हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Monday, September 17, 2018

झाड़ू के साथ तस्वीरें खिंचवाना, सफाईकर्मियों के साथ अश्लील मजाक है!

दिल्ली के पहाड़गंज इलाके में स्थित ‘बाबा साहेब अंबेडकर उच्च माध्यमिक विद्यालय’ में एक साफ-सुथरे लंबे झाड़ू की व्यवस्था की गई थी। वहां फावड़ा था। प्रधानमंत्री के पहुंचने से पहले मौका-ए-वारदात पर ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के नारों वाली शर्ट पहने लोग मौजूद थे। कुछ अफसरनुमा लोग घूमते दिखे।

 देशभर के टीवी चैनल्स को भी पता था कि 15 सितंबर की उस सुबह प्रधानमंत्री इस स्कूल में आकर झाड़ू उठाएंगे। प्रधानमंत्री के आने से पहले स्कूल के टीचर्स ने भी खास तैयारी जरुर की होगी। सरकारी स्कूल के चुनिंदा बच्चों को प्रधानमंत्री के सामने तैयारी के साथ खड़ा किया गया था। तस्वीरें देखकर इसका आभास मिल रहा है।

प्रधानमंत्री अचानक 15 सितंबर की सुबह सीधे इस स्कूल में तो पहुंच नहीं गए होंगे? ऐसा मन में सवाल उठ रहा है। जाहिर है उनका पहले से तय कार्यक्रम होगा। इसलिए सुरक्षा के सभी प्रोटोकॉल का पालन भी किया गया होगा। यानी प्रधानमंत्री की सुरक्षा के मद्देनजर ‘बाबा साहेब अंबेडकर उच्च माध्यमिक विद्यालय’ की पहले से जांच और निगरानी की गई होगी।

अजीब-अजीब से सवाल मन में उमड़ घुमड़ रहे हैं। इनमें से एक ये है कि इतने जबर्दस्त इंतजाम किए गए, तो कूड़ा साफ क्यों नहीं किया गया?  बाबा साहेब अंबेडकर उच्च माध्यमिक विद्यालय में प्रधानमंत्री के साफ करने लायक कूड़ा क्यों छोड़ा गया?

एक और सवाल है, प्रधानमंत्री को कैसे पता चला कि कूड़ा अंबेडकर की मूर्ति के बगल में लगे शिलापट के इर्द-गिर्द बिखेरा गया है?

शायद ‘बाबा साहेब अंबेडकर उच्च माध्यमिक विद्यालय’ के टीचर्स ने बताया होगा? पर सवाल ये है कि अगर टीचर्स को पता था कि कूड़ा शिलापट के पास है, तो भला उन्होंने इसे साफ क्यों नहीं किया? क्या सोचकर सीमित मात्रा में कूड़े को वहीं पड़े रहने दिया गया?

खैर छोड़िए। उस तस्वीर पर लौटते हैं, जो 15 सितंबर को सुबह से रात तक टीवी न्यूज चैनल्स में छाई रही।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लंबे झाड़ू से हरी घास के बीच छिपे कूड़े को निकालने की भरपूर कोशिश की। उन्होंने पूरे तीस बार (संख्या एक दो कम या एक दो ज्यादा हो सकती है!) झाड़ू को आगे पीछे घुमाया। पर ये कूड़ा जिद्दी निकला। हरी घास से बाहर आने को तैयार नहीं हुआ। सो जब कूड़े ने अपनी जगह नहीं छोड़ी, तब प्रधानमंत्री को कूड़ा अपने हाथों से उठाना पड़ा।

प्रधानमंत्री ने कूड़ा उठाया, तभी एक अधिकारी (कन्फर्म नहीं, पर शायद वो अधिकारी था!!) दौड़कर प्रधानमंत्री के करीब पहुंच गया। प्रधानमंत्री के हाथों से कूड़ा अपने हाथों में लेकर अधिकारी ने सीने से चिपका लिया। ऐसा तस्वीरों में दिखा। ये अफसर कूड़े को सीने से लगाए झटपट कैमरे के फ्रेम से बाहर आ गया। शायद वो कूड़ा लेकर कूड़ेदान की तरफ दौड़ा था।

