हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Tuesday, July 31, 2018

राहुल जी, ये मुहब्बत के इम्तिहान का वक्त है

ये एक बेहतरीन मौका था। जब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी देश और दुनिया को बता सकते थे कि नफरत के बरक्स प्यार के जिस पैगाम की बात वो इन दिनों बार-बार कर रहे हैं, वो प्यार होता कैसा है

राहुल गांधी दुनिया को बता सकते थे  कि मुहब्बत और मानवता से भरी राजनीति में चाहे जो जोखिम हो, वो उसे उठाने की हिम्मत और जज्बा रखते हैं। 
राहुल गांधी बता सकते थे कि ऐसे वक्त में जब विरोधी हिंदू-मुसलमान की सियासी चाल चल रहा है; और आगे इस चाल को और गहरा करने पर आमादा है। वो एक ऐसी राजनीति की बात करेंगे; जो संविधान द्वारा हिंदुस्तान के लिए तय की गई है।

राहुल गांधी बता सकते थे कि गांधी की जिस धारा पर चलकर कांग्रेस ने 2018 तक का सफर तय किया है। वो कांग्रेस समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर न सिर्फ भरोसा करती है, बल्कि इसके लिए हर कीमत अदा कर सकती है। 

राहुल गांधी के पास एक मौका था, जब वो इंसानियत पसंद लोगों को भरोसा दिला सकते थे कि न्याय और मानवाधिकारों की अहमियत आज भी बची है।  



पर लग रहा है, राहुल गांधी ने इस मौके को हाथ से जाने दिया है। 

फेसबुक और ट्विटर पर नहीं, मैदान पर होगी असली सियासत

नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स यानी एनआरसी का ड्राफ्ट जारी हुए दो दिन बीत गए हैं। गुवाहाटी से लेकर दिल्ली तक एनआरसी की ड्राफ्ट लिस्ट पर लोग अपनी चिंता जाहिर कर रहे हैं। पर राहुल गांधी ने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखकर इस गंभीर मामले में अपनी बातों को विराम लगा दिया।

उम्मीद थी कि देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी के अध्यक्ष सामने आकर अपनी बात रखेंगे। पर उन्होंने इस मामले में खुद को बचाने वाले लहजे में फेसबुक के जरिए बात रखी। जबकि ठीक इसी वक्त विरोधी सीना ठोककर एनआरसी के मामले को राष्ट्रवाद और धर्म के रंग में रंग देने को बेताब है।

एनआरसी पर गंभीर सवाल, पर राहुल गांधी कहां हैं?

राहुल गांधी का इस मामले में सामने आकर बात रखना इसलिए भी जरुरी था, क्योंकि मामला लगातार दो दिन संसद में उठा। लोकसभा में केंद्रीय गृह मंत्री ने बयान दिया, तो राज्यसभा में इस मुद्दे पर एक ठीकठाक चर्चा हुई। 
मजेदार बात ये है कि राज्यसभा में हुई चर्चा में मोदी सरकार को भारतीय जनता पार्टी के अलावा सिर्फ बीजू जनता दल का साथ मिला। ये बात अमित शाह ने चर्चा के बाद आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में अपने मुंह से कही भी। 

अमित शाह ने ये बात दुख के साथ कही थी। दुख से ज्यादा चिंता होनी चाहिए। क्योंकि अविश्वास प्रस्ताव पर जो पार्टियां मोदी सरकार के साथ खड़ी थी, वो ग्यारहवें दिन एनआरसी के मुद्दे पर सरकार को आगाह कर रही हैं। अकाली दल और एआईएडीएमके ने एनआरसी के सवाल पर विपक्ष के सुर में सुर मिलाया। 

राज्यसभा में नेता विपक्ष गुलाम नबी आजाद ने कांग्रेस की तरफ से बात रखी। उनकी बातों में मानवाधिकार और न्याय का जिक्र तो है, लेकिन उनकी बातों का असर उतना पैना नहीं है, जो होना चाहिए। 

इसके उलट बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने इस मौके का बखूबी इस्तेमाल किया। उन्होंने वो सब किया, जिसके इर्द-गिर्द भारतीय जनता पार्टी और मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विचार घूमता है। 

एनआरसी पर विरोधाभासी बातें, कहीं रणनीति तो नहीं?

