आने का
कानों के बिल्कुल करीब आकर

फिर एक-एक दिन
आंखे देखती हैं
पल-पल गुजरते हुए
जैसे बंद मुट्ठी से रेत निकल जाती है
कैसा होता होगा ?

कैसा होता होगा ?
27 साल की उम्र में
कैंसर को भोगना
वो कैंसर जो दूर-दर तक जड़ें जमा चुका है
कभी ना ठीक होने के इरादे के साथ

ऐसे वक्त में जब आप मां हो
और आपके इर्द गिर्द
दो नन्हें मुन्हें घूम रहे हों
और आपको पता हो
कल मुझे नहीं रहना है
कैसा होता होगा ?

जेड गुडी है उसका नाम
मौत उसे उससे छीन रही है
उसकी आंखों के सामने
डॉक्टर कहते हैं.....
एक हफ्ता और
और फिर.....
जेड को भी मालूम है
वो नहीं रहेगी
मौत आएगी
और सब ख़त्म हो जाएगा ।।

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Wednesday, March 18, 2009

सुनो, मैं नैनीताल बोल रहा हूं : एक

इक शहर की आत्मकथा

मैं नैनीताल हूं। पर अब मैं बूढ़ा हो गया हूं। अब मेरे वस्त्रों की तुरपन उधड़ गयी है। मेरे शरीर पर तीखी दरारें उभर आई हैं। मेरी आंखें, आज सब कुछ बदला-बदला सा देख रही हैं। जिसे जहां मन करता है, वही मुझको ठोक-पीट रहा है।
तुम सोचोगे, मैं सठिया गया हूं, इसलिए अनाप-शनाप बक रहा हूं। पर १६७ साल होने पर भी मुझे सबकुछ याद है।आओ, थोड़ा पीछे लेकर चलूं तुमको। बहुत पुरानी बात है। १६९ साल पहले की बात है। मैं चारो ओर घने पेड़ों से घिरा अकेला रहता था। मेरे दो ही साथी थे, तब।
एक नैना देवी का मंदिर, और दूसरा साफ पानी से भरा ताल। हां, तब भी साल में एकबार यहां बड़ी भीड़-भाड़ रहती थी। साल में जब एकबार नैना देवी के मंदिर में मेला लगता, तो लोग दूर-दूर से यहां आते थे। घुप्प शांति के बीच नैना देवी के जयकारों के बीच मैं डूब जाता।
१९४१ तक मेरी सीमाओं की देखभाल थोकदार नरसिंह किया करता था।पहली बार १८३९ में एक फिरंगी ट्रेल की नज़रें मुझ पर पड़ी। इसके ठीक दो साल बाद १८४१ में एक और फिरंगी मिस्टर बैरन यहां पहुंचा। बैरन शराब का व्यवसायी था। जब उसने तीन ओर पहाड़ों से घिरे मेरे सौंदर्य को देखा तो उसने मन ही मन एक फैसला कर लिया।
वो मुझे थोकदार नरसिंह से खरीदना चाहता था।थोकदार नरसिंह, मुझे पवित्र भूमि कहता था। वो मुझे उस अंग्रेज को नहीं सौंपना चाहता था। लेकिन बैरन ने किसी तरह जुगत भिड़ाकर नरसिंह से मेरा मालिकाना अपने नाम करवा लिया। मेरा मालिक बदल गया। पुराना मालिक ५ रुपए माहवार पर मेरा पटवारी बन गया। उस दिन मैं पहली बार रोया था।
मेरा मालिक बदल गया। ये मेरे जीवन का अहम मोड़ था। मैं नहीं जानता था कि नियति मुझे कहां ले जाएगी, और आने वाले दिनों में मेरा स्वरुप क्या होगा ? खैर... कितने ही बदलाव देखे हैं, मेरी बूढ़ी आंखों ने। शायद तुम्हें आश्चर्य लगे। कितनी ही बार मेरे शिखऱ नीचे को दरक आए ? लगा.... मानों मैं मर जाऊंगा।
१८६७ में शेर का डांडा और १९ सितंबर १८८० को विक्टोरिया होटल के पास भीषण भूस्खलन हुआ। इसमें १५१ लोग मारे गए। मरने वालों में ४३ गोरे भी थे। ये भूस्खलन इतना ज़ोरदार था, कि इससे मेरा वर्तमान भी जुड़ा है। इसी भू-स्खलन में वर्तमान फ्लैट का निर्माण हुआ। आज यहां पर लोग क्रिकेट और फुटबॉल के मैच खेलते हैं।
