गर्व से कहो, हम नेमचेंजर हैं
मक्खियों सी भीन-भिनाहट के शोर ने हॉल के हर कोने को घेर लिया था। पहले ये आवाज हल्की थी।
लेकिन धीरे धीरे शोर ने 180 डेसीबल के दायरे को पार कर दिया। हॉल के जिस कोने से
भीन-भिनाहट शोर में तब्दील हुई, वहां एक टेबल पर चार पांच लोग
एक छोटी जंग जैसे हालात में थे। उनमें से एक दो के चेहरे सुर्ख लाल हो गए थे। माथे
पर पसीना दूर से ही चमक रहा था। एक ने आस्तीनें बाजुओं तक चढ़ा ली थी। और दूसरे का
गला ऐसे भर्रा रहा था। जैसे कोई फटे ढोल को पीट रहा हो। या ऐसे जैसे कोई मनचाहा
एफएम चैनल लगाने की कोशिश कर रहा हो, और फ्रिकवेंसी मैच नहीं कर रही हो। एक तीसरा वो
था। जो किसी तरफ नहीं था। वो सब्जी वाले के तराजू की तरह कभी इधर तो कभी उधर चला
जाता था। वो हरबार उस तरफ था, जिधर जीतने की उम्मीद ज्यादा दिखाई देती थी। इनमें
जो सबसे ज्यादा समझदार थे, उनमें से एक इस तरह मुस्करा रहा था। जैसे इनकी
बेवकूफी पर अपनी हंसी छिपा रहा हो। लेकिन उसे इतना मजा आ रहा था, कि वो इन्हें रोकने के बजाय पूरे खेल का मजा ले रहा था।
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जब शोर 180 डेसीबल
के पार चला गया। और इस शोर से उस हॉल के किसी कोने में बच पाना नामुमकिन हो गया।
तो लोग माजरा समझने उस टेबल की तरफ बढ़ने लगे। एक सरकार समर्थक पूरे जोश के साथ
चिल्ला रहा था। हम लगातार काम कर रहे हैं, हमारी सरकार गेमचेंजर है। विपक्षी
ने आस्तीनें ऊपर चढ़ाकर उतनी ही जोर से जवाब दिया। चल झूठे। तुम गेमचेंजर नहीं, नेमचेंजर हो। पिछले चार साल में तुम्हारी सरकार ने सिर्फ नाम बदले हैं। सरकार
समर्थक ऐसी तौहीन भरी बातें सुनकर आपा खो बैठा। उसका ब्लड प्रेशर कुलाचें मारने
लगा। उसने ब्लड प्रेशर को नॉर्मल स्थिति में रखने की कोशिश की। और फिर करीब करीब
चिल्लाते हुए कहा। तुम सारे ‘सिकुलर’ लोग बकवास करते हो। तुम ‘लेफ्टिस्टों’ को बस कमियां दिखती हैं। और फिर टेबल पर हाथ पटककर बोला। हम
गेमचेंजर भी हैं और ऐमचेंजर भी हैं।
बात गरम हो गयी है।
इस बात के अहसास ने उसके सुर थोड़ा नरम कर दिए। गुस्सा जो गले तक भर गया था। उसे
गटकते हुए सरकार समर्थक ने आवाज धीमी करते हुए कहा, ये बहुत गलत बात है, भाई। तुम कांग्रेसी लोग बस ऐसे ही सवाल खड़े करते रहते हो। तुम जैसे लोग ही हैं, जो नाम बदलने पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं। हां, हां ऐसे ही लोगों की वजह से दुनिया में देश का नाम नहीं हो पाया। सरकार विरोधी
ने बोलने के लिए मुंह खोला ही था कि सरकार समर्थक ने अपनी आवाज तेज कर दी। विरोधी
की बातें मुंह से बाहर नहीं निकल सकी। सरकार समर्थक ने इसका पूरा फायदा उठाया। कहने
लगा, अब ये मत बोलना कि नाम में क्या रखा है? नाम में ही सब कुछ है, मेरे भाई। हमारी सरकार इसी सिद्धांत पर काम कर
रही है। लेकिन लोगों से देखा नहीं जाता।
अपनी बातों पर वजन
देने के लिए सरकार समर्थक ने एक उदाहरण देना मुनासिब समझा। कहने लगा, दिल्ली के दयाल सिंह इवनिंग कॉलेज का नाम हम वंदे मातरम कॉलेज रखना चाहते थे।
लेकिन आ गए सारे सिकुलर, लेफ्टिस्ट लोग टांग अड़ाने। तूफान मचा दिया। अरे
भाई, हमने कॉलेज थोड़े ही बंद किया था। न ही कॉलेज की दीवारों का
रंग बदला। बस नाम बदला। और नाम भी ऐसा,
जिसे सुनते ही देशभक्ति की
भावना जागे। विरोधी कुछ तर्क पेश करने की स्थिति में आ गया, तो उसने कहना शुरू किया। पर दयाल सिंह फ्रीडम फाइटर थे। वो आगे कुछ और कहता, सरकार समर्थक मैदान में कूद गया। हां, माना दयाल सिंह भी देशभक्त
थे। भी पर उसका पूरा जोर था। लेकिन वंदेमातरम की बात ही अलग है। सुनकर ही मन में
सुकून आ जाता है। नहीं आता, क्या कहा नहीं आता? विरोधी हां या ना कहता। सरकार समर्थक ने विरोधी को बैकफुट पर धकेलने के लिए एक
बड़ा दांव चला। हां हां, क्यों आएगा तुम्हें वंदेमातरम सुनकर सुकून? देशद्रोही जो हो तुम! सरकार समर्थक ने एकसाथ कई भूमिका निभाई। पहले आरोप लगाया, फिर वकीलों की मानिंद खुद ही दलीलें पेश की। और फिर जज बनकर झठपट एक फैसला
सुना दिया। तुम लोगों को तो पाकिस्तान चले जाना चाहिए।
सरकार समर्थक वीर रस
के कवि की मानिंद बोले ही जा रहा था। और सबसे बड़ी बात हम लोग संस्कृति की बात करते
हैं। पर सोच से भी मॉर्डन हैं। इसलिए हमारा जोर ट्रेंडी और मॉर्डन नाम पर ज्यादा
रहता है। पुराने, घिसे पिटे नाम बदलने ही चाहिए। ये फटे पुराने
जूते जैसे हैं। जो न तो पैर की हिफाजत कर सकते हैं। और न देखने में भले लगते हैं। और
तुम विरोधी लोग। उसके चेहरे का भाव ऐसा था, जैसे वो कोई गाली देना
चाहता हो। और फिर मौके और जगह की नजाकत देखकर गाली वापस गले में ठूंस दी हो।
वो नॉनस्टॉप बोले जा
रहा था। विपक्षियों की तो आदत ही है। हम नाम बदलते हैं। और तुम क्रेडिट भी नहीं
देते। ऊपर से नेमचेंजर, नेमचेंजर कहते हो। नाम बदलना, कोई छोटा काम है भला? मुझे तो लगता है कि तुम लोग हिंदू विरोधी हो। हिंदूओं
की परंपरा जानते ही नहीं। क्या तुम्हें ये पता नहीं कि हिंदूओं में नामकरण संस्कार
एक बहुत अहम परंपरा होती है। धर्म से जुड़ी बात बहस के बीच लाकर सरकार समर्थक ने
मामले को संगीन कर दिया। धर्म के खिलाफ बोलने पर पाप चढ़ता, इसलिए विपक्षी खेमा चुप रहा।
हमें पता है, आप सरकार विरोधी लोग हैं। इसलिए हमारे हर नाम में मीनमेख निकालते रहते हैं। ठीक है। पर एक बात
तो बताओ। क्या कोई ऐसा भी नाम है? जो सरकार ने बदला हो। और तुम्हारे मन को न भाया
हो। सरकार समर्थक की बात लंबी हो गयी। अगल बगल बैठे लोग बोर हो रहे थे। तो एक न
बातों में तड़का लगाया। बोला, बात तो ठीक है। शर्त लगा लो। नाम तो कमाल के
रखते हैं, ये लोग।
सरकार समर्थक सपोर्ट देखकर जोश से भर उठा। कहने लगा। हमारी
सरकार ने कांदला पोर्ट का नाम बदलकर दीन दयाल पोर्ट ट्रस्ट रखा। कितना ट्रेंडी नाम
है। इसे शॉर्ट में डीडीपीटी भी पुकार सकते हो। हमारी सरकार ने ट्वीटर उपभोक्ताओं
का पूरा ख्याल रखा है। वहां वर्ड्स की लिमिट होती है। अब सिर्फ चार कैरेक्टर लिखो, और हो गया। पहले ऐसी
सुविधा थी क्या? ऐसा जानदार तर्क देकर सरकार समर्थक के चेहरे पर एक सुकून सा उभर आया।
उसे ऐसा लगा कि विपक्षी खेमा अब पस्त हो गया है। और उसने
सोचा, मरे हुए को क्यों मारना। इसलिए उसने पूरी मानवीयता अपनाई। और बहुत ही आराम से
कहा। भाई, मानो या न मानो। नाम का बड़ा असर होता है। अब हमारी सरकार ने कृषि मंत्रालय का
नाम बदला है, तो देखो कितना शानदार ‘नाम’ कर रहा है। कृषि मंत्रालय बड़ा बोर करता था। नया नाम, कृषि एवं किसान
कल्याण मंत्रालय में पूरा फील आता है। नाम सुनते ही लगता है कि किसानों का कल्याण
अगर कहीं हो रहा है, तो जम्बू द्वीप में ही हो रहा है।
विपक्षी चुपचाप बैठा सुन रहा था। उससे जवाब देते नहीं बना।
उसकी चुप्पी का फायदा सरकार समर्थक ने हर तरह से उठाया। उसने कहा, देखो हमारी सरकार ने
योजना आयोग का नाम बदलकर नीति आयोग रखा, तो इन्हें इसमें भी दिक्कत
है। अगर दिक्कत है, तो आपकी प्रॉब्लम है, भाई साहब। एक सवाल
दागते हुए, उसने पूछा, क्या 70 साल तक योजना आयोग, योजना आयोग सुनकर आप बोर नहीं हुए? और वैसे भी योजना
आयोग ने कौन से झंडे गाड़ दिए थे? हमारी सरकार नाम नहीं बदलती, तो भी क्या कर लेते? अरे, कम से कम कुछ काम तो
हुआ इस संस्थान में।
सबसे ज्यादा दिक्कत इन विपक्ष वालों को प्रधानमंत्री आवास
का पता बदलने में हुई। अरे मैं तो कहता हूं, शुक्र मनाओ, प्रधानमंत्री आवास
नहीं बदला। सिर्फ नाम बदला। उसके चेहरे पर दार्शनिकता उभर आई। लगा इसबार वो कुछ
खास कहने वाला है। उसने आंख बंद की, और फिर लंबी सांस लेकर कहा।
वैसे भी नाम बदलने से क्या फर्क पड़ता है। शेक्सपीयर ने भी कहा है, वट इज इन ए नेम? और ये भी कितना सही
है,
"A rose by any other name would smell as
sweet" बोलो सही बात है कि नहीं। विपक्षी क्या कहता।
हां हूं कहता रहा। सरकार समर्थक के तर्क ही इतने जबर्दस्त थे कि विरोधी के मुंह से
कुछ निकल नहीं पाया।
सरकार समर्थक ने इस बार बिल्कुल ओरिजनल बात कही। भाई, मैं तो कहता हूं कि सरकार को संसद में एक कानून
पारित कराना चाहिए। जिससे हर 25 साल में हर शहर, हर राज्य, हर रेलवे स्टेशन, हर स्कूल और हर कॉलेज का नाम बदला जाए। मैं तो कहता हूं कि
नाम बदलने को हर राजनीतिक दल अपने चुनावी घोषणा पत्र में जगह दे। जिसका नाम ज्यादा
लुभावना होगा, मैं तो उसी पार्टी को वोट
दूंगा। ऐसा आइडिया टेबल पर मौजूद किसी शख्स ने कभी नहीं सुना था। वो इस मामले में
खुद को इगनोरेंट महसूस करने लगे। और अपराधबोध से दब गए। सोचने लगे, लानत है हमपर। हमें इसके बारे में पता ही नहीं
है। पर बहस इतनी लंबी हो गयी थी, कि दोनों तरफ के लोग
बोर हो गए। अंत में एक दूसरे को मन ही मन गाली देते हुए, सभा विसर्जित हो
गयी।