हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Friday, July 31, 2009

सब याद है

ज़िंदगी के उन पुराने पन्नों में
तुम भी हो
तुम्हारी यादें भी
सारे पल सिमटे हैं
कविता की शक्ल में
चंद शेरों में
तुम्हारे होने का अहसास है।।

कुछ हंसते पल हैं
कुछ बिखरते आंसू
खूशबू है
तुम्हारे होने का अहसास दिलाती है
ज़िंदगी के उन पुराने पन्नों में ।।
तुम हंसी बनकर उभरती हो
तुम खनकती हुई हंसती हो
तुम छन से रुठ जाती हो
मान भी जाती हो
ज़िंदगी के उन्ही पुराने पन्नों को
फिर पलट रहा हूं मैं
जहां तुम खुशी बनकर चहकी थी
मेरी किसी बात पर
और हुई थी ढेर सारी बातें।।

फिर से उस दोराहे से गुजरा हूं
तुमको देखा था पहली बार
मन के घोड़े खींच रहें हैं
फिर से तुम्हारी ओर
चाहता हूं / तुमसे करुं
ढेर सारी बात
कुछ वादें हैं / रोक लेते हैं ।।

फिर लौटूंगा
पलटूंगा
देखूंगा ढंग से
कहां बिगड़े थे ताने
कहां उलझे थे सिरे
ज़िंदगी के इन्हीं पन्नों में सही
एक दिन सुलझाऊंगा उलझे रिश्तों को।।



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Tuesday, July 21, 2009

चाहतें

वे कहते हैं
कितनी छोटी-छोटी हैं उनकी चाहतें
मानो वे कुछ नहीं चाहते
वे पेड़ों को काटना नहीं चाहते
उनका हरापन चूस लेना चाहते हैं
वे पहाड़ों को रौंदना नहीं चाहते
उनकी दृढ़ता निचोड़ लेना चाहते हैं
वे नदियों को पाटना नहीं चाहते
उनके प्रवाह को सोख लेना चाहते हैं
अगर पूरी हो गयीं उनकी चाहतें
तो जाने कैसी लगेगी दुनिया !


-मदन कश्यप

'लेकिन उदास है पृथ्वी' संग्रह से

Tuesday, July 14, 2009

अनुभव

अनुभव से पूर्ण
उसने कहा- बेटा
अब तुम बड़े हो गए हो
अब तुम सच बोलना छोड़ दो ।
तुम्हें आगे बढ़ना है
और वो रास्ता
जो पीछे की ओर खुलता है
उस पर चलो
सीधे चलते जाना
रास्ते पर कोई खड़ा हो
अगर तुमसे पहले
उसके पीछे मत लगना
गिरा देना उसको
चाहे जैसे भी ।
बेटा, अब तुम्हें
दया-करुणा भूला देनी चाहिए
अब तुम बच्चे नहीं रहे
कुछ सीखो
ज़माने के दस्तूर हैं
सब दौड़ रहे हैं
दूसरे के कंधों पर सवार होकर ।।

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कभी यूं करना !

'एक'

झूठी चादर से ढककर
क्यों ? पाप छिपाते हो
क्यों ? सच को अंदर कर
झूठ दिखाते हो
क्यों ? गम के चेहरे पर
हंसी लगाई है
क्यों ? हंसते हो
दिल में तन्हाई है ।।

'दो'

बदला, उन सभी से लूंगा
एक दिन
जिनके कारण
मिली रात
मिली तनहाई ।।
उनको दूंगा
प्यार
और चमकीली सुबह
ताकि ढूंढ सकें
चमकदार उजाले में
अपने मन के अंदर की काई ।।

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Sunday, July 12, 2009

सबसे बड़ी बहस !

सब हंस रहे थे। हंसी बेहया सी अपने आप मुंह पर तैर रही थी।
पुरुषों की नज़र बेहयायी से उसे घूर रही थी। लेकिन महिलाएं भी भूल गयी थी, कि उन्हें ऐसा नहीं करना है। वो भी उसे इसी अंदाज़ में देख रही थी। वो भूल गयीं थी कि सड़क पर आते-जाते उन्हें भी ऐसी ही नज़रों का शिकार होना पड़ता है। लेकिन सेक्स का सुपीरियरिटी कॉम्पलेक्स यहां साफ-साफ उभर कर नज़र आ रहा था।
ये नज़ारा किसी चाय की गुमटी का नहीं है। ना ही चौराहे पर जमा कुछ मनचलों की है। दरअसल बात एक चैनल की है। और मुद्दा बड़ा संगीन है।
दिल्ली हाईकोर्ट के आईपीसी की धारा-377 पर दिए गए फैसले पर बहस गरम है। टीवी चैनलों को जैसे एक ऐसा मुद्दा हाथ लग गया है, जिस पर चढ़कर वो टीआरपी की जंग में आगे निकल सकते है। बहस ठीक बात है। लेकिन बहस से कुछ निकले और वो सार्थक हो। ये टीवी चैनलों की मंशा फिलहाल नहीं है।
टीवी चैनल एक समलैंगिंक और संस्कृति के अंध भक्त किसी बाबा या आचार्य को बिठाकर एक मसालेदार लड़ाई का लुत्फ लेना चाहते हैं।खैर, उस दिन भी उस न्यूज़रुम में यही माहौल था। एक समलैंगिंक को बहस के लिए बुलाया गया था। दूसरी ओर एक मशहूर आचार्य बैठे थे।
बहस में केवल दो पक्ष देखकर कुछ अजीब लग रहा था। क्योंकि इन दोनों के बीच कभी ख़त्म ना होने वाली बहस ही होनी थी। क्योंकि ना समलैंगिंक ये मानता कि वो अप्राकृतिक संभोग में लिप्त है, और ना ही संस्कृति की रक्षा करने वाले आचार्य जी ये मानते.... कि समलैंगिकों के भी कुछ अधिकार हो सकते हैं। लेकिन ये चाहता भी कौन था कि बहस से कुछ निकले। कुल मिलाकर लड़ाई टीआरपी की है। कार्यक्रम शुरू हुआ। और जो अपेक्षित था, वही होने लगा। आचार्य जी को समलैंगिंक किसी गाली से कम नहीं लगते। वेश्यावृत्ति से भी बढ़कर। लेकिन वेश्यावृत्ति को हटाने के लिए संस्कृति के पैरोकारों ने क्या किया। दुनिया की सबसे महान हिंदू संस्कृति में वेश्यावृत्ति कौन से काल में नहीं थी ? क्या संस्कृति के रक्षक बता सकते हैं ? मानव इतिहास का कोई ऐसा वक्त नहीं रहा है... जब पुरुष अपनी शारीरिक प्यास बुझाने वेश्या के पास नहीं गया। आज भी जाते हैं। लेकिन वेश्या को गाली भी देते हैं। छिपकर रेड लाइट में जाते हैं। और एसी वाले कमरे में बैठकर वेश्यावृत्ति के खिलाफ बहस करते हैं।
ये हमारी संस्कृति का हिस्सा बन गया है। हम मुद्दों को इसी अंदाज़ में देखते हैं। मुद्दे हमारे इर्द-गिर्द बिखरे रहते हैं। लेकिन हम उनसे आंखे चुराकर बचते निकलते हैं। और फिर जब एक दिन मुद्दा हमारी नज़रों के ठीक सामने ही आ जाता है, तो फिर हम संस्कृति की दुहाई देकर अतीत में चले जाना चाहते हैं।ये कोई नहीं समझना चाहता कि वक्त बदल गया है। संस्कृति कोई ठहरा पानी नहीं है.... इसमें भी बदलाव होता है।
और संस्कृति है क्या चीज़ भला ? हम कैसे रहते हैं ? हम कैसे जीते हैं ? यही संस्कृति है।बात उस बहस की हो रही थी। आचार्य ने समलैंगिंक को भला बुरा कहा। उसने कहा, तुम कौन हो ? उसने कटाक्ष किया, मैं तुम्हें लड़का कहूं, या लड़की ? तुम अप्राकृतिक हो... और पाप के भागीदार भी। समलैंगिक सुनता रहा, उसने विनम्रता से कहा, चलिए मैं मान लेता हूं कि मैं बीमार हूं... पर क्या आपके पास इस बीमारी का इलाज़ है। क्या आपके पास कोई दवा या बूटी है... जो मुझे समलैंगिंक से सही इंसान बना देगी। क्या आपके पास कोई योग फॉर्मूला है... आचार्य जी। जो मुझे ठीक कर देगा। आचार्य ने अपनी कमजोरी छिपाने के इरादे से जवाब दिया। मैं तुम जैसे लोगों को योग नहीं सिखाता। मैं तुम जैसे लोगों से बात तक नहीं करना चाहता।
क्यों आचार्य जी। धर्म और संस्कृति की बड़ी-बड़ी बातें करते हो। समलैंगिंको से देश की संस्कृति को ख़तरा भी बताते हो.... लेकिन जब इसे ठीक करने का वक्त आता है तो पीछे हट जाते हो। ये तो ठीक नहीं है ना। बहस एक घंटे तक चलती रही। जब-जब आचार्य समलैंगिंक को बेहयायी से कोसता... लोग ताली बजाते। वाह क्या कहा आचार्य जी। लेकिन एक समलैंगिंक की वास्तविक परेशानी को समझने का वक्त किसी के पास नहीं है।
समलैंगिंकता को गाली देने और उनका पक्ष लेने का इन दिनों फैशन है। लेकिन असल में उनकी परेशानी क्या है ? इस पर कोई बहस नहीं करता। कोई ये बात नहीं करता कि किसी घर में अगर ऐसी संतान पैदा हो जाए, जिसका सेक्सुअल ओरिएंटशन मां और पिता से विपरीत हो, तो ऐसे बच्चे की परवरिश का तरीका क्या है ? ऐसे बच्चे को माता-पिता कैसे पालें ?सब मानकर बैठे हैं, जैसे समलैंगिंक जानबूझकर ही बना जाता है। ये कोई हारमोनल समस्या हो सकती है, ये कोई भी मानने को तैयार नहीं है। लेकिन क्या हमारे घरों में ऐसे बच्चे नहीं हो सकते। जो इस तरह की समस्या से जूझ रहे होंगे।
दरअसल हम चाहते क्या हैं ? हमारी राजनीतिक सत्ता और धर्मसत्ता क्या चाहती है ? ये बड़ा सवाल है। और ये नया भी नहीं है। इतिहास गवाह है..... पूरब से लेकर पश्चिम तक ... जब-जब भी बदलाव की बात हुई.... नई चीजों की बात हुई..... धर्म और राजनीति आड़े आ गई। आज समलैंगिंको के साथ भी ऐसा ही हो रहा है.... पर क्या महज़ एक कानून बनाने से समलैंगिंकता रुक जाएगी।.... क्या वेश्यावृत्ति रुक गई है ?
समलैंगिंकता एक वास्तविक समस्या है। एक सभ्य समाज में हम समलैंगिंकों की सेक्स ओरिएंटेशन को रोककर इस समस्या से नहीं लड़ सकते। दरअसल इसके लिए ज़रुरी है... समलैंगिंको को नजदीक से जानना समझना। फिर उस दिन... जब ये बहस चल रही थी।.... और भी किसी दिन समलैंगिंकों पर हंसने वालों को मन में झांककर ख़ुद से पूछना चाहिए। वो किसी समलैंगिंक के बारे में कितना जानते हैं ? विज्ञान के दृष्टिकोण से।

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Thursday, July 9, 2009

व्यवस्था के नाम पर

अगर, मैं लीक पर चलूं
तो वो खुश होंगे
मेरी पीठ थप थपाएंगे
क्योंकि ?
ये उनकी व्यवस्था है
सड़ी गली ही सही ।।

अगर, मैं लीक से
उठा लूं कदम
तो वो भला बुरा कहेंगे
धक्का देकर गिरा देंगे
क्योंकि ?
वो हमेशा
ऐसा ही करते रहे हैं ।।

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शब्द ऐसे हों

शब्दों, आडंबर छोड़ो
अपने सच्चे-सरल-सीधे
रुप में उतरो
सरल अर्थ
सादगी से भरे हों
सीधे ह्रदय को छू लो।।
शब्दों, घृणा त्यागो
प्रेम रस बहाओ
मधुरता भरकर
कड़वाहट हर लो।।

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