इस भू-स्खलन के कुछ साल बाद ९ अगस्त १८९८ को कैलाखान पहाड़ी पर भू-स्खलन से बलियानाला दुर्गापुर नाले की ओर मुड़ गया। समें २९ लोग मारे गए।१८९१, १९०१, १९४२ में भी ... मैंनै भीषण भूस्खलन देखे हैं। कई लोग मरे ... इसमें। प्रकति मुझे बार-बार बदलती रही है। नैनादेवी के मंदिर को ही लो। जब अग्रेज व्यापारी बैरन यहां या, उससे पहले यह तल्लीताल डांट के पास था, जहां आजकल डाकघर है। बैरन ने अपनी किताब 'हिमाला' में भी इसका वर्णन किया है। फिर नैना देवी मंदिर को वर्तमान बोट हाउस क्लब के पास बनाया गया। इसके भू-स्खलन में दब जाने पर, १८८० में ये मंदिर वर्तमान स्थान पर शहर की जानीमानी हस्ती लाल मोतीराम साह जी ने बनवाया।
बैरन मेरे सौंदर्य से अभिभूत तो था ही। उसने मुझे आबाद करने के मन से कलकत्ता से निकलने वाले अखबार 'आगरा अखबार' में मेरे बारे में लिखा। बैरन यहां एक शहर बसाना चाहता था। खबर छपने के बाद कई अंग्रेज यहां की ओर आकर्षित हुआ। और इस प्रकार १८४१ में नैनीताल शहर का निर्माण शुरू हो गया। सबसे पहले बैरन ने अपने लिए एक कोठी बनायी। इसके बाद कुमांऊ के तत्कालीन कमिश्नर लाशिंगटन ने १८४१ में अपने लिए एक कोठी का निर्माण करवाया। इसी वक्त १८४०-४१ के आसपास नैनीताल शहर का बंदोबस्त हुआ।
भारतीयों में सबसे पहले कोठी बनाने वालों में लाला मोतीराम साह थे। इस प्रकार नैनीताल में धीरे-धीरे कोठियां बनने का सिलसिला शुरू हो गया। सन् १८५७ में यहां प्रांतीय लाट रहने लगा। १८६२ में उसने अपनी कोठी रैमजे हॉस्पिटल के पास बनवायी।... १८६५ में पहले लाट डूमंड ने अपनी कोठी शेर का डांडा में बनवायी। इसी कोठी में बाद के कई लाट रहे।
अरे ... एक बात तो मैं पीछे ही छोड़ या। १८४१ में जब शहर का निर्माण शुरू हुआ, तो इससे ठीक चार साल बाद यानि १८४५ में मुझे नगरपालिका क्षेत्र बना दिया गया। बहुत कम लोग जानते हैं, कि मैं भारत का दूसरा सबसे पुराना नगरपालिका क्षेत्र रहा हूं। उसी समय से शहर की पूरी ज़िम्मेदारी नगरपालिका के ऊपर गयी। जब नगरपालिका अस्तित्व में आई, तब इसकी आमदनी ८००-९०० रुपे सालाना थी। धीरे-धीरे इसकी मदनी बढ़ती गयी, और १९३२ में नगरपालिका पांच लाख पांच हज़ार एक सौ चौबीस रुपए की अच्छी ख़ासी कमाई करने लगी।

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Tuesday, March 17, 2009

हर नए शख्स ने, नई कहानी कही / मुझसे

मैंने कई बार
रंगे शब्दों के चित्र
हर बार
इक नया रंग
और नई कहानी गढ़ी
धूप में सूखाया
अपने कच्चे शब्दों को ।

पर कई बार होता है
मेरे चित्रों की छाया में
वे रंग नहीं आते
जो मेरे चित्रों में सजे थे ।

हर नए शख्स ने
नई कहानी कही / मुझसे
इन चित्रों की आड़ी तिरछी
लकीरों के मतलब
हर बार बदले उसने ।

और, तब मैं असहाय सा होता हूं
अपनी ही गढ़ी कविता पर
उसके अर्थ
बदलते रहते हैं
उसके भाव भी ।

वो, कुछ और कहता है
तुम कुछ और ही
और मैं, तो बिल्कुल ही
अलग सा होकर
बस इतना कह सकता हूं
मन ही मन
मेरी कविता के अर्थों को ना बदलो
उसे मौलिक, सच्ची सीधी सी रहने दो ।।

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मैं ही तुम्हारे काबिल ना था

अब उस रास्ते ना कभी जाऊंगा
जहां कभी गुल-ए-बाग थे
लोग कहते हैं फूल अब भी हैं
मगर मेरी वीरानी मेरे साथ है ।।

ख़ुदा उन बागीचों को और आबाद करे
जहां पल दो पल गुजारे थे
माफ करना फूलों कलियों
मैं ही तुम्हारे काबिल ना था ।।

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Monday, March 16, 2009

सर कलम कर दूंगा

'ये हाथ नहीं है, ये कमल की ताकत है जो किसी का सर कलम कर सकता है।'

"अगर कोई हिंदुओं की ओर हाथ बढ़ाता है या फिर ये सोचता हो कि हिंदू नेतृत्वविहीन हैं तो मैं गीता की कसम खाकर कहता हूँ कि मैं उस हाथ को काट डालूंगा।"

ये पढ़कर क्या ऐसा नहीं लगता कि कोई तालिबान की भाषा बोल रहा है ? तालिबान की भाषा पीलीभीत में।..... चुनाव के मौसम में अलगाव की भाषा। पर इससे भी ज़रुरी ये है कि ये सब कौन बोल रहा है ?... ये एक युवा नेता की आवाज़ है.... जो पांच साल पहले बेहद कम उम्र में संसद पहुंचा।.... अब वो पहले से ज़्यादा परिपक्व हो गया है।...... पहले उसका नाम बता दूं.... उसका नाम है.... वरुण गांधी।..... मेनका गांधी के बेटे हैं वरुण गांधी।............ और बीजेपी में राजनीति करते हैं।

उत्तर प्रदेश के पीलीभीत से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार वरुण गांधी ने चुनाव प्रचार के दौरान अपने भाषण में ये बातें कहीं। जिसके बाद चुनाव आयोग ने भड़काऊ भाषण देने के आरोप में उन्हें नोटिस जारी किया है।

वरुण गांधी पांच साल पहले राजनीति में आए तो सीधे संसद पहुंच गए।..... पांच साल संसद में नेतागिरी के दांवपेंच ने उन्हें सिखा दिया है कि वोट बैंक की राजनीति कैसे करनी है।.... 'ये हाथ नहीं है, ये कमल की ताकत है जो किसी का सर कलम कर सकता है।' ये शब्द जब वरुण गांधी के मुंह से निकल रहे होंगे.... तो सोचिए उनके ज़ेहन में क्या चल रहा होगा।.... हमारी युवा पीढ़ी का नेता ...... सर कलम करने की बात कह रहा है।
चुनाव जीतने के लिए क्या सर कलम करना ज़रुरी है ?.... क्या विकास और आगे बढ़ने के मुद्दों के साथ चुनाव नहीं जीते जा सकते ?.... चुनाव से ठीक पहले ये बड़ा सवाल है।...... वोटों के धुव्रीकरण से हमारे नेता कब तक कुर्सी हथियाते रहेंगे... क्या हमें ये नहीं सोचना चाहिए ?
मैं ब्राह्मण... मैं ठाकुर.... मैं बनिया.... मैं पिछड़ा.................... इन्हीं खांचों में बंटकर हम राजनीति के हाथ के खिलौने बन रहे हैं।.... हमारी आंखों के सामने पार्टियां राजनीति की बिसात बिछाती हैं।.... और फिर ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, पिछड़ा.... और भी ना जाने क्या-क्या ? .... उम्मीदवार हम पर थोप दिए जाते हैं।..... फिर मतदान के दिन क्या होता है ? ..... ब्राह्मण, ठाकुर, बनिया, पिछड़े सब घरों से निकलते हैं..... और बिना सोच विचार किए.... वोट देकर घर लौटते हैं।

अब अगर ये फॉर्मूला कारगर है, तो नेता इसका इस्तेमाल क्यों ना करें ? ज़ाहिर है... राजनीति में सत्ता के करीब पहुंचना ही सबसे बड़ा मंत्र है। इसके लिए क्या कुछ नहीं किया जाता। इसका इतिहास भी साक्षी रहा है।.... लेकिन हम नेता नहीं हैं... ना ही राजनीति में हैं।..... हम जनता हैं...... सच मायने में राजनीति को बदलने की काबिलियत हमारे पास है।.... लेकिन जब तक हम अलग-अलग हैं.... कुछ नहीं कर सकते।
तो रास्ता क्या है ?............ रास्ता एक ही है.... अलगाव की राजनीति करने वालों को मुंहतोड़ जवाब दिया जाए। सर कलम करने वालों को बताया जाए, कि किसी समुदाय का सर कलम करने की ताकत उनके पास नहीं है।..... इस बात को समझा जाए.... कि हम लड़कर नहीं चल सकते।..... अगर हम लड़ना भी चाहें, अपने हाथों में हथियार उठा भी लें..... तो क्या ये लड़ाई एक-दो दिन में ख़त्म हो जाएगी ?.... लड़ने की बात करना आसान है.... पर शांति के साथ आपस में मिलकर काम करना उतना ही मुश्किल।

तो क्यों आसानी के रास्ते पर चलकर हम अपने लिए मुश्किलें खड़ी कर लें ? ..... अफगानिस्तान, इराक, फिलिस्तीन का इतिहास गवाह है...... एक समुदाय दूसरे को कभी पूरी तरह नहीं कुचल सकता। तो क्यों इतिहास की अवहेलना की जाए ? इतिहास सबक लेने के लिए होता है। उसे भूलाकर फिर से दोहराने के लिए नहीं।...... अगर ये नेता इस बात को नहीं समझ सकते, तो क्या हमें (जनता को) भी ये बातें भूल जानी चाहिए ?...................... सवाल कई हैं.............. जवाब हमें ढूंढना है।..... अपने मन से पूछिए क्या गलत है.... और क्या सही ?

शायद आपको जवाब मिल जाए।

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अब कहां जाऊं ?

सोचकर घर से निकला,
कि सैर दुनिया की कर आऊं
पर चौक से घर लौट चला।।

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Monday, March 9, 2009

जब मां मनाती थी होली...

होली का सिर्फ एक दिन बचा है। पिछले सात सालों से लगातार ऐसा हो रहा है, कि रंग चेहरे से तुरंत उतर जाते हैं। रंग उतने पक्के नहीं रहे। ये गांव से शहर आने के बाद ही शुरू हुआ। वरना जब गांव में था, तो रंग उतारे नहीं उतरता था।..... सोचता हूं उन रंगों में क्या था ऐसा ?

सात साल पहले मैं पढ़ लिखकर शहर की ओर भागा। लगा कि खुशहाली मेरे साथ होगी।.... खुशहाली की मायनों में आई भी है। लेकिन बहुत कुछ खोना भी पड़ रहा है।...... वैसे मैं अकेला नहीं हूं, जो इस व्यथा को भोग रहा है।.... हम सब जो अपनी जड़ों से उखड़ कर शहर में जड़ें तलाश रहे हैं..... उन सबकी कहानी है ये। ...... ज़ाहिर है शहर में रंगों की कमी नहीं है।..... दुकानें तरह-तरह के रंगों से भरी पड़ी हैं।..... लेकिन चेहरे पर बिना पूछे जबरदस्ती रंग लगा देने का अधिकार यहां किसी को नहीं है।...... अधिकार के साथ उसमें प्यार का रंग भी था, यहां वो नहीं है।

खैर, इस बार होली के दिन घर जाने का मौका मिला है। दो दिनों के लिए ही सही.... होली घर पर ही मनेगी। ज़ाहिर है मौका पिछली होली को याद करने का है। ..... ऐसे में सोच रहा हूं कि मां होली कैसे मनाती थी ?
कुमांऊ में होली की ख़ास परंपरा है.....पुरुषों की होली... महिलाओं की होली।.... खड़ी होली .... बैठक होली।........ होली मनाने के कई बहाने यहां लोगों के पास हैं।..... जब से मर्द काम के सिलसिले में गांव छोड़-छोड़कर शहरों की ओर भाग रहे हैं...... होली की परंपरा को बचाने का बड़ा जिम्मा महिलाओं के हाथों में है।
मेरी मां भी हर साल हमारे घर पर होली का आयोजन करवाती थी। तब मैं छोटा था, ज़ाहिर है घर पर कोई कार्यक्रम हो तो काम बढ़ जाता है। ऐसे में मां ढेर सारा काम बता देती। साफ सफाई से लेकर घर पर होली के लिए आने वाले मेहमानों की आव-भगत की तमाम ज़िम्मेदारियां।....... हमारे घर में ये होली.... जिसे लोग बैठक होली कहते हैं..... रंग वाली होली यानि छलड़ी से एक-दो दिन पहले होती थी।