झाड़ू के बाद प्रधानमंत्री ने फावड़ा उठाया। ठीक उस वक्त जब प्रधानमंत्री झाडू। छोड़ने की तैयारी में थे, वहां उनके हाथों से झाड़ू थामने के लिए तीन अफसरों ने हाथ आगे बढ़ा दिए। अंतत: एक ने झाड़ू पकड़ लिया। और फिर कैमरा अफसर को फ्रेम से बाहर करता हुआ, वापस प्रधानमंत्री और फावड़े पर आकर टिक गया।

ठीक सामने बाबा साहेब अंबेडकर की मूर्ति चुपचाप सफाई अभियान के हर दृश्य और हर कार्रवाई को देखे जा रही थी।

सफाई अभियान का ये कार्यक्रम यहीं नहीं रुका। दिनभर न्यूज चैनलों में केंद्र सरकार के मंत्रियों, बीजेपी के नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों की तस्वीरें दिखती रहीं। हाथों में शानदार दस्ताने, मुंह पर मास्क और बदन पर ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के नारे लिखी टीशर्ट पहने लोग झाड़ू को आड़ा तिरछा घूमाते रहे। इससे कितना कूड़ा साफ हुआ? कितनी गंदगी बाहर निकली? राम जाने!

पर इन तस्वीरों को देखकर दिमाग में कुछ सवाल और मन में गहरा दुख उतर गया है। सफाई अभियान की सहेज कर रखे जाने योग्य इन शानदार तस्वीरों को देखकर; कुछ ‘बदबूदार’ तस्वीरें जेहन में ताजा हो रही हैं।

मेरे, हमारे और हम सबके टॉयलेट से होते हुए सीवर में जमा गंदगी को साफ करते सफाई कर्मचारियों की तस्वीरें। वहां हाथों में न दस्ताने हैं, न मुंह पर मास्क, न पैरों में जूते और न बदन पर टंगे कपड़े पर ‘स्वच्छ भारत मिशन’ का नारा लिखा है। 

ऐसे वक्त जब हम पूरे जोश और जज्बे के साथ प्रधानमंत्री के सफाई अभियान के ‘वीर जवान’ बन गए हैं। हमें अपना और सरकार का ध्यान उन तस्वीरों की तरफ धकेलना चाहिए; जिन्हें देखकर “विश्व गुरु” को शर्म आ सकती है।

‘द वायर’ में ‘सफाई कर्मचारी आंदोलन’ के संयोजक बेज़वाड़ा विल्सन के हवाले से दो जुलाई के दिन एक रिपोर्ट छपी। इस रिपोर्ट को पढ़ेंगे, तो लगेगा कि सफाई अभियान के नाम पर देशभर में फूहड़ता का घिनौना प्रदर्शन हो रहा है। और देशभर के सफाई कर्मचारियों के साथ देश का एलीट क्लास एक भद्दा मजाक कर रहा है।

इस रिपोर्ट में लिखा है– “सफाई कर्मचारी आंदोलन के अगस्त 2017 के अध्ययन के मुताबिक मैला ढोने वाले श्रमिकों की पांच सालों में 1,470 मौतें हुई हैं। इस अवधि में सिर्फ दिल्ली में 74 सफाइकर्मियों की मौत हुई।”

इसी लेख के अगले हिस्से में मैगसेसे पुरस्कार विजेता बेज़वाड़ा विल्सन के हवाले से चौंकाने वाली बात बताई गई है – “इस साल अप्रैल से जुलाई के बीच पूरे देश में 54 सफाईकर्मियों की मौत हुई।”

अगर इन चार-पांच लाइनों में दर्ज बातों को पढ़कर भी आपको नेताओं के हाथों में झाड़ू वाली तस्वीरें लुभाती हैं; आपको बेचैनी नहीं होती और ऐसी तस्वीरें आपको वल्गर नहीं दिखती हैं। तो फिर आपको सामान्य गणित के एक आंकड़े के बारे में जोर देकर सोचना चाहिए।

