हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Thursday, January 17, 2019

ये हर बात पर जंग क्यों छिड़ी है?


शायर वसीम बरेलवी ने एक शेर में पते की बात कह दी है। 

अपने हर हर लफ्ज का खुद आईना हो जाऊंगा, उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊंगा।

क्विंट की पत्रकार स्तुति मिश्रा ने ट्वीटर पर छह छोटे शब्द लिखने से पहले वसीम बरेलवी के इस शेर को सुना होता, तो शायद वो कभी न लिखतीं। 

बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने बुधवार रात खुद को स्वाइन फ्लू होने की बात ट्वीटर पर बताई। इसके रिएक्शन में पत्रकार स्तुति मिश्रा ने जो लिखा, वो बेशक गलत है। स्तुति मिश्रा ने लिखा – “People die of swine flu, right?”


पत्रकार ने इन शब्दों को लिखते वक्त क्या सोचा होगा; ये तो वही जानें। पर इन शब्दों का इशारा भद्दा है। इन शब्दों से निकले अर्थ पत्रकार को असंवेदनशील इंसान साबित कर रहे हैं। 

इन छह शब्दों ने एक पत्रकार के हजारों अच्छे शब्दों का काम तमाम कर दिया।
क्विंट ने स्तुति मिश्रा की असंवेदनशील और अपरिपक्व टिप्पणी के लिए माफी मांगी और अमित शाह के जल्द स्वस्थ होने की कामना की। 

पर इससे काम तो बनता नहीं है। जो तीर स्तुति मिश्रा के कमान से निकला है, वो लौटने वाला तो नहीं। 

स्तुति मिश्रा के असंवेदनशील कमेंट ने एनडीटीवी की सीनियर पत्रकार सुनेत्रा चौधरी की एक पुरानी गलती को भी उभार दिया है। करीब दस साल पहले 2009 के अक्टूबर महीने में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को स्वाइन फ्लू हुआ था। 

अखबारों में ये खबर छपी, तब सुनेत्रा चौधरी खबर सुनकर काफी एक्साइटेड फील करने लगीं। उन्होंने अपनी ये खुशी ट्वीटर पर तुरंत जाहिर भी की।  

अब जबकि स्तुति मिश्रा ने अमित शाह की बीमारी को लेकर भद्दा कमेंट किया, तो लोगों ने सुनेत्रा चौधरी के उस पुराने कमेंट को कब्र से निकालकर जिंदा कर दिया। 

स्तुति मिश्रा के छह शब्दों के बहाने मीडिया के दो संस्थान निशाने पर आ गए हैं।
एक झटके में क्विंट और एनडीटीवी की अच्छी-बुरी पत्रकारिता को सिर्फ बुरी पत्रकारिता के खांचे में भरने की मुहिम चालू है। 

शब्दों के खिलाड़ियों को संवेदनशील होना ही चाहिए। क्रिकेट की शब्दावली में कहें, तो ये उसी तरह है। जैसे किसी टीम का बॉलर आखिरी ओवर की आखिरी बॉल फेंक रहा हो। और उसने तब नो बॉल फेंकी, जब विरोधी टीम को मैच जीतने के लिए आखिरी बॉल पर सिर्फ एक रन बनाना था।

लिखने वालों के लिए हर शब्द मैच की आखिरी बॉल सा होना चाहिए। मतलब बॉल फेंकने से पहले लाइन लेंग्थ की जांच तो करनी ही चाहिए।

मामला सिर्फ लाइन लेंग्थ का नहीं है। सवाल ये है कि एक इंसान के तौर पर बीमार शख्स के लिए स्वस्थ होने की दुआ करना हमने कब छोड़ा? ये तंगदिली आई कहां से? और कैसे इस तंगदिली ने हमारे दिमागों पर पकड़ बना ली?  

सवाल मामूली नहीं है। आखिरी कोई बात तो होगी; जो एक पत्रकार, लेखक और पब्लिक लाइफ में काम करने वाले लोगों को ऐसा सोचने के लिए उकसा रही है।  

इन सालों में ये बढ़ा है। बात करते करते,  लोग बहस पर उतारु हो रहे हैं। बहस करते करते, कब झगड़ा कर बैठेंगे, पता नहीं चलता। बातचीत यानी चर्चा बहस के रास्ते जंग बन गई है।

समाज के हर तबके में ये जंग चल रही है। कोई तो है, जो बातचीत सामान्य नहीं रहने दे रहा। कौन है वो?

मैं दूसरों की नहीं जानता; पर मेरा अनुभव है। भाई, बहन, चाचा, मामा, दोस्त और तमाम लोगों के बीच मुद्दों पर होने वाली बातचीत सामान्य नहीं रही है।

सबने अपने लिए, एक कोना पकड़ रखा है। सबने अपने लिए एक टीम चुन ली है। और हर शख्स ने खुद को अपनी चुनी हुई टीम का चीयरलीडर बना लिया है।

चीयरलीडर बने शख्स अपनी टीम के गोल पर तालियां बजाते हैं, कुर्सियों पर उछलते हैं। मोदी मोदी, राहुल राहुल के नारे लगाते हैं। और दूसरी टीम के गोल पर गुस्से से भर उठते हैं। गालियां देने लगते हैं। इन लोगों ने दिल में अपनी टीम के लिए बेशर्त मुहब्बत, और विरोधी टीम के लिए नफरत ही नफरत भर रखी है।

गुस्सा लाजिमी है और नफरत भी। ये इंसानी गुण है। हर इंसान में होना ही चाहिए। पर किसलिए? ये सवाल हमें खुद से ही पूछने हैं।

हिंसा के प्रति गुस्सा और नफरत न पैदा होती हो, तो पढ़ना लिखना सोचना बेमानी है।
बच्चियों से रेप पर गुस्सा न आए, तो सोचना होगा हम इंसानियत के किस पायदान पर खड़े हैं
धर्म के नाम पर हिंसा हो, तो गुस्सा जरुरी भाव होना चाहिए।
मंदिर मस्जिद के नाम पर बांटने वाली राजनीति से नफरत, मैं जरुरी समझता हूं।
बुलंदशहर की तरह पुलिसवालों को हिंसक भीड़ थाने के सामने मार डाले, तो गुस्सा आना चाहिए।
राजस्थान के अलवर में गाय के नाम पर पहलू खान और रकबर खान की मॉब लिंचिंग पर खून खौलना चाहिए, गुस्सा लाजिमी हो जाता है।
भूख, बिना छत, बिना इलाज कोई इंसान मर जाए, तो ऐसी सरकारों पर गुस्सा आना चाहिए।
साल भर कड़ी धूप, मूसलाधार बारिश और कड़ाके की सर्दी में हाड़ तोड़ने वाले किसान को उसकी फसल का मोल न मिले, और फिर उसे फांसी पर लटकना पड़े, तो गुस्सा आना ही चाहिए।

पर गुस्से का कोई इलाका होना चाहिए। गुस्से के पैदा होने का कोई बहाना होना चाहिए। इसे निजी हमले का हथियार मत बनाओ।  

बॉलीवुड फिल्म घातक के एक फिल्मी संवाद में गहरे अर्थ छिपे हैं। जिसमें पिता बने अमरीश पुरी महात्मा गांधी के एक किस्से का जिक्र करते हुए अपने बेटे सनी देओल से कहते हैं, क्रोध को पालना सीख, काशी

और शुरुआत जहां से हुई, अंत उसी से करते हैं।
अपने हर हर लफ्ज का खुद आईना हो जाऊंगा, उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊंगा।

Thursday, January 3, 2019

‘सबका साथ-सबका विकास’ से ‘सब’ कौन गायब करता है?


साल 2014 में दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने जिस नारे का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है। अगर ये सवाल किसी से पूछा जाए, तो बेशक एक नारा दिमाग में कौंधता है। वो नारा है – सबका साथ, सबका विकास
 
चार शब्दों के इस नारे में महान हिंदुस्तान की वो विराट विरासत छिपी है। जिसे अलग-अलग वक्त में अलग-अलग नारों से शक्ल दी गई। संस्कृत में दो शब्दों का मूल वाक्य न जाने कितने वर्षों से हिंदुस्तान की चेतना को झकझोर रहा है। ये दो शब्द हैं – वसुधैव कुटुंबकम्। यानी पूरी धरती परिवार के समान है  
(Courtsey Image : Google search )
 
ये दो शब्द, महोपनिषद के एक श्लोक की दो पंक्तियों का हिस्सा हैं। जहां लिखा गया है –

अयं निज: परो वेति गणना लघु चेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्।।


इसका अर्थ है – यह मेरा बंधु है, वह मेरा बंधु नहीं है। ऐसा विचार या भेदभाव छोटे विचार वाले लोग करते हैं। उदार चरित्र के लोग पूरी दुनिया को ही परिवार मानते हैं। 

तो जब-जब प्रधानमंत्री कहते हैं, सबका साथ-सबका विकास। तब-तब आभास होता है कि राजनीति में कोई है, जो इंसान को इंसान समझना चाहता है और उसके धर्म, उसकी जाति, उसके रंग-रुप, उसके क्षेत्र की पहचान को दरकिनार कर देने का विचार मन में संजोए है। 

कहा जाता है कि दुनिया के सबसे विशाल राजनीतिक संगठन भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की संख्या 10 करोड़ के पार है। और मैंने ये भी महसूस किया है कि यही वो राजनीतिक दल है, जिसके कार्यकर्ता अपने नेता नरेंद्र मोदी को पलकों पर बिठाकर रखते हैं।

नरेंद्र मोदी की यही ताकत भी है; उनके करोड़ों समर्थक उनकी हर सही, कभी गलत बात के पीछे भी चट्टानी समर्थन देते हैं। 

सोचता हूं कि मई 2014 के बाद से अब तक प्रधानमंत्री ने इस नारे (सबका साथ, सबका विकास) को कितनी बार बोला होगा? सैकड़ों बार, संभव है हजारों बार।

यहीं पर एक विरोधाभासी सवाल पिछले कई दिनों से मेरे मन में बार-बार उठ रहा है। सवाल ये है कि जब दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक दल का नेता हजारों बार छोटे बड़े मंच से सबका साथ, सबका विकास कहता है, तब उसकी पार्टी के देशभर में फैले कार्यकर्ता इस नारे की भावना को पकड़-समझ क्यों नहीं पाते

कहानी को आगे बढ़ाऊं, उससे पहले एक किस्सा बता दूं। कुछ दिन पहले मैं अपने एक पारिवारिक मित्र से मिला, बातों-बातों में राजनीति की बात होने लगी। बातचीत का सिलसिला राम मंदिर से होते हुए मौजूदा सरकार के कामकाज तक चला गया। 

मैं इस बहस में न कूदता। जब तक कि मेरे वो मित्र राम मंदिर बनाए जाने के लिए एक ऐसी दलील न पेश करते; जिसने मेरे अंदर के बहसबाज को मैदान में उतरने के लिए बाध्य कर दिया। 


मैंने पूछा – ऐसे देश में राम मंदिर की भला क्या जरुरत, जहां करोड़ों युवा बेरोजगारी के समंदर में गहरे, और गहरे उतरते जा रहे हों; और बाहर निकलने का कोई रास्ता दिखता न हो।

उन्होंने बेरोजगारी के सवाल को नजरअंदाज कर दिया, राम मंदिर पर ही फोकस किया। उन्होंने कहा – देश में हिंदू संस्कृति को जिंदा रखने के लिए राम मंदिर जरुरी है।

भला क्यों?” मैंने पूछा।
तब उन्होंने, इसके लिए एक तर्क पेश किया। वो बहस में मुसलमानों को ले आए थे। 


उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई - हम नहीं जागे तो मुसलमान पूरे देश पर कब्जा कर लेंगे। उन्होंने हमारे सारे रोजगार पर कब्जा कर लिया है।

उनका हमारे शब्द पर ज्यादा जोर था।

उन्होंने आगे कहा – मुसलमानों को तो 1947 में ही पाकिस्तान चले जाना चाहिए था।

मैंने टोका। पर वो गए नहीं, हिंदुस्तान को अपनी मिट्टी समझकर यहीं चिपक गए, रच बस गए।

उन्होंने कहा – अगर हमने उन्हें यहां रहने दिया, तो उन्हें तमीज से रहना चाहिए।
कुछ देर में बहस मोदी राज पर आ गई थी। उन्होंने मोदी सरकार के हर काम की तारीफ की। नोटबंदी को सही ठहराने के भी उनके पास तर्क थे। उनका कहना था – भले ही नोटबंदी कामयाब न रही, पर मंशा तो ईमानदार थी न?

वो जोश में थे। उनकी चलती, तो वो उसी पल नरेंद्र मोदी को 2019 के चुनाव से पहले दोबारा प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला देते। 

यहां पर एक बात बताना जरुरी है कि मेरी बहस जिस मित्र से हुई। वो पढ़े लिखे हैं, इतना कि आपको उनकी पढ़ाई लिखाई से रश्क हो जाए। 

मेरे मन में सवाल ये है कि मेरे उन मित्र को अपने प्रिय प्रधानमंत्री के उन शब्दों की अहमियत क्यों नहीं पता? जबकि मेरे प्रधानमंत्री बार-बार कहते हैं सबका साथ, सबका विकास

चलिए मान लेते हैं, वो (समर्थक) इस नारे की अहमियत नहीं समझना चाहते। फिर अगला सवाल ये होना चाहिए कि प्रधानमंत्री के इन करोड़ों प्रशंसकों, समर्थकों या एक तरह से भक्त बन गए लोगों के दिल और दिमाग में इस शानदार नारे (सबका साथ, सबका विकास) का विपरीत विचार क्यों और कैसे पनप गया है

मुझे पूरा यकीन है कि जब प्रधानमंत्री सबका साथशब्द बोलते हैं, तब उसमें हिंदुस्तान के सब जरुर शामिल होंगे। मुझे नहीