एक सपना और पूरी हकीकत : एक लघु कथा
उम्र 22 से 23 साल
के बीच रही होगी।
चेहरे पर हल्की सी
दाढ़ी।
सिर पर लंबे बाल
बेतरतीब से बिखरे हुए थे। जिन्हें एक गुच्छा बनाकर पीछे की तरफ बांधा गया था।
वो दुबला सा लड़का
जूट की रस्सियों से बनी चारपाई पर किसी संजीदा बुजुर्ग की तरह बैठा हुआ था।
लेकिन उसके चेहरे पर तनाव भरी परेशानी थी।
एक खीझ दिख रही थी।
वो झुंझलाया सा था।
मैंने पूछ लिया।
परेशान क्यों हो आप?
उसने बताया। मैं
नास्तिक हूं। मुझे ईश्वर पर भरोसा नहीं है।
लेकिन वो मुझे ईश्वर
बनाने पर तुले हुए हैं।
वो कहे जा रहा था।
मैंने तो मई 1927 में लाहौर में अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तारी के
वक्त भी ईश्वर को याद नहीं किया। तब अंग्रेज अफसर ने सलाह दी थी, अगर सजा से बचना है, तो दो वक्त ईश्वर को याद करूं।
उन्होंने कहा। मैंने
बहुत सोच समझकर तय किया है। मैं ईश्वर पर विश्वास और प्रार्थना नहीं कर सकता हूं।
मैंने पूछा - आप कहना क्या चाहते हैं। वो बोले –
मैं नास्तिक हूं।
मैंने कहा – आप ईश्वर को नहीं मानते। कोई ठोस वजह बता सकते हैं। आप नास्तिक क्यों हैं?
इसबार तनाव से भरे
चेहरे पर हल्की मुस्कराहट थी। उन्होंने कहा। हिंदू पुनर्जन्म को मानते हैं। एक
मुसलमान या ईसाई स्वर्ग मैं फैली समृद्धि को। मैं आलोचना और आजाद ख्याली को पसंद
करता हूं क्योंकि ये एक क्रांतिकारी के अनिवार्य गुण हैं। लेकिन वो इन दोनों
विचारों के विरोधी हैं।
मैं कहता हूं सिर्फ
विश्वास और अंध-विश्वास खतरनाक है। यह दिमाग को मूढ़ और इंसान को
प्रतिक्रियावादी बना देता है। जबकि वो कुछ बताए हुए लोगों पर ही विश्वास करते हैं
और उनकी बातों पर अंध-विश्वास।
मैंने फिर पूछ लिया।
आप नास्तिक क्यों बने?
वो कहने लगे, अगर आपका विश्वास है कि एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सर्वज्ञानी
ईश्वर है, जिसने दुनिया की रचना की, तो कृप्या करके मुझे यह
बताएं कि उसने यह रचना क्यों की?
कष्टों और संतापों
से पूर्ण दुनिया – असंख्य दुखों से ग्रसित। एक भी आदमी पूरी तरह
संतुष्ट नहीं है।
उन्होंने कहा।
कृप्या यह न कहें कि यही उसका नियम है। यदि वह किसी नियम से बंधा है, तो वो सर्वशक्तिमान नहीं है।
मैं उनकी परेशानी
देखकर परेशान हुआ। पर समझ नहीं पाया कि वो इस बात से इतना परेशान क्यों हैं? धर्म तो हर किसी का निजी मसला है।
वो समझ गए थे, मेरे मन में क्या चल रहा है?
उन्होंने जोर देकर
समझाया। मैं अराजकतावादी बाकुनिन, साम्यवाद के पिता मार्क्स, लेनिन और त्रात्स्की जैसे लोगों को पढ़कर जवान हुआ हूं। ये सभी
नास्तिक थे।
मैं अभी भी नहीं समझ
पा रहा था, उनकी दिक्कत क्या है?