राहुल गांधी चुप हैं। पर विरोधी हर वो बात कह रहा है, जो विरोधाभासों से भरी पड़ी है। 

30 जुलाई को जिस दिन एनआरसी का ड्राफ्ट जारी हुआ। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में खड़े होकर बार बार कहा कि एनआरसी मामले से केंद्र सरकार का कोई लेनादेना नहीं है। एनआरसी का मामला सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों और निगरानी में चल रहा है। 

इसके अगले दिन यानी 31 जुलाई को राज्यसभा में केंद्रीय गृह मंत्री के बगल में खड़े होकर और सीना ठोककर अमित शाह कहते हैं; कांग्रेस की सरकारों में हिम्मत नहीं थी, हमारी पार्टी में एनआरसी को लागू करने की हिम्मत है।

विरोधाभास यहीं खत्म नहीं होते।

केंद्रीय गृह मंत्री ने संसद में कहा – एनआरसी का ड्राफ्ट आखिरी नहीं है। 40 लाख लोगों के पास एनआरसी में अपना नाम जुड़वाने के अभी कई मौके हैं। सत्ताधारी पार्टी के अध्यक्ष ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस की शुरुआत में कहा कि जिन 40 लाख लोगों का नाम एनआरसी में नहीं है, वो घुसपैठिए हैं। हालांकि अमित शाह ने आगे चलकर इसी प्रेस कॉन्फ्रेंस में राजनाथ सिंह वाली बात भी कही। 
अमित शाह अपनी ही सरकार के गृह मंत्री की बातों से इतर कोई बात कहेंगे, तो मैं नहीं समझता कि ये बात उन्होंने यूं ही कह दी होगी। जरुर अध्यक्ष जी ने इसमें अपने कैडर के लिए कोई मैसेज भिजवाया होगा। 

हर बीजेपी नेता की तरह अमित शाह ने भी एनआरसी के मुद्दे पर राष्ट्रवाद का मुलम्मा चढ़ाकर बात की। विपक्ष पर गुमराह करने का आरोप मढ़ा। उनकी बात सही भी हो सकती है, क्योंकि राजनीति अकेले भारतीय जनता पार्टी को ही नहीं आती।   

बीजेपी नेताओं की बातें और 40 लाख लोगों की दास्तान

असम के अलग-अलग जिलों से जो रिपोर्ट्स आ रही हैं, वो बताती हैं कि सत्ता में आसीन सरकार के नेता बातों को राष्ट्रवाद के परदे के पीछे ढकना चाहते हैं। जबकि विपक्ष की चिंताएं वाजिब लगती हैं। 

अलग-अलग रिपोर्ट्स के मुताबिक, 40 लाख लोग जिन्हें एनआरसी के ड्राफ्ट में जगह नहीं मिली, उनमें ज्यादातर लोगों की तीन पीढ़ियां असम में रह रही हैं। कई परिवार तो ऐसे मिले हैं, जिनमें माता पिता को एनआरसी रजिस्टर में जगह मिली। पर परिवार के बेटे-बेटियों का नाम लिस्ट में नहीं है। कुछ ऐसे मामले सामने आए हैं, जहां नौजवान बेटे या बेटी का नाम एनआरसी रजिस्टर में है; पर मां या पिता का नाम नहीं है। 

पूर्व राष्ट्रपति के भतीजे का नाम एनआरसी से बाहर होना, चौंकाता नहीं क्या?

कई लोगों को इससे फर्क नहीं पड़ता। मीडिया भी इसे लेकर उदासीन है। इसे समझिए, पूर्व राष्ट्रपति के परिवार का कोई सदस्य देश की नागरिकता खोने की कगार पर खड़ा है। अमित शाह के शब्दों में कहें, तो वो घुसपैठियों में से एक है।

पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के भतीजे जियाउद्दीन अली अहमद मीडिया के सामने कह रहे हैं कि उनका नाम एनआरसी में नहीं है। असम के कामरुप जिले के रंगिया में रहने वाले जियाउद्दीन का कहना है कि उनके पास लेगेसी सर्टिफिकेट नहीं था, इस वजह से उनका नाम एनआरसी में नहीं आ पाया। 

40 लाख इंसानों के खातिर, बोलिए राहुल गांधी 

एनआरसी की जरुरत क्या है? ये कितना सही है और कितना गलत? ये सवाल अपनी जगह हैं और अहम हैं। पर इन सबसे अलग और बड़ा सवाल 40 लाख लोगों की जिंदगी और स्वाभिमान का है। 

जैसा कि खुद कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने राज्यसभा में चर्चा की शुरुआत करते हुए कहा, 40 लाख इसांन मामूली संख्या नहीं है। इन 40 लाख लोगों के लिए राहुल गांधी को अपनी आवाज जरुर बुलंद करनी चाहिए। 
सवाल पूछा जा सकता है कि राहुल गांधी से ही उम्मीद क्यों है? उम्मीद ममता बनर्जी, मायावती, शरद पवार और अखिलेश यादव से क्यों नहीं? इन सवालों का जवाब सीधा है। जवाब आप खुद दें। बताइए कि मौजूदा राजनीतिक हालात में क्या इनमें से कोई क्षत्रप या उसका दल ऐसा है, जो राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी के साथ दौड़ में भी शामिल हो सके। टक्कर शब्द का इस्तेमाल इस वक्त मुनासिब नहीं है। 

वैसे एनआरसी का सवाल इतनी जल्दी खत्म नहीं होगा, सो उम्मीद करनी चाहिए कि राहुल गांधी जल्द सामने आएंगे। और ऐसे वक्त में जब राष्ट्रीय राजनीति में संकेतों और कहे-अनकहे तरीके से लोगों के दिमागों को नफरत से भरा जा रहा है, वो (राहुल गांधी) बताएंगे कि इसके उलट भी एक राजनीति हो सकती है। सही मायने में सबको साथ लेकर चलने की राजनीति। जिसे राहुल गांधी नफरत के बरक्स मुहब्बत की राजनीति कहते हैं।

Wednesday, July 25, 2018

मुहब्बत से किसे डर लग रहा है?

आठ साल पहले रज्जो ने बड़ी बात कही थी। रज्जो ने दबंग हीरो से कहा – थप्पड़ से डर नहीं लगता, साहब; प्यार से लगता है। ये कहते हुए रज्जो काफी मजबूत दिख रही थी, और दबंग हीरो पूरी तरह पिघल गया। वो सिल्वर स्क्रीन की कहानी थी। पात्र काल्पनिक जरुर थे, लेकिन मुहब्बत तो सच्ची है।  
 
आठ साल बाद देश की सियासत में प्यार का नैरेटिव गढ़ा जा रहा है। चुनाव से करीब 10 महीने पहले कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी नफरत को प्यार से जीतने की बात कह रहे हैं। विरोधी हैरान है। मुहब्बत के इस फलसफे की उनकी (राहुल के विरोधियों) अपनी व्याख्या है। विरोधी मुहब्बत की बातों को कभी नाटक-नौटंकी कहते हैं। कभी पहले से स्क्रिप्टेड रणनीति। एक बात सूत्रों के हवाले से अखबारों के पन्नों तक फैला दी गई है कि राहुल गांधी का पहले प्यार की बात करना और फिर प्रधानमंत्री के गले लगना, एक तंत्र क्रिया का हिस्सा था।  



खैर, मुहब्बत में रुसवाई मिलती ही है। मैं तो कहूंगा; कहने दो उन्हें मुहब्बत को नाटक-नौटंकी, बचकाना हरकत, स्क्रिप्टेड रणनीति। मुहब्बत में इतना तो सहना ही होगा। 

राहुल गांधी के हाथ मुहब्बत का हथियार लगा है; और वो इसका बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं। 20 जुलाई को लोकसभा के अंदर जब भाषण की कला में कच्चे राहुल गांधी ने आरोपों की पिच से हटकर मुहब्बत की पिच पर गेंद डाली; तब भाषण की कला के सबसे माहिर खिलाड़ी नरेंद्र मोदी को भी लाइन लेंग्थ समझने में थोड़ी देर लगी। वो जिस बॉल को नो-बॉल समझकर मुस्करा रहे थे, वो अचानक किल्ली में जाकर लगी। 

वो तस्वीर मेरे जेहन में चिपक गई है। तारीख, 20 जुलाई और वक्त, दोपहर दो बजकर ठीक छह मिनट। राहुल गांधी मुहब्बत और नफरत पर अपना फलसफा बताकर सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी की तरफ बढ़ चले थे। प्रधानमंत्री की कुर्सी के ठीक पीछे बैठे सांसद मजाक उड़ाने वाले लहजे में हंस रहे थे। सत्ता पक्ष की बैंच उनपर ठहाके लगाकर हंस लेने पर आमाद सी लग रही थी। इसी वक्त राहुल गांधी मजाक, तंज और ठहाके लगाते सत्ता पक्ष की बैंच की तरफ बढ़ रहे थे। चंद सेकेंड में वो प्रधानमंत्री के सामने उनसे खड़े होने का आग्रह करने लगे। 

वो नो-बॉल नहीं थी। अक्सर ऐसा होता है; शतक के करीब ओवर कॉन्फिडेंस की बीमारी अच्छे खासे सेट बल्लेबाज का स्टंप गिरा देती है। ऐसा ही हुआ, कुछ सेकेंड नरेंद्र मोदी समझ ही नहीं पाए कि राहुल गांधी क्या करना चाहते हैं? पर वो नरेंद्र मोदी हैं। इस वक्त शायद देश के सबसे चतुर राजनेता। सो तीर कमान से निकलता, इससे पहले उन्होंने अपनी सीट की तरफ लौटते राहुल की पीठ ठोकी; और फिर हाथ मिलाने की औपचारिकता पूरी कर ली। 

पर भाषणों की कलाबाजी, सोशल मीडिया के जरिए चरित्र हनन और मीडिया के दास बन जाने वाले दौर में राहुल गांधी अपना नैरेटिव फिक्स कर चुके थे। नैरेटिव – नफरत बनाम मुहब्बत। 

जब कोई अपने विरोधी से कहता है - तुम मुझे पप्पू कहो, मैं बुरा नहीं मानूंगा। तब विरोधी को नए हथियार तलाशने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

अच्छी बात ये है कि राहुल गांधी अब भी अपनी बात पर अड़े हैं, और वहीं खड़े भी हैं; जहां उन्होंने 20 जुलाई को 2 बजकर 6 मिनट पर अपनी बात छोड़ी थी। 

वो नफरत के खिलाफ मुहब्बत की बात बार बार दोहरा रहे हैं।
पत्रकार करण थापर की किताब डेविल्स एडवोकेट की रिलीज के मौके पर राहुल गांधी ने फिर वही बात कही। जो उन्होंने 20 जुलाई को संसद के अंदर कही। 

राहुल गांधी ने कहा, “हम किसी के साथ पूरी ताकत से लड़ सकते हैं और साथ साथ उसके साथ नफरत करना जरूरी नहीं। नफरत करना आपकी व्यक्तिगत पसंद होती है। मैं गले भी मिल सकता हूं, और साथ ही (मुद्दों पर) लड़ भी सकता हूं

उन्होंने आगे कहा, लाल कृष्ण आडवाणी से मेरा मतभेद हो सकता है, देश के बारे में मेरी राय उनसे अलग हो सकती है। इसके लिए मैं आडवाणी से लड़ाई करुंगा, लेकिन मुझे उनसे नफरत करने की जरुरत नहीं है। मैं उन्हें गले लगा सकता हूं और उनसे लड़ सकता हूं।