‘सफाई कर्मचारी आंदोलन’ के मुताबिक पांच साल के दौरान 1,470 सफाई कर्मचारी सीवर और सेफ्टिक टैंक की सफाई करते-करते मारे गए। यानी औसतन हर साल 294 सफाई कर्मचारियों की मौत सीवर या सेफ्टिक टैंक के अंदर हुई।

साल के 52 रविवार और त्योहारों की सरकारी छुट्टियों को हटा दें, तो हर वर्किंग डे पर कम से कम एक सफाई कर्मचारी ने देश की गंदगी साफ करते हुए शहादत दे दी।

सवाल पूछना पड़ेगा कि सरकार ने सफाई कर्मचारियों के लिए क्या किया? वो भी तब जब सिर्फ दिल्ली में पिछले पांच साल के दौरान औसतन हर साल 15 सफाई कर्मचारियों की मौत सीवर के अंदर सफाई करते वक्त हो रही है।

ये वही दिल्ली है, जहां इस वक्त सफाई अभियान के सबसे बड़े चेहरे नरेंद्र मोदी की हुकूमत चलती है।

ध्यान रखने वाली बात ये भी है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सबसे बड़े कैंपेन में से एक ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को अगले महीने चार साल पूरे होने वाले हैं।

तो हिसाब लगाना पड़ेगा कि इस अभियान से क्या मिला है?

ऐसे सवाल इसलिए भी जरुरी हैं, क्योंकि ‘सफाई कर्मचारी आंदोलन’ के मुताबिक इस साल अप्रैल से जुलाई के बीच पूरे देश में 54 सफाईकर्मियों की मौत हुई।

चार महीने में 54 सफाईकर्मियों की मौत। यानी हर महीने औसतन 14 सफाई कर्मियों की मौत। हर दूसरे दिन एक सफाईकर्मी सीवर, सेफ्टिक टैंक साफ करते हुए मर रहा है।

अगर स्वच्छ भारत अभियान सफाईकर्मियों की मौतों से उपजे सवालों के जवाब नहीं दे पा रहा है; तो माफ कीजिए प्रधानमंत्री जी, कहना पड़ेगा – हाथों में झाड़ू के साथ तस्वीरें खिंचाना देश के लाखों सफाईकर्मियों के साथ अश्लील मजाक है।

Tuesday, September 11, 2018

आंकड़ों से जनता को गुमराह क्यों कर रही है मोदी सरकार?


पेट्रोल और डीजल की महंगाई के विरोध में 10 सितंबर को विपक्षी दलों के भारत बंद के जवाब में बीजेपी के ऑफिशियल ट्विटर हैंडल @BJP4India पर पेट्रोल और डीजल की कीमतों को लेकर ग्राफ की शक्ल में दो आंकड़े जारी किए गए। 

इन दो आंकड़ों के जरिए यूपीए-1, यूपीए-2 और मोदी सरकार के कार्यकाल में पेट्रोल और डीजल की कीमतों में हुई बढ़ोतरी को प्रतिशत के नजरिए से समझाया गया था। 
बीजेपी ने लोगों को समझाने की कोशिश की है कि यूपीए-1 (2004 से 2009) और यूपीए-2 (2009 से 2014) में पेट्रोल और डीजल की कीमत में कितने फीसदी इजाफा हुआ? और फिर मोदी सरकार (2014 से 10 सितंबर, 2018) में पेट्रोल और डीजल की कीमत कितने फीसदी बढ़ी


एक बात कहनी पड़ेगी, ग्राफिक्स में इस्तेमाल आंकड़े सही है; गणित की माथापच्ची भी सही है।

बीजेपी ने गुणा भाग करके यह साबित किया है कि यूपीए-1 और यूपीए-2 के कार्यकाल में पेट्रोल और डीजल की कीमत मोदी सरकार के करीब साढ़े चार साल के कार्यकाल के मुकाबले ज्यादा बढ़ी।

