हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Sunday, February 25, 2018

गर्व से कहो, हम नेमचेंजर हैं



मक्खियों सी भीन-भिनाहट के शोर ने हॉल के हर कोने को घेर लिया था। पहले ये आवाज हल्की थी। लेकिन धीरे धीरे शोर ने 180 डेसीबल के दायरे को पार कर दिया। हॉल के जिस कोने से भीन-भिनाहट शोर में तब्दील हुई, वहां एक टेबल पर चार पांच लोग एक छोटी जंग जैसे हालात में थे। उनमें से एक दो के चेहरे सुर्ख लाल हो गए थे। माथे पर पसीना दूर से ही चमक रहा था। एक ने आस्तीनें बाजुओं तक चढ़ा ली थी। और दूसरे का गला ऐसे भर्रा रहा था। जैसे कोई फटे ढोल को पीट रहा हो। या ऐसे जैसे कोई मनचाहा एफएम चैनल लगाने की कोशिश कर रहा हो, और फ्रिकवेंसी मैच नहीं कर रही हो। एक तीसरा वो था। जो किसी तरफ नहीं था। वो सब्जी वाले के तराजू की तरह कभी इधर तो कभी उधर चला जाता था। वो हरबार उस तरफ था, जिधर जीतने की उम्मीद ज्यादा दिखाई देती थी। इनमें जो सबसे ज्यादा समझदार थे, उनमें से एक इस तरह मुस्करा रहा था। जैसे इनकी बेवकूफी पर अपनी हंसी छिपा रहा हो। लेकिन उसे इतना मजा आ रहा था, कि वो इन्हें रोकने के बजाय पूरे खेल का मजा ले रहा था। 
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जब शोर 180 डेसीबल के पार चला गया। और इस शोर से उस हॉल के किसी कोने में बच पाना नामुमकिन हो गया। तो लोग माजरा समझने उस टेबल की तरफ बढ़ने लगे। एक सरकार समर्थक पूरे जोश के साथ चिल्ला रहा था। हम लगातार काम कर रहे हैं, हमारी सरकार गेमचेंजर है। विपक्षी ने आस्तीनें ऊपर चढ़ाकर उतनी ही जोर से जवाब दिया। चल झूठे। तुम गेमचेंजर नहीं, नेमचेंजर हो। पिछले चार साल में तुम्हारी सरकार ने सिर्फ नाम बदले हैं। सरकार समर्थक ऐसी तौहीन भरी बातें सुनकर आपा खो बैठा। उसका ब्लड प्रेशर कुलाचें मारने लगा। उसने ब्लड प्रेशर को नॉर्मल स्थिति में रखने की कोशिश की। और फिर करीब करीब चिल्लाते हुए कहा। तुम सारे सिकुलर लोग बकवास करते हो। तुम लेफ्टिस्टों को बस कमियां दिखती हैं। और फिर टेबल पर हाथ पटककर बोला। हम गेमचेंजर भी हैं और ऐमचेंजर भी हैं। 