फिर उन्होंने कहा, “मैं नरेंद्र मोदी जी से लड़ूंगा। हम सब बीजेपी से लड़ंगे, लेकिन उनसे नफरत करने की जरुरत नहीं है। मैं भी उनसे इसी सम्मान की उम्मीद करता हूं।

राहुल गांधी की बातों में दो बातें साफतौर से उभर रही हैं। वो मुहब्बत की बात दिल खोलकर कर रहे हैं, पर लड़ाई से पीछे नहीं हट रहे। इस बार राहुल गांधी ने मुहब्बत वाली अपनी बात के साथ एक दर्शन भी जोड़ा था। उन्होंने कहा, “किसी से लड़ना है तो पूरी ताकत के साथ लड़ाई कीजिए, लेकिन नफरत करना आपकी व्यक्तिगत पसंद होती है।
 
जब वो कहते हैं, नफरत करना आपकी व्यक्तिगत पसंद होती है।तब वो विरोधी पर बहुत बड़ा हमला करते हैं। पर विरोधी राहुल की गुगली को नो-बॉल समझने की गलती बार बार कर रहे हैं। 

मुहब्बत को नाटक-नौटंकी कहना, स्क्रिप्टेड रणनीति बताना और फिर तंत्र क्रिया से जोड़ देना। ये मुहब्बत को बदनाम करने की बेकार कोशिश है। मुहब्बत सच्ची है, तो परवान चढ़ेगी; कौन रोक पाएगा

एक बात और समझिए, अगर मुहब्बत याने प्यार उनकी (राहुल) रणनीति है, तो नफरत वाली रणनीति से बेहतर है। अगर मुहब्बत को चुना गया है, तो ये नफरत चुनने से बेहतर है। ये अचानक हुआ हो, ऐसा भी नहीं लगता। या तो ये रणनीति है, या फिर उनकी आदत।    

मुहब्बत से नफरत को जीतने की बातें कहानियों में अच्छी लगती हैं। राजनीति में नहीं चलती, ऐसा कहने वालों की कमी नहीं। पर सौ साल पुरानी बात है, जब इसी देश में एक शख्स ने प्यार और अहिंसा से राजनीति के पूरे कैरेक्टर को बदल दिया। नाम बताने की भी जरुरत नहीं, सब जानते हैं; वो महात्मा गांधी थे। उस गांधी और इस गांधी की तुलना ठीक नहीं। पर मुहब्बत की तासीर अब भी वही है। जो सौ बरस पहले थी।

कितने पाकिस्तान?

चलिए, मान लिया शशि थरूर निरे मूरख हैं। उन्हें हिंदुस्तान की सभ्यता और संस्कृति की जरा भी समझ नहीं। वो भारत के संविधान को जानते नहीं, और लोकतंत्र की भावना को समझते नहीं। 
 
शशि थरूर को एक खास सोच विचार वालों की तरफ से दी गई सारी गालियां भी मंजूर। चलिए, आपकी गालियों में एक गाली मेरी भी शामिल कीजिए। आपकी प्रबल इच्छा है कि भारत हिंदू पाकिस्तान न बने। आमीन। मेरी शुभकामना भी स्वीकार की जाए; प्रार्थना है कि ईश्वर आपकी सद्इच्छा पूरी करे। 


पर ये तो पता चले कि जो पाकिस्तान हिंदुस्तान के अंदर तैयार कर दिए गए हैं, उनका क्या होगा?

 
शशि थरूर ने क्या गलत बोला?

इस वाक्य विन्यास को गौर से पढ़िए। आपको अपने मतलब के अर्थ मिलेंगे। शशि थरूर ने, क्या गलत बोला? और दूसरा, शशि थरूर ने क्या गलत बोला

पहले सवाल में आप तर्क के साथ विवेचना कर सकते हैं। और बहस मुबाहिसा का स्कोप बना रहता है। दूसरे सवाल में तर्क की जगह नहीं है। ये क्लोज एंडेड सवाल है; जिसका जवाब हां या ना, लोग अपनी पसंद नापसंदगी के हिसाब से ही देंगे।

फिलहाल पहले वाले सवाल पर डटे रहते हैं। 

शशि थरूर ने दो-तीन ही तो आरोप लगाए भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर। पहला, ये संविधान बदलना चाहते हैं। दूसरा, इनकी परिकल्पना में भारत एक हिंदू राष्ट्र है, और इनके तमाम सपनों में से एक बड़ा सपना हिंदू राष्ट्र का है। और तीसरी बात, जिसपर आप (बीजेपी और संघ समर्थक) आग बबूला हैं, और राहुल गांधी के मां बाप से होते हुए दादी और परनाना तक पहुंच गए हैं। उन्होंने यही तो कहा कि अगली बार भारतीय जनता पार्टी चुनाव जीती, तो भारत हिंदू पाकिस्तान बन जाएगा।

संविधान बदलने की बात करने वाले मंत्री का कोई क्या बिगाड़ लेगा?

पहले बात शशि थरूर के पहले दो आरोपों की। एक, बीजेपी और आरएसएस संविधान बदलना चाहते हैं। 

क्या ये आरोप गलत है? अगर आपका जवाब हां में है। तो फिर मुझे आपको उस केंद्रीय मंत्री के बारे में बतलाना पड़ेगा, जो एक पब्लिक मीटिंग में माइक के आगे जोर जोर से चिल्लाकर कहता है। बीजेपी सत्ता में आई ही संविधान बदलने है। 

कुछ याद आया। मैं बात कर रहा हूं कर्नाटक बीजेपी के उभरते सितारे और नरेंद्र मोदी सरकार में केंद्रीय कौशल विकास एवं उद्यमशीलता राज्य मंत्री अनंत कुमार हेगड़े की। ज्यादा दिन नहीं हुए हैं, जब उन्होंने ये बात कही।

पिछले साल 26 दिसंबर को हेगड़े ने कर्नाटक के कोप्पल में कहा, बीजेपी संविधान बदलने के लिए सत्ता में आई है। लोग धर्मनिरपेक्ष शब्द से इसलिए सहमत हैं, क्योंकि यह संविधान में लिखा है। इसे (संविधान) बहुत पहले बदल दिया जाना चाहिए था, और हम इसे बदलने जा रहे हैं।
हेगड़े यहीं चुप नहीं रहे,जो लोग खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, वे बिना माता पिता से जन्म लेने वालों की तरह हैं। अगर कोई कहता है कि मैं मुस्लिम, ईसाई, लिंगायत, ब्राह्मण या हिंदू हूं; तो मुझे खुशी होती है, क्योंकि वो अपनी जड़ों को जानते हैं। लेकिन जो खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं, मैं नहीं जानता उन्हें क्या कहा जाए।

संभव है, कुछ लोग बीजेपी और संघ समर्थक होने पर भी अनंत कुमार हेगड़े की बातों का समर्थन न करते हों। बेशक आप अनंत कुमार हेगड़े का विरोध भी करते होंगे। पर बीजेपी ने विरोध किया क्या? संघ का कोई नेता अनंत कुमार हेगड़े के खिलाफ बोला क्या? अगर विरोध किया, तो फिर अनंत कुमार हेगड़े मोदी मंत्रिमंडल में अभी भी क्यों हैं

तो फिर क्यों न मान लिया जाए कि हेगड़े को बतलाया गया है; सीधे या संकेतों के जरिए कि जो आपने कहा, सही कहा। कहते रहिए। हम आपके साथ हैं !!!

क्या संघ और बीजेपी ने हिंदू राष्ट्र की कल्पना को छोड़ दिया है?
 
दूसरी बात जो शशि थरूर ने कही, वो यही कही ना? बीजेपी और संघ की परिकल्पना में भारत एक हिंदू राष्ट्र है, और इनके तमाम सपनों में से एक बड़ा सपना हिंदू राष्ट्र का है। क्या शशि थरूर ने कुछ गलत बोला है? क्या बीजेपी और संघ के नेता हिंदू राष्ट्र की बात आए दिन नहीं करते?

और तीसरी बात, हिंदुस्तान के हिंदू पाकिस्तानबन जाने की आशंका की। इसे लेकर शशि थरूर आशंकित हो सकते हैं, पर उन्हें शायद पता नहीं कि ये प्रक्रिया तो हिंदुस्तान में कई दिनों से जारी है। दुख होता है, पर सच है। न जाने कितने पाकिस्तान बन गए हैं, वसुधैव कुटंबकम को मानने वाले इस हिंदुस्तान में। 

अगर कोई ये समझे की वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा पर टिका भारतीय समाज झारखंड के रामगढ़ की घटना को भूल जाएगा, तो वो गलती कर रहे हैं। उस दिन हमने रामगढ़ में पाकिस्तान को उभरते देखा है। 

वसुधैव कुटुंबकम का भारत और रामगढ़ की गोरक्षक भीड़

झारखंड के रामगढ़ में 29 मार्च, 2017 की घटना, क्या हमें पाकिस्तान नहीं बनाती? मीट कारोबारी अलीमुद्दीन उर्फ असगर अंसानी रोजाना की तरह उस दिन भी अपने काम के सिलसिले से निकला था। इस बात से अनजान की 11 कथित गोरक्षक एक खास इरादे से उसका इंतजार कर रहे हैं। इस गोरक्षक भीड़ ने अलीमुद्दीन को घेरा और गोमांस के शक में पीट-पीटकर मार डाला। 

कोर्ट ने एक बीजेपी नेता सहित 11 लोगों को आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या का दोषी पाया। इनमें से तीन लोगों पर धारा 120बी के तहत आपराधिक साजिश रचने का आरोप भी साबित हुआ। कोर्ट ने माना कि ये एक पूर्व नियोजित हमला था।

हत्यारों का स्वागत, क्या हिंदुस्तान की परंपरा है

उस वहशियाना मॉब लिंचिंग की तस्वीरें आज भी इंटरनेट के संसार में घूम रही हैं। कोर्ट सजा का ऐलान कर चुकी है। पर केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा मॉब लिंचिंग के इन दोषियों का अपने घर पर फूल मालाओं से स्वागत करते हैं। 

क्या हत्या के दोषियों का स्वागत भारत की परंपरा है? भारत की हजारों साल की संस्कृति के झंडाबरदार संगठन और समर्थक क्या बता पाएंगे कि खून बहाने वालों की शान में कसीदे गढ़ना उन्होंने कहां से सीखा है?
सही कह रहे हैं, बीजेपी और संघ के समर्थक। निसंदेह हम पाकिस्तान नहीं बन सकते। शशि थरूर ने जो कहा बिल्कुल गलत कहा!! पर रामगढ़ को कैसे भूल जाएं? और कैसे भूल जाएं, जयंत सिन्हा की उन फूल मालाओं को?
पूर्वाग्रहों को थोड़ा दूर छोड़कर आएंगे, तो आपको महसूस होगा कि एक पाकिस्तान राजस्थान के अलवर में भी दिखा था। 

पहलू खान ने बहरोड़ में पाकिस्तान देखा

राजस्थान के अलवर जिले में पहलू खान की मौत के साल भर बाद भी परिवार को इंसाफ का इंतजार है। हरियाणा के नूह के रहने वाले पहलू खान की एक अप्रैल, 2017 में कथित गोरक्षों ने हत्या कर दी। पहलू खान जयपुर से पशु खरीदकर अपने घर ले जा रहे थे। नेशनल हाईवे नंबर 8 पर बहरोड़ के पास कथित गोरक्षकों की भीड़ ने गोतस्करी का आरोप लगाकर उन्हे बुरी तरह पीटा। दो दिन बाद पहलू खान की अस्पताल में मौत हो गई।

मरने से पहले (डेथ डिक्लेयरेशन में) पहलू खान ने पुलिस को 6 आरोपियों के नाम बताए। इनमें से तीन आरोपी एक दक्षिणपंथी संगठन से जुड़े हैं।

पर मजे की बात देखिए। पहलू खान के साथ जानलेवा मारपीट कैमरे में रिकॉर्ड है। आज भी इंटरनेट पर एक क्लिक के साथ उस हैवानियत को देखा जा सकता है। एक एक आरोपी के चेहरे को पहचाना जा सकता है। लेकिन पुलिस ने पहलू खान की मौत के करीब छह महीने बाद जांच में छह के छह आरोपियों को क्लीन चिट दे दी।

ये तो होना ही था। पहलू खान की निर्मम हत्या के कुछ रोज बाद ही राजस्थान के गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया ने सही बताने की कोशिश की। उन्होंने बिना जांच पहलू खान को गोतस्कर बता दिया। ऐसे में पुलिस की क्या बिसात थी, जो उनसे अलग रास्ता पकड़ती।

पर किसी ने तो पहलू खान को मारा होगा? तस्वीरों में कुछ लोग मारते दिख रहे थे। अगर बहरोड़, पाकिस्तान नहीं था; तो फिर हत्यारों को सजा क्यों नहीं मिली?

क्या ये सवाल पूछने पर कोई हमें पाकिस्तान भेज देगा?

बिसाहड़ा के अखलाक को भूल गए !!

बहस मुबाहिसा में हिंदुस्तान को पाकिस्तान बनने से बचाने वालों, 2015 की 28 सितंबर के उस वक्फे को याद करो। जब उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा में एक पाकिस्तान उभर आया था। संभव है कुछ लोग याद न करना चाहें। ग्रेटर नोएडा के बिसाहड़ा गांव में अखलाक को एक धर्मोन्मादी भीड़ ने घेरकर मार डाला।

अखलाक को क्यों मारा गया? भीड़ को शक था कि उसके घर के अंदर रखे फ्रिज में गोमांस है। भीड़ ने एक शख्स पर आरोप लगाए, भीड़ ही वकील बनी और भीड़ जज बन गई। और फिर जल्लाद भी, तुरंत न्याय किया गया। भीड़ ने एक इंसान को पीट पीटकर मार डाला।

पुलिस देश के कानून के मुताबिक आरोपियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करती है। पर कुछ नेता खड़े हो जाते हैं। कानून के संरक्षण के लिए नहीं, एक शख्स के हत्यारों के पक्ष में। 

हत्या आरोपियों के पक्ष में सरकार का खड़ा होना, क्या कहलाता है?

एक आरोपी की जेल में मौत होती है, तो उसके शव को तिरंगे में लपेटा जाता है। भीड़ हत्या के आरोपी के परिवार के लिए एक करोड़ रुपये के मुआवजे की मांग करती है। और मजे की बात देखिए, भीड़ का समर्थन करने के लिए इलाके के सांसद और केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा भी पहुंच जाते हैं। बीजेपी के नेताओं की पूरी जमात पहुंच जाती है। उत्तर प्रदेश सरकार आरोपी के परिवार के लिए मुआवजे का ऐलान करती है। 

जिस वक्त ये सब होता है, भीड़ द्वारा घेरकर मारे गए अखलाक का परिवार न्याय की उम्मीद पाले हाशिए पर खड़ा दिखता है। इस पीड़ित परिवार के घर न कोई अफसर जाता है, न विधायक जाता है, न केंद्रीय मंत्री और न बीजेपी का नेता। 

क्या इस घटना में पाकिस्तान का अक्श नहीं देखना चाहिए? या हमें कहना चाहिए, ये एक सामान्य बात है। 

कितने किस्से सुनाए जाएं, हिंदुस्तान में पाकिस्तान की भटकती आत्माओं के? बहुत से हैं। हर किस्से में इंसानियत मरती है। वसुधैव कुटंबकम का विचार मरता है। हर किस्से में गंगा जमुनी तहजीब दम तोड़ती दिखती है। और अंत में जब सत्ता उन्मादी भीड़ के साथ खड़ी दिखे, तो न्याय भी धीरे धीरे मरता है।