उन्होंने कहना शुरू
किया। इसबार वो बिना सांस लिए बोले जा रहे थे।
वो मुझे धर्म के रंग
में रंगना चाहते हैं।
वो मंदिर-मस्जिद-गिरजा की दीवारों से घिरे हुए हैं।
वो धर्म, जातियों की परंपरा में जकड़े हुए हैं।
वो धर्म की ऐसी
परिभाषा पर विश्वास कर रहे हैं, जो कुछ लोगों ने अपने फायदे के लिए गढ़ी है।
वो राम के नाम पर
मुसलमानों से नफरत करते हैं।
मस्जिद के नाम पर
मंदिर तोड़ते हैं।
मंदिर के नाम पर
मस्जिद गिरा देते हैं।
उनके धर्म का एक रंग
है। वो हरे, लाल, नीले, केसरिया रंग में बंटे हैं।
वो देश को धर्म और
खास संस्कृति के दायरे में बंद कर देना चाहते हैं।
एक राष्ट्र पर किसी
खास धर्म, संस्कृति और भाषा का ठप्पा मार देना चाहते हैं।
अचानक उनका गला
भर्रा गया। आवाज रुक गयी। ऐसा लगा जैसे उनके गले के इर्द गिर्द किसी ने फंदा डाल
दिया है। हुक हुक की आवाज मेरे कानों से टकराई।
कुछ पल के लिए मैं
घबरा गया। मुझे लगा, जैसे वो नौजवान आखिरी सांसे ले रहा है। मैंने
पास पड़े चादर से अपना चेहरा ढक लिया। मैं डर से निजात पाने के लिए खुद में सिमट
गया।
मैंने माहौल को कुछ
हल्का करने के लिए बीच में ही टोक दिया। पर इन सब बातों से आपको क्या दिक्कत है?
आप नास्तिक हैं, वो ईश्वर को मानते हैं। इससे आपको भला क्या फर्क पड़ता है?
आप बाकुनिन, मार्क्स, लेनिन और त्रात्स्की को पढ़कर विचारवान हुए हैं। और वो मनु, गोलवलकर, किसी मौलाना के फतवे को पढ़ते हैं। तो इसमें आपको क्या
दिक्कत?
वो देश को धर्म, संस्कृति या भाषा के नजरिए से देखते हैं, तो आप परेशान क्यों हैं?
मैंने कहा – तो आपको दिक्कत क्या है?
इसबार वो मुझे पूरी
तरह संतुष्ट करने के अंदाज में बोले। उन्होंने एक सांस में अपनी बात कही। मैं
नास्तिक हूं। धर्म, भाषा और खास संस्कृति के दायरे से आजाद। मैं
आलोचना और आजाद ख्याली पर भरोसा करता हूं।
वो कह रहे थे – दिक्कत ये है कि वो मुझे मूर्ति बनाकर पूजना चाहते हैं। जबकि मैं तो विचार
हूं। वो मेरी जय जयकार कर रहे हैं। ऐसा करते हुए, वो सिर्फ मेरी छवि का
इस्तेमाल कर रहे हैं। मेरी छवि को उन्होंने अपने हिसाब से ढाल दिया है। वो मेरे
विचार को नहीं अपना रहे, सिर्फ चेहरे का उपयोग कर रहे हैं।
मैंने बीच में कुछ
कहने के इरादे से हाथ उठाया। उन्होंने इशारा करके चुप रहने को कहा।
इस बार उनके चेहरे
पर एकसाथ कई भाव थे। एक पल को लगा वो काफी गुस्से में हैं। पर सिसक रहे थे। उनकी
आंखो से आंसू की कुछ बूंदें, मेरे चेहरे पर आकर गिर गयी। मै घबराकर उठा।
बिस्तर पर इधर उधर हाथ फेरा। कमरे में काला अंधेरा बिखरा हुआ था। दरवाजे की एक
दरार से पार्क के बड़े बल्ब की हल्की रोशनी आ रही थी। जिससे कमरे का कुछ हिस्सा
चमक रहा था। मैंने माथे पर चू रहे पसीने को पोछा। घड़ी की तरफ देखा। रात के ढाई बज
रहे थे।
नौजवान का चेहरा
मेरी आंखों में अभी भी घूम रहा था। उसकी छरहरी काया। चेहरे पर हल्की दाढ़ी। सिर पर
बेतरतीब बिखरे बाल। और वो खाट जिस पर वो बैठा हुआ था। मेरी आंखों में लगातार घूम
रही थी। सामने लगे कैलेंडर पर मेरी नजर गयी। तारीख चमक रही थी - 23 मार्च। और वो लड़का भगत सिंह था। मैं अगले कुछ घंटों तक सो नहीं पाया। सोचने
लगा ये सपना था या हकीकत?