मां दो दिन पहले से होली के इस आयोजन में जुट जाती। आने वाले लोगों के खाने का इंतजाम होने लगता। लोगों को क्या-क्या खिलाया जाएगा, इसकी लिस्ट बनाई जाती। फिर मेहमानों को निमंत्रण देने का काम मुझ जैसे बाल ब्रिगेड के जिम्मे आ जाता।..... हम लोग उत्साह के साथ घूम-घूमकर लोगों के घर जाते, और उन्हें बताते की कल हमारे घर पर बैठक होली है।

फिर बैठक होली के दिन भी मां ढेर सारे काम हम पर थोप देती। साफ-सफाई..... रंग घोलना..... बर्तन साफ करना..... मेहमानों के लिए बनने वाली सब्ज़ी साफ करना आदि-आदि। ......... इन सब कामों में मेरी दिलचस्पी कम ही हुआ करती थी। ज़ाहिर है फिर मां से बहस होती.... और कभी कभी मां की गाली भी खानी पड़ती।...... लेकिन अब जब ये सब देखने को नहीं मिलता.... तो सोचता हूं कि वो दिन ही अच्छे थे। मां की गाली में भी एक रंग था। ..... ये रंग काफी देर तक मुझ पर असर करता था।..... अब मैं बड़ा हो गया हूं...... मां मुझे नहीं डांटती।..... पता नहीं वो क्यों बदल गयी है ?.... अब वो गाली भी नहीं देती। ... शायद सोचती होगी कि मैं शहर में रहता हूं...... और ज़्यादा सभ्य हूं।.... शायद वो भी ये सब करके खुद को मेरे करीब लाने की कोशिश कर रही है।

मैं बात कर रहा था..... अपने घर में होने वाली बैठक होली की।...... सारी तैयारियों के बाद दोपहर करीब एक-दो बजे गांव की महिलाएं हमारे घर पर पहुंचना शुरू हो जाती। और फिर औरतों के इकट्ठा होती ही महफिल जम जाती। ..... ढोल, मजीरा..... और तालियों की गूंज के साथ होली के गीत गाए जाने लगते।

सबसे पहले भगवान का नाम लिया जाता। भगवान को समर्पित करते हुए होली की शुरूआत होती।..... औरतें गातीं।

सिद्धी को दाता विघ्न विनाशन
होली खेलें गिरिजापति नंदन
लाओ भवानी अक्षत चंदन
होली खेलें गिरिजापति नंदन
मोतियन से चौक पुराए
होली खेलें गिरिजापति नंदन
सिद्धि को दाता विघ्न विनाशन
होली खेलें गिरिजापति नंदन
थाल सजे हैं अंजन-कंचन
डमरु बजाएं शिवजी विभूषण
होली खेलें गिरिजापति नंदन ।।

...... होली के गीतों के बीच औरतें कभी-कभी स्वांग भी रचती। .... हंसी ठिठोली भी होती। ..... और फिर तीन-चार घंटे मस्ती भरे माहौल के बाद खाने-पीने का काम शुरु होता।............... खाने के बाद भी एक काम रह गया है।........ औरते खाते ही अपने-अपने घरों को जाती नहीं।............. बल्कि अंत में होता है होली का शुभ गीत।

औरतें एक साथ गाती हैं.......

सावरी रंग डालो भीगावन को
केसरी रंग डालो भीगावन को
गणपति जीवैं लाख बरिसा
रामजी जीवैं लाख बरिसा
लक्ष्मण जीवैं लाख बरिसा
उनकी नारी रंग भरी
सावरी रंग डालो भीगावन को
केसरी रंग डालो भीगावन कों।।


एक और आशीष गीत है..... जो अंत में गाया जाता है।

सावल रुप कन्हैया, रंग में राजी रहो जी
ये गांव को भूमिया जी रौ लाख बरिसा
रंग मे राजी रहो जी।
ये गांव का देवी जी रौ लाख बरिसा
रंग मे राजी रहो जी।
ये गांव का पधान जी रौ लाख बरिसा
रंग मे राजी रहो जी।
यो घर का बुजुर्ग- सब जी रौ लाख बरिसा
रंग मे राजी रहो जी।
हम सब जीवें लाख बरिसा
रंग मे राजी रहो जी।।

इसी के साथ हंसते गाते हमारे घर में बैठक होली का समापन होती।............... अब बस यादें शेष हैं।.... इस होली में मैं घर पर होऊंगा..... देखे पिछले सात सालों में क्या-क्या बदल गया है ?
आप सभी को होली की ढेर सारी शुभकामना।

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होली है.....