बात गरम हो गयी है। इस बात के अहसास ने उसके सुर थोड़ा नरम कर दिए। गुस्सा जो गले तक भर गया था। उसे गटकते हुए सरकार समर्थक ने आवाज धीमी करते हुए कहा, ये बहुत गलत बात है, भाई। तुम कांग्रेसी लोग बस ऐसे ही सवाल खड़े करते रहते हो। तुम जैसे लोग ही हैं, जो नाम बदलने पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। हां, हां ऐसे ही लोगों की वजह से दुनिया में देश का नाम नहीं हो पाया। सरकार विरोधी ने बोलने के लिए मुंह खोला ही था कि सरकार समर्थक ने अपनी आवाज तेज कर दी। विरोधी की बातें मुंह से बाहर नहीं निकल सकी। सरकार समर्थक ने इसका पूरा फायदा उठाया। कहने लगा, अब ये मत बोलना कि नाम में क्या रखा है? नाम में ही सब कुछ है, मेरे भाई। हमारी सरकार इसी सिद्धांत पर काम कर रही है। लेकिन लोगों से देखा नहीं जाता।
अपनी बातों पर वजन देने के लिए सरकार समर्थक ने एक उदाहरण देना मुनासिब समझा। कहने लगा, दिल्ली के दयाल सिंह इवनिंग कॉलेज का नाम हम वंदे मातरम कॉलेज रखना चाहते थे। लेकिन आ गए सारे सिकुलर, लेफ्टिस्ट लोग टांग अड़ाने। तूफान मचा दिया। अरे भाई, हमने कॉलेज थोड़े ही बंद किया था। न ही कॉलेज की दीवारों का रंग बदला। बस नाम बदला। और नाम भी ऐसा, जिसे सुनते ही देशभक्ति की भावना जागे। विरोधी कुछ तर्क पेश करने की स्थिति में आ गया, तो उसने कहना शुरू किया। पर दयाल सिंह फ्रीडम फाइटर थे। वो आगे कुछ और कहता, सरकार समर्थक मैदान में कूद गया। हां, माना दयाल सिंह भी देशभक्त थे। भी पर उसका पूरा जोर था। लेकिन वंदेमातरम की बात ही अलग है। सुनकर ही मन में सुकून आ जाता है। नहीं आता, क्या कहा नहीं आता? विरोधी हां या ना कहता। सरकार समर्थक ने विरोधी को बैकफुट पर धकेलने के लिए एक बड़ा दांव चला। हां हां, क्यों आएगा तुम्हें वंदेमातरम सुनकर सुकून? देशद्रोही जो हो तुम! सरकार समर्थक ने एकसाथ कई भूमिका निभाई। पहले आरोप लगाया, फिर वकीलों की मानिंद खुद ही दलीलें पेश की। और फिर जज बनकर झठपट एक फैसला सुना दिया। तुम लोगों को तो पाकिस्तान चले जाना चाहिए। 

सरकार समर्थक वीर रस के कवि की मानिंद बोले ही जा रहा था। और सबसे बड़ी बात हम लोग संस्कृति की बात करते हैं। पर सोच से भी मॉर्डन हैं। इसलिए हमारा जोर ट्रेंडी और मॉर्डन नाम पर ज्यादा रहता है। पुराने, घिसे पिटे नाम बदलने ही चाहिए। ये फटे पुराने जूते जैसे हैं। जो न तो पैर की हिफाजत कर सकते हैं। और न देखने में भले लगते हैं। और तुम विरोधी लोग। उसके चेहरे का भाव ऐसा था, जैसे वो कोई गाली देना चाहता हो। और फिर मौके और जगह की नजाकत देखकर गाली वापस गले में ठूंस दी हो। 

वो नॉनस्टॉप बोले जा रहा था। विपक्षियों की तो आदत ही है। हम नाम बदलते हैं। और तुम क्रेडिट भी नहीं देते। ऊपर से नेमचेंजर, नेमचेंजर कहते हो। नाम बदलना, कोई छोटा काम है भला? मुझे तो लगता है कि तुम लोग हिंदू विरोधी हो। हिंदूओं की परंपरा जानते ही नहीं। क्या तुम्हें ये पता नहीं कि हिंदूओं में नामकरण संस्कार एक बहुत अहम परंपरा होती है। धर्म से जुड़ी बात बहस के बीच लाकर सरकार समर्थक ने मामले को संगीन कर दिया। धर्म के खिलाफ बोलने पर पाप चढ़ता, इसलिए विपक्षी खेमा चुप रहा।

हमें पता है, आप सरकार विरोधी लोग हैं। इसलिए हमारे हर नाम में मीनमेख निकालते रहते हैं। ठीक है। पर एक बात तो बताओ। क्या कोई ऐसा भी नाम है? जो सरकार ने बदला हो। और तुम्हारे मन को न भाया हो। सरकार समर्थक की बात लंबी हो गयी। अगल बगल बैठे लोग बोर हो रहे थे। तो एक न बातों में तड़का लगाया। बोला, बात तो ठीक है। शर्त लगा लो। नाम तो कमाल के रखते हैं, ये लोग। 

सरकार समर्थक सपोर्ट देखकर जोश से भर उठा। कहने लगा। हमारी सरकार ने कांदला पोर्ट का नाम बदलकर दीन दयाल पोर्ट ट्रस्ट रखा। कितना ट्रेंडी नाम है। इसे शॉर्ट में डीडीपीटी भी पुकार सकते हो। हमारी सरकार ने ट्वीटर उपभोक्ताओं का पूरा ख्याल रखा है। वहां वर्ड्स की लिमिट होती है। अब सिर्फ चार कैरेक्टर लिखो, और हो गया। पहले ऐसी सुविधा थी क्या? ऐसा जानदार तर्क देकर सरकार समर्थक के चेहरे पर एक सुकून सा उभर आया।

उसे ऐसा लगा कि विपक्षी खेमा अब पस्त हो गया है। और उसने सोचा, मरे हुए को क्यों मारना। इसलिए उसने पूरी मानवीयता अपनाई। और बहुत ही आराम से कहा। भाई, मानो या न मानो। नाम का बड़ा असर होता है। अब हमारी सरकार ने कृषि मंत्रालय का नाम बदला है, तो देखो कितना शानदार नाम कर रहा है। कृषि मंत्रालय बड़ा बोर करता था। नया नाम, कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय में पूरा फील आता है। नाम सुनते ही लगता है कि किसानों का कल्याण अगर कहीं हो रहा है, तो जम्बू द्वीप में ही हो रहा है।

विपक्षी चुपचाप बैठा सुन रहा था। उससे जवाब देते नहीं बना। उसकी चुप्पी का फायदा सरकार समर्थक ने हर तरह से उठाया। उसने कहा, देखो हमारी सरकार ने योजना आयोग का नाम बदलकर नीति आयोग रखा, तो इन्हें इसमें भी दिक्कत है। अगर दिक्कत है, तो आपकी प्रॉब्लम है, भाई साहब। एक सवाल दागते हुए, उसने पूछा, क्या 70 साल तक योजना आयोग, योजना आयोग सुनकर आप बोर नहीं हुए? और वैसे भी योजना आयोग ने कौन से झंडे गाड़ दिए थे? हमारी सरकार नाम नहीं बदलती, तो भी क्या कर लेते? अरे, कम से कम कुछ काम तो हुआ इस संस्थान में।
सबसे ज्यादा दिक्कत इन विपक्ष वालों को प्रधानमंत्री आवास का पता बदलने में हुई। अरे मैं तो कहता हूं, शुक्र मनाओ, प्रधानमंत्री आवास नहीं बदला। सिर्फ नाम बदला। उसके चेहरे पर दार्शनिकता उभर आई। लगा इसबार वो कुछ खास कहने वाला है। उसने आंख बंद की, और फिर लंबी सांस लेकर कहा। वैसे भी नाम बदलने से क्या फर्क पड़ता है। शेक्सपीयर ने भी कहा है, वट इज इन ए नेम? और ये भी कितना सही है, "A rose by any other name would smell as sweet"  बोलो सही बात है कि नहीं। विपक्षी क्या कहता। हां हूं कहता रहा। सरकार समर्थक के तर्क ही इतने जबर्दस्त थे कि विरोधी के मुंह से कुछ निकल नहीं पाया।

सरकार समर्थक ने इस बार बिल्कुल ओरिजनल बात कही। भाई, मैं तो कहता हूं कि सरकार को संसद में एक कानून पारित कराना चाहिए। जिससे हर 25 साल में हर शहर, हर राज्य, हर रेलवे स्टेशन, हर स्कूल और हर कॉलेज का नाम बदला जाए। मैं तो कहता हूं कि नाम बदलने को हर राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र में जगह दे। जिसका नाम ज्यादा लुभावना होगा, मैं तो उसी पार्टी को वोट दूंगा। ऐसा आइडिया टेबल पर मौजूद किसी शख्स ने कभी नहीं सुना था। वो इस मामले में खुद को इगनोरेंट महसूस करने लगे। और अपराधबोध से दब गए। सोचने लगे, लानत है हमपर। हमें इसके बारे में पता ही नहीं है। पर बहस इतनी लंबी हो गयी थी, कि दोनों तरफ के लोग बोर हो गए। अंत में एक दूसरे को मन ही मन गाली देते हुए, सभा विसर्जित हो गयी।

Friday, February 23, 2018

आर्मी चीफ ने कुछ कहा, आपने सुना क्या?



आज से 60 साल पहले पाकिस्तान के दुर्भाग्य की शुरुआत हुई। पाकिस्तान में लोकतंत्र पनपता, इससे पहले ही लोकतंत्र के पौधे को सेना ने बूंटों तले रौंद दिया। 8 अक्टूबर 1958 को पाकिस्तान के राष्ट्रपति इसकंदर अली मिर्जा ने पाकिस्तान में मार्शल लॉ लगाने का ऐलान किया। प्रधानमंत्री फिरोज खान का तख्ता पलट हो गया। 
Credit: indiohistorian.tumblr.com


सर मलिक फिरोज खान नून पाकिस्तान के अस्तित्व में आते वक्त उन गिने चुने नेताओं में शुमार थे, जिन्होंने पाकिस्तान के गठन में अहम रोल निभाया। फिरोज खान पढ़ी लिखी शख्सियत थे। आजाद हिंदुस्तान और आजाद पाकिस्तान से पहले ब्रिटेन में चर्चिल की सरकार ने फिरोज खान को कई अहम पदों पर तैनात किया। लेकिन फिरोज खान सिर्फ 9 महीने ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ पाए। राष्ट्रपति इसकंदर अली मिर्जा की सत्ता हथियाने की मंशा ने फिरोज खान को प्रधानमंत्री की कुर्सी से बेदखल कर दिया। 
फिरोज खान, Credit: google search

एक राष्ट्रपति की भूल ने लोकतंत्र का गला घोंट दिया

राष्ट्रपति इसकंदर अली मिर्जा ने पाकिस्तान के आर्मी कमांडर इन चीफ अयूब खान को चीफ मार्शल लॉ एडमिनिस्ट्रेटर नियुक्त किया। उन्होंने सोचा होगा कि आर्मी का अफसर उनके हाथ की कठपुतली बना रहेगा। ये पाकिस्तान में पनप रहे लोकतंत्र में आर्मी का पहला दखल था। लेकिन इस दखल की स्क्रिप्ट आर्मी ने नहीं लिखी। न ही इसका वक्त आर्मी ने चुना। लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए राष्ट्रपति ने वो सब किया, जो बाद में आर्मी रुल की वजह बना। 
इस्कंदर अली मिर्जा, Credit: google search

लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पाई

इसकंदर अली मिर्चा के बड़े फैसले के सिर्फ 13 दिन बाद लोकतांत्रिक देश पाकिस्तान में आर्मी की सत्ता कायम हो गयी। इसकंदर अली मिर्जा ने पाकिस्तान के आर्मी कमांडर इन चीफ अयूब खान को थोड़ी सी पावर दी। इस पावर की बदौलत अयूब खान ने राष्ट्रपति इसकंदर मिर्जा को उनके पद से हटा दिया, और खुद को राष्ट्रपति नियुक्त कर दिया। यहां से पाकिस्तान में मार्शल लॉ की शुरुआत हुई। इसकंदर अली मिर्जा की गलतियों की सजा पाकिस्तान आज तक भुगत रहा है। पाकिस्तान को आर्मी के बूटों को सिर का ताज बनाने की सजा भुगतनी पड़ रही है। नतीजा ये है कि आजाद पाकिस्तान को 70 साल में से 33 साल सैनिक शासन के नीचे बिताने पड़े हैं।
जनरल अयूब खान, Credit: wikipedia

70 साल की आजादी, 54 साल का आर्मी रुल 

हमारे पड़ोस में स्थित म्यामांर की कहानी भी ऐसी ही है। म्यामांर 4 जनवरी 1948 को आजाद मुल्क बना। लेकिन 14 साल के अंदर म्यामांर में आर्मी के जनरल नी विन ने लोकतांत्रिक सरकार को गिरा दिया। मई 1990 में करीब 28 साल बाद पहली बार स्वतंत्र चुनाव हुए। इन चुनावों में आंग सांग सू ची की पार्टी नेशनल लीग आफ डेमोक्रेसी ने 492 में से 392 सीटों पर कब्जा किया। इतने प्रचंड बहुमत के बावजूद सैनिक शासकों ने सत्ता नहीं छोड़ी। म्यामांर की जनता और लोकतांत्रिक विचारों पर यकीन करने वाले लोगों को आर्मी रुल की जगह लोकतंत्र कायम करवाने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। सैनिक शासकों के लंबे अत्याचार के बाद नवंबर 2015 में 1990 के बाद पहली बार स्वतंत्र चुनाव हुए। 1990 की तरह इस बार भी आंग सांग सू ची की पार्टी नेशनल लीग आफ डेमोक्रेसी ने प्रचंड बहुमत हासिल किया। एक फरवरी 2016 को करीब 54 साल के सैनिक शासन के बाद पहली बार म्यामांर में कोई लोकतांत्रिक नेता सत्ता की सर्वोच्च कुर्सी पर बैठा।

सैनिक शासक खुद नहीं आते, इन्हें हम बुलाते हैं

ये दो कहानियां हमें पलपल लोकतंत्र की अहमियत का मैसेज देती हैं। साथ ही एक चेतावनी भी देती हैं कि हम जब जब सावधान नहीं रहते, तब तब खतरा हमारी तरफ तेजी से बढ़ रहा होता है। ये कहानियां बताती हैं कि सैनिक शासक खुद नहीं आते। इन्हें हम लेकर आते हैं। हमारी राजनीति और उस राजनीति पर आंख मूदकर चलने वाले हम लोग। इसकी शुरुआत का हमें जरा भी अंदाजा नहीं हो पाता। आर्मी रुल आते वक्त बूंटों की आवाज नहीं आती है। बूंट आवाज तब करते हैं, जब सत्ता पर आर्मी रुलर की पकड़ कायम हो जाती है। वो बूंट की नोक लोकतंत्र के गले पर रख देता है।

आर्मी के बूंटों की आहट महसूस करनी चाहिए

भारतीय सेना का कोई जनरल किसी लोकतांत्रिक पार्टी के बारे में कोई कमेंट करता है। तो यहां हमें उस आहट को महसूस करना चाहिए। हमें खुद से सवाल जरुर पूछना चाहिए कि कहीं बूटों की आवाज नजदीक तो नहीं आ रही है। दरअसल ये सवाल आर्मी चीफ जनरल विपिन रावत के एक बयान से उभरे हैं। 
जनरल विपिन रावत, Credit: google search

सेना बैरक में ही रहनी चाहिए
 
जनरल रावत ने एक सेमिनार में नॉर्थ ईस्ट राज्य असम में मुस्लिम आबादी के बढ़ने का इशारा किया था। मुस्लिम आबादी की बात करते हुए जनरल रावत ने कुछ ऐसी बात कही, जो एक सैन्य अधिकारी के दायरे में नहीं आती। जनरल रावत ने कहा कि बदरुद्दीन अजमल की पार्टी आल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट का उभार 1980 के दशक में बीजेपी से भी तेज है। जनरल रावत ने तीन अलग-अलग बातों के सिरों को एकसाथ लाकर जोड़ा। पहली बात, उन्होंने असम में मुस्लिम आबादी के बढ़ने की कही। दूसरी बात, मुस्लिम आबादी बढ़ने के पीछे की वजह बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ बताई। और तीसरी बात, बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के उभार को इस घुसपैठ से जोड़ दिया।    
"बांग्लादेश से घुसपैठ दो वजहों से हो रही हैउनके यहां जगह की कमी हो रही हैमॉनसून के दिनों में एक बहुत बड़ा हिस्सा पानी में डूब जाता हैतो वहां रहने के लिए बहुत कम जगह है, इसलिए लोग लगातार आ रहे हैं"

    जनरल विपिन रावत, आर्मी चीफ
        (22 फरवरी, 2018)

"मुझे नहीं लगता कि अब इस इलाके में जनसंख्या के समीकरण बदले जा सकते हैं...चाहे जो भी सरकार रही हो...ये घुसपैठ पांच से लेकर नौ जिलों में लगातार रही है...AIUDF नाम की पार्टी है...अगर आप देखें तो ये पार्टी बीजेपी के मुकाबले काफी तेज़ी से बढ़ी है...जब हम जनसंघ की बात करते हैं तो ये पार्टी दो सांसदों से आज यहां तक पहुंची है, AIUDF असम में इससे भी तेजी से बढ़ रही है....... असम की सूरत कैसे होगी इसे देखना होगा...मुझे लगता है कि सरकार नॉर्थ ईस्ट को लेकर सही दिशा में आगे बढ़ रही है..और अगर ऐसा हो पाता है तो हम यहां विकास सुनिश्चित कर सकेंगे..और विकास के जरिए ही यहां रह रहे लोगों पर नियंत्रण रह सकेगा..."

    जनरल विपिन रावत, आर्मी चीफ
         (22 फरवरी, 2018)

जनरल रावत के दो गैरजरुरी सवाल

जनरल रावत ने जिन तीन सवालों को अपनी बात के केंद्र में रखा। उनमें से सिर्फ एक बाद आर्मी के कार्यक्षेत्र में आती है। और वो ये है कि बांग्लादेश से घुसपैठ हो रही है। असम में मुसलमानों की बढ़ती आबादी का सवाल हो, या बदरुद्दीन अजमल की पार्टी का प्रसार ये आर्मी के दायरे से बाहर का प्रश्न है। आर्मी से जुड़ा कोई अधिकारी जब जब ऐसी बातें करेगा, तब तब लगेगा कि वो किसी राजनीतिक विचारधारा के तहत ऐसा कर रहा है। और अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण।


बदरुद्दीन अजमल, Credit: google search


याद रखिए, AIUDF को चुनाव लड़ने का हक संविधान से मिला है

आर्मी चीफ ने अपनी स्पीच में असम में मुस्लिमों की आबादी बढ़ने की बात कही। आर्मी धर्म विशेष की चर्चा करे, यह गैरजरुरी है। उन्होंने अपने संबोधन में बदरुद्दीन अजमल की पार्टी का जिक्र किया। समझना जरुरी है कि बदरुद्दीन अजमल एक सांसद हैं, ठीक उस तरह जिस तरह नरेंद्र मोदी एक सांसद हैं। वो किसी सामान्य संगठन के नेता नहीं हैं। वो भारतीय चुनाव आयोग द्वारा मान्य राजनीतिक संगठन के नेता हैं। जो लगातार कई साल से संविधान में दर्ज लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं। आर्मी चीफ बदरुद्दीन अजमल की पार्टी के बढ़ते ग्राफ को हाइलाइट करें, और इसे मुस्लिमों की बढ़ती आबादी और बांग्लादेश से हो रही घुसपैठ से जोड़ दें। ये स्वाकार नहीं किया जाना चाहिए।

जनरल रावत ने ये बातें किस मंशा से कही, ये सिर्फ वही बता सकते हैं। लेकिन आज जनरल रावत ने यह बात एआईयूडीएफ के लिए कही। कल कोई दूसरा जनरल यही बात लेफ्ट पार्टी के लिए कह सकता है। और जब आर्मी अफसरों की इन बातों को हम स्वीकारते चले जाएंगे। तो एक दिन कोई तीसरा जनरल ये बात कांग्रेस या बीजेपी के लिए भी कहेगा। संभव है चौथा जनरल अयूब खान या जनरल नी विन बन जाए।

जिस दिन बूंटों की आवाज आएगीकाफी लेट हो जाएगा

सवाल ये है कि क्या किसी आर्मी अफसर के ऐसे राजनीतिक दखल को हम स्वीकार करना चाहते हैं? और इससे भी बड़ा सवाल क्या ऐसा राजनीतिक दखल हमें स्वीकार करना चाहिए?
सवाल एक के बाद एक कई हैं। मसलन क्या आर्मी के किसी अफसर के ऐसे राजनीतिक दखल को हम सामान्य घटना मान लें? तो फिर किसी दिन कोई आर्मी अफसर अपनी सत्ता हासिल करने की कोशिश करे, तो उसे किस हक से और क्यों रोकना चाहिए? तो जैसा पहले कहा था, आर्मी जब सत्ता हथिया रही होती है, तो उसके बूंटों की आवाज नहीं आती। लोकतंत्र के गले पर आर्मी का हाथ दबे पांव आता है। और फिर जब हाथ गले के पास पहुंचता है, तो लोग चिल्ला नहीं पाते। वो दिन आए, इसे टालने के लिए लोगों को लोकतंत्र की अहमियत समझनी चाहिए। और हर पल सावधान रहना होगा। क्या हम पाकिस्तान और म्यामांर जैसे पड़ोसी से कुछ सबक लेना चाहेंगे?