बीजेपी के आंकड़े VS कांग्रेस के आंकड़े


बीजेपी के इस ग्राफिक्स का जवाब कांग्रेस ने अपने ऑफिशियल ट्वीटर हैंडल @INCIndia पर एक दूसरे ग्राफिक्स से दिया। कांग्रेस के ग्राफिक्स में तस्वीर का दूसरा पहलू भी दिखता है।


कांग्रेस को इस बात से तो इनकार नहीं है कि यूपीए-1 और यूपीए-2 में मोदी सरकार के मुकाबले पेट्रोल और डीजल के दाम परसेंट में ज्यादा बढ़े। कांग्रेस ने अपने ग्राफिक्स में यह समझाने की कोशिश की है कि जिस वक्त के आंकड़े बीजेपी बता रही है, उस दौरान क्रूड ऑयल का भाव क्या था?

कांग्रेस का निष्कर्ष ये है कि जब यूपीए के मुकाबले मोदी सरकार के कार्यकाल में क्रूड सस्ता है, तो तेल महंगा क्यों है?  

तेल के दाम में बढ़ोतरी का सच क्या है?


एक बात माननी पड़ेगी, दोनों सियासी दलों ने तथ्यों में कोई हेराफेरी नहीं की। गुणा भाग भी बिल्कुल सही किया। सामान्य गणित के लिहाज से बीजेपी द्वारा तैयार ग्राफिक्स के आंकड़ों में कोई समस्या नहीं है। जूनियर क्लास के बच्चों को परसेंट निकालने का जो गणित पढ़ाया जाता है, उसमें बीजेपी के प्रचार विभाग को 100 अंक दिए जा सकते हैं। हालांकि जिस तरह बीजेपी ने तेल कीमतों का ग्राफ बनाया, उसे लेकर सोशल मीडिया पर जमकर मजाक उड़ा।

खैर, सोशल मीडिया की नूराकुश्ती छोड़िए; गंभीर सवाल पर टिके रहते हैं। बीजेपी की शब्दावली में पूछें, तो सवाल ये है कि पेट्रोल और डीजल के दामों में बढ़ोतरी का सच क्या है?

चलिए एक एक करके जवाब ढूंढते हैं। तेल की महंगाई को लेकर राजनीति का जो खेल चल रहा है। उसमें सच कितना है और फरेब कितना? इस निर्णय पर पहुंचने के लिए चार अहम सवालों के जवाब ढूंढने पड़ेंगे।

क्या 4 सवालों का जवाब देगी मोदी सरकार और बीजेपी?


पहला सवाल, यूपीए सरकार के वक्त अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम क्या थे? और मोदी सरकार के कार्यकाल में कच्चे तेल की कीमतें किस स्तर पर हैं?

दूसरा सवाल, यूपीए सरकार ने कच्चे तेल के इंपोर्ट पर साल दर साल कितना खर्च किया? और मोदी सरकार के कार्यकाल में यह खर्च कितना है?

तीसरा सवाल, यूपीए सरकार के कार्यकाल में पेट्रोलियम उत्पादों पर अंडर रिकवरी कितनी थी? और अब मोदी सरकार के कार्यकाल में अंडर रिकवरी कितनी है? क्योंकि इस सवाल के जवाब से पता चलेगा कि सरकार तेल पर मुनाफा कमा रही है या घाटा सह रही है?

चौथा सवाल, यूपीए और मोदी सरकार के कार्यकाल में सरकार को मिलने वाला टैक्स कितना रहा?

पहला सवाल: यूपीए-2 में आसमान पर थे कच्चे तेल के दाम


सबसे पहले सवाल नंबर एक की बात। यूपीए-2 के दौरान क्रूड ऑयल का सालाना औसत भाव 70 डॉलर प्रति बैरल से लेकर 112 डॉलर प्रति बैरल तक रहा। 2011-12 से 2013-14 के दरम्यान अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें आसमान पर रहीं, इस दौरान क्रूड ऑयल का भाव 105 डॉलर प्रति बैरल से नीचे कभी नहीं गया। 


मोदी सरकार के कार्यकाल में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्रूड ऑयल के भाव काफी नीचे आ गए। 2014-15 में ही कच्चे तेल का औसत भाव 84 डॉलर प्रति बैरल पर आ गया। इसके बाद कच्चे तेल की कीमत और गिरी। 2015-16 में कच्चे तेल का भाव 46 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गया।



आंकड़े बता रहे हैं कि मोदी सरकार के पिछले तीन साल के दौरान क्रूड ऑयल के भाव यूपीए-2 के वक्त से करीब करीब आधे स्तर पर रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कम कीमतों ने मोदी सरकार को बड़ी राहत दी। 

दूसरा सवाल : कच्चे तेल के इंपोर्ट पर खर्च का हिसाब


भारत कच्चे तेल के लिए अंतर्राष्ट्रीय बाजार पर निर्भर है। देश को अपनी जरुरत का तेल इंपोर्ट करना पड़ता है, यानी हर बैरल तेल के लिए देश को डॉलर में भुगतान करना पड़ता है।

यूपीए-2 के कार्यकाल 2009 से 2014 के बीच अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड ऑयल की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी हुई। इसका असर ये हुआ कि यूपीए-2 में कच्चे तेल के इंपोर्ट पर खर्च भी तेजी से बढ़ा।

यूपीए-2 के पांच साल के कार्यकाल में कच्चे तेल के इंपोर्ट पर खर्च का एक आंकड़ा देखिए। 


मोदी सरकार के चार साल के कार्यकाल में कच्चे तेल के इंपोर्ट पर कितना खर्च हुआ। इसपर भी नजर डालिए।


बीजेपी द्वारा देश के सामने रखे गए आंकड़ों को ऊपर दी गई दो तालिकाओं के नजरिए से समझिए। यूपीए-2 सरकार को महंगे क्रूड ऑयल और ज्यादातर वक्त रुपये की खराब हालत के चलते कच्चे तेल के इंपोर्ट पर ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ा। यूपीए-2 के 5 साल के कार्यकाल में कुल 31,52,300 करोड़ रुपये का क्रूड ऑयल इंपोर्ट किया गया। यूपीए-2 को औसतन हर साल 6,30,460 करोड़ रुपये का क्रूड ऑयल इंपोर्ट करना पड़ा।

मोदी सरकार के सत्ता में आने पर अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड ऑयल के दाम तेजी से नीचे गिरे। इसका मोदी सरकार को जबरदस्त फायदा मिला। मोदी सरकार के चार साल के कार्यकाल में 21,40,105 करोड़ रुपये का क्रूड ऑयल इंपोर्ट किया गया। औसतन हर साल 5,35,026 करोड़ रुपये का क्रूड ऑयल इंपोर्ट हुआ।

इस तरह यूपीए-2 और मोदी सरकार के कार्यकाल की तुलना करें, तो यूपीए-2 को मोदी सरकार की तुलना में कच्चे तेल के इंपोर्ट पर औसतन हर साल 95,434 करोड़ रुपये ज्यादा खर्च करने पड़े थे।

तीसरा सवाल: पेट्रोलियम उत्पादों पर अंडर रिकवरी

एक और आंकड़े पर गौर करते हैं। यूपीए-2 के पांच साल के कार्यकाल में पेट्रोल और डीजल की बिक्री से सरकार के खजाने को जबरदस्त घाटा (अंडर रिकवरी) हो रहा था, क्योंकि सरकार पेट्रोल और डीजल बाजार भाव से कम कीमत पर ग्राहकों तक पहुंचा रही थी। 


यूपीए-2 के पांच साल में पेट्रोलियम उत्पादों पर कुल अंडर रिकवरी 5,67,549 करोड़ रुपये रही। 2009-2014 के पांच साल के दौरान औसतन सालाना रिकवरी 1,13,509 करोड़ रुपये रही।

मोदी सरकार के लिए अच्छी बात यह रही कि अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड ऑयल के भाव तेजी से गिरे। इसका फायदा सरकार को मिला। पेट्रोल और डीजल के भाव पर बाजार के नियंत्रण का भी फायदा सरकार को मिला। रसोई गैस में सब्सिडी कम होने से सरकार को फायदा हुआ। इस सबका मिलाजुला असर यह हुआ कि पेट्रोलियम उत्पादों पर तेल कंपनियों की अंडर रिकवरी कम हुई। पेट्रोल और डीजल की बिक्री पर होने वाला घाटा (अंडर रिकवरी) तो खत्म ही हो गयी।


मोदी सरकार के पहले चार साल के दौरान पेट्रोलियम उत्पादों पर अंडर रिकवरी 1,54,831 करोड़ रुपये रही। सालाना औसतन अंडर रिकवरी देखें, तो यह महज 38,707 करोड़ रुपये थी। तुलना कीजिए, अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्रूड ऑयल की ऊंची कीमतें और भारतीय घरेलू बाजार में तेल उत्पादों की कम कीमत में बिक्री की वजह से यूपीए-2 में साल 2012-13 में ही अंडर रिकवरी 1,61,029 करोड़ रुपये रही थी।

चौथा सवाल: सरकार का खजाना भरा, दाम कम क्यों नहीं किए?


ऊपर तीन आंकड़ों के जरिए एक बात साफ है कि मोदी सरकार के लिए कच्चे तेल का आयात यूपीए-2 के मुकाबले एक खरा सौदा बना रहा। यही नहीं पेट्रोलियम उत्पादों की देश में बिक्री से सरकार ने अपने खजाने को भी भरपूर भरा।

मोदी सरकार को पिछले चार साल में पेट्रोलियम उत्पादों पर मिलने वाले टैक्स में साल दर साल इजाफा हुआ। चार साल में पेट्रोल और डीजल के दाम जितनी तेजी से बढ़े, उसी तेजी से पेट्रोलियम उत्पादों से सरकार की टैक्स आय भी बढ़ी। 2014-15 में केंद्र सरकार को पेट्रोलियम उत्पादों पर अलग-अलग टैक्स और ड्यूटी के जरिए 1,26,025 करोड़ रुपये की कमाई हुई। 2017-18 में केंद्र सरकार को 2014-15 के मुकाबले 126 फीसदी ज्यादा टैक्स मिले।


एक्साइज ड्यूटी जिसका निर्धारण सीधे केंद्र सरकार के हाथ में है। 2014-15 में पेट्रोलियम उत्पादों पर एक्साइज ड्यूटी के जरिए 99,184 करोड़ रुपये सरकार को मिले। 2015-16 में एक्साइज ड्यूटी में 80 फीसदी का इजाफा हुआ, और सिर्फ एक्साइज ड्यूटी से सरकार को 1,78,591 करोड़ रुपये मिले। 2016-17 में एक्साइज ड्यूटी में करीब 36 फीसदी का इजाफा हुआ, और इस साल पेट्रोलियम उत्पादों पर एक्साइज ड्यूटी से सरकार को 242,691 करोड़ रुपये मिले।

क्रूड सस्ता, तेल महंगा; मुनाफा ज्यादा, राहत कम क्यों?

तो अंत में मोदी सरकार से कुछ सवाल जरुर पूछे जाएंगे, पूछे जाने चाहिए। 

1)      पिछले तीन साल के दौरान क्रूड ऑयल के दाम अंतर्राष्ट्रीय बाजार में 50 डॉलर प्रति बैरल के आसपास घूमते रहे, ज्यादातर वक्त दाम 50 डॉलर प्रति बैरल से कम ही रहे। तब पेट्रोल और डीजल के दाम कम क्यों नहीं हुए?

2)      मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से अबतक पेट्रोलियम उत्पादों पर टैक्स और ड्यूटी से होने वाली आय बढ़ी है, एक्साइज ड्यूटी में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है। ऐसे में जब पेट्रोल और डीजल की बढ़ती महंगाई लोगों को परेशान कर रही है, और सियासी मुद्दा बन गयी है, सरकार ने एक्साइज ड्यूटी कम क्यों नहीं की?