(दोस्तों कल होली है। कुमाऊंनी होली की मैंने बात तो छेड़ी.... पर उसे आगे नहीं बढ़ा सका।.... अब जब एक दिन बाद होली है, तो सोचता हूं..... क्यों ना आपको कुमाऊंनी होली के कुछ रंग दिखा दूं। ..... आप सभी की होली रंगों से सराबोर रहे.... ऐसी कामना है।)

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एक - होली खेलत हैं कैलाश धनी
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होली खेलत हैं कैलाश धनी, होली खेलत हैं कैलाश धनी,
होली खेलत हैं कैलाश धनी,
होली खेलत हैं कैलाश धनी, होली खेलत हैं कैलाश धनी।
औरों को देवें मलियागिरी चंदन

आपौं बभूति रमाई धनी, होली खेलत हैं कैलाश धनी।
औरों को दे हैं षटरष व्यंजन
आपौं धतूरी रमाय धनी, होली खेलत हैं कैलाश धनी।
औरों को दे हैं रत्न आभूषण
आपौं बागम्बर ओढें धनी, होली खेलत हैं कैलाश धनी।
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दो - उठ ओ पछवा मेघ
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उठ हो पछवा मेघ, देवर संग रंग भीजे है चुनरी
अच्छा हो देवर ओढ़ना जो भीजे भीजन दे,
स्योनिन दे हो बचाय। देवर ओढना जो
अच्छा हां रे देवर बिढिया जो भीजै भीजन दे,
कपलिया दे हो बचाय । देवर
अच्छा हां रे देवर सुरमा जो भीजै भीजन दे,
अंखियां दे दो बचाय । बालम
अच्छा हो देवर हैसिया जो भीजै बीजन दे,
गलड़ा दे दो बचाय । बालम
अच्छा हो देवर अंगिया जो भीजै भीजन दे,
छतिया दे दो बचाय । बालम
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तीन- तब जानूं हो
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तब जानूं हो खिलाड़ी,
जो हम संग खेलो बिहारी
हमको अकेली समझो ना
मोहन
हम वृषभान दुलारी
कुमारी
ले लुंगी तोरी लकुटि
मुरलिया
और छीन लुंगी पिचकारी
जो हम संग
तब जानूं.....
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जब मैंने प्यार किया

जब मैंने प्यार किया
मैंने नहीं देखा
वो कैसी थी ?

पतली थी
मोटी थी
नाटी थी
या फिर बहुत लंबी ?
मैंने नहीं देखा
जब मैंने प्यार किया।

आंखे उसकी कैसी रही होंगी ?
नीली
हरी
या गहरी काली ?
मैंने नहीं देखा
जब मैंने प्यार किया।

वो कैसे चलती थी ?
बलखाकर
या लहराकर
कैसी थी उसकी चाल ?
मैंने नहीं देखा
जब मैंने प्यार किया।

मैंने नहीं देखे उसके बाल
काले थे,
चमकदार या रुखे से ?
कमर तक लहराते थे,
या घुंघराली थी लटें ?
मैंने नहीं देखा
जब मैंने प्यार किया।

मैंने देखा था,
उसमें ढेर सारा प्यार
अनचाहा समर्पण
और....
मेरे साथ हंसने-रोने की कला।।

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Sunday, March 8, 2009

मां है, वो भी

हज़ारों साल का इतिहास बताता है, कि औरतों को एक वस्तु ही समझा गया। मर्दों ने अपनी इच्छाओं के अनुरुप औरत की एक तस्वीर बनाई। और फिर औरत उसी रास्ते पर चल पड़ी। वो रास्ता कौन सा था ? वो रास्ता था, मर्दों को खुश करने का। मर्द जैसा कहता, औरत वही करती। ...... हज़ारों साल से ऐसा ही होता रहा है।.... और आज भी बदकिस्मती कहें, ये जारी है। जो मर्द के बताए रास्ते पर नहीं चलता तो फिर उसके लिए दूसरे रास्ते हैं... उनके पास। .......... मर्दों का सबसे बड़ा हथियार स्त्रियों के खिलाफ..... चरित्र हरण।

औरत के गर्भ में नौ महीने खून चूसने वाला शिशु... जब भी सोचने समझने के काबिल होता है..... सबसे पहले किस पर हमला करता है ? वो औरत ही होती है।

क्या प्रकृति ने मर्दों को औरत पर शासन करने के लिए ही तैयार किया होगा ? ये सवाल मेरे दिमाग में बार-बार आता है। और ऐसे मौकों पर तो और अधिक, जब हम महिला दिवस जैसे दिनों की बात करते हैं। .... घर की चौखट लांघते ही औरत की मुश्किलें क्यों बढ़ जाती हैं ? शायद मैं गलत हूं, मुश्किलें तो चौखट के अंदर भी कम नहीं।

घर से बाहर औरतों को क्या खतरा सबसे अधिक है ? पैसे का। जेवरों का। या फिर कोई क़त्ल कर देगा।........ शायद ही किसी औरत को इन बातों से डर लगता होगा। असल खतरा कुछ और ही है।.... थोड़ी देर पहले मर्द जिस औरत को घर छोड़ आया था, उसी औरत को अपना शिकार बनाने की ताक में क्यों रहता है, वो? जिसे थोड़ी देर पहले मर्द घर छोड़कर आया था, वो कौन थी ?............. वो मां थी, वो बहन थी, या फिर पत्नी होगी। ..... और ये जो बाहर है, वो कौन है..... मर्द इस सवाल के बारे में कब सोचेंगे ? ...... ये भी तो मां है, ये बहन है..... या फिर किसी की पत्नी.... प्रेयसी।

मैं अक्सर भीड़ भरी बसों में औरतों को जूझते देखता हूं। उन्हें ऑफिस पहुंचने की जल्दी है।.... जल्दी मर्दों को भी होती है।..... पर वो ठीक समय पर निकल पड़ते हैं।..... औरत के लिए ये मुश्किल भरा काम है।..... अगर वो मां है, तो और भी मुश्किल। मां को बच्चों के लिए भी नाश्ता जो बनाना होता है। फिर पति की फरमाईश भी कम तो नहीं होती। ..... बहन के लिए भी मुश्किल होती ही हैं, अगर नाश्ता बना है.... तो यही होता होगा, मां कहती होगी..... भाई लेट हो जाएगा.... उसे खानो दो पहले।

काम के मुश्किल घंटों से घर पहुंचने की जल्दी।.... कहीं पड़ोसी ये ना कह दें, कि ये औरत लेट आती है, ज़रुर कोई चक्कर होगा।...... ट्रैफिक की दिमाग खराब करने आवाज़ों के बीच औरत के दिमाग क्या चलता होगा ?.... कई बार सोचता हूं। शायद वो यही सोच रही है। घर जाकर सब्ज़ी कौन सी बनाऊंगी? .... अरे..... आज तो आलू, टमाटर भी खत्म हो गया। अब सब्ज़ी लेने जाना होगा।

ये मुश्किलें तो घर और ऑफिस की हैं। फिर बसों पर मिलने वाले ख़ास तरह के मर्दों से बचकर सही सलामत घर पहुंचना भी रोजाना की लड़ाई की हिस्सा है।
क्या एक शब्द में औरत को इन तमाम समस्याओं को झेलने के लिए शुक्रिया अदा कर सकता हूं ? शायद मैं उनका शुक्रिया अदा ही ना कर संकू। आज तो क्या ? शायद कभी नहीं।

बस एक शब्द...... तुम्हें नमन।

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Saturday, March 7, 2009

थोड़ी सी आज़ादी दो...

वैसे तो इस तरह की ख़बरें नयी नहीं है। लेकिन जब भी इस तरह की खबरें सामने आती हैं, तो फिर सोचना ही पड़ता है, कि आखिर प्यार किसे कहते होंगे ? पहले वो खबर बता दूं, जिसने मन में कुछ सवाल खड़े कर दिए हैं। दरअसल वाकया बिहार की राजधानी पटना का है। पटना का जानामाना आर्ट्स कॉलेज।

वो एक प्रेमी था, एक लड़की से प्रेम करने लगा। ज़ाहिर है, मन खुशियों से सराबोर हुआ होगा। लड़के ने प्यार किया तो प्रेमिका के लिए दिल में कुछ अरमान भी सजाए होंगे। लेकिन प्यार की इस कहानी में जल्द ही थोड़ा टिव्स्ट आ गया।.... लड़की कुछ कारणों से लड़के से दूर-दूर रहने लगी। यही बात प्रेमी को परेशान कर रही थी। शायद प्रेमी का अहम जाग गया। हारना तो किसी को बर्दाश्त नहीं, वो भी एक लड़की से हार, ये तो कतई नहीं हो सकता..... ऐसा लड़के ने सोचा होगा।

लड़की जो कभी उसकी प्रेमिका थी, ऐसा कैसे कर सकती है ? वो प्यार के लिए हां ज़रुर कह सकती है। लेकिन फिर ना कैसे ?...... प्रेमी चाहे जो करे। उसके पास अधिकार होते हैं। ..... प्रेमिका के अधिकार सीमित हैं।.... उसे समर्पण सिखाया जाता है। कविता में कवि समर्पण की बातों से ही उसकी तारीफ करते हैं। प्रेमिका की वफा की मिसालें दी जाती हैं। फिर एक प्रेमिका बेवफा कैसे हो सकती है भला ?.... यही सोच-सोचकर हारे हुए प्रेमी के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया।

एक ओर प्यार था, दूसरी ओर नफरत।
एक ओर आज़ादी थी, दूसरी ओर बेड़ियां।
एक ओर समर्पण था, दूसरी ओर अधिकार।
एक ओर ज़िंदगी थी, दूसरी ओर मौत।


कई तरह के सवालों ने लड़के की सोच को कुंद कर दिया था। प्यार को मुट्ठी में बंद करने की ज़िद ने उसे पागल बना दिया। लड़की पर अधिकार की भावना ने उसे उस लड़की का दुश्मन बना दिया, जिसे वो बेइंतहा प्यार करता था। लड़की की इच्छाओं का उसे ज़रा भी अहसास नहीं रहा, जिन्हें पूरा करने के लिए उसने कभी ढेर सारे वादे किए थे।

लेकिन फिर वही हुआ, जिसने ये कहानी लिखने के लिए मुझे मजबूर कर दिया। दिल में ढेर सारा प्यार होने के बावजूद प्रेमी अपनी ही प्रेमिका का सबसे बड़ा दुश्मन बन गया।

एक गोली चली, और प्रेमिका को बेध गयी।

अब प्रेमी की आंखें खुली हैं। पर तीर कमान से निकल चुका है। अफसोस के सिवा कुछ नहीं बचा। शायद प्रेमी को अब समझ आए। प्यार का एक नाम समर्पण भी है।

समर्पण होता तो,
फिर प्यार ही होता।
प्यार होता तो,
फिर प्यार ही होता।
तुम होते... मैं होता,
फिर प्यार होता।
प्यार, प्यार, प्यार
और ढेर सारा प्यार होता।

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Sunday, March 1, 2009

मौत को देखा है ?

मौत को देखा है ?
करीब बेहद करीब से ?
हां, मैंने देखा है
वो मेरे पिता के करीब आई थी।

और मुझसे आंखे मिलाकर
कह रही थी,
मैं आऊंगी,
चंद दिनों बाद।

मैंने देखा था
अपने पिताजी का चेहरा
उतरा हुआ सा था,
भरोसे की लकीरें
नाउम्मीदी के बादलों से ढक गयी थी।

हाथ,
जो कभी मज़बूत हुआ करते थे
कांप रहे थे
उन्हें सहारा चाहिए था।

मौत
मेरे आगे खड़ी हंस रही थी।
उस पल,
हंसती-हंसती लौट गयी।

पर पांच महीने बाद लौटी,
और तब तक रोज़
शाम के साथ
जैसे-जैसे अंधेरा होता था
वो करीब आ जाती थी।

फोन की हर घंटी के साथ
दिल धड़क कर एक सवाल पूछता
क्या वो आ गई ?

फिर वो आई..... एक दिन
दबे पांव
जब सब सो रहे थे
और चुपचाप ले गयी
मेरे पिता को,
मेरे सामने।

कुछ नहीं कर सका
उस दिन मैं
मैंने देखा है
हां.... देखा है
मौत को करीब से
बेहद करीब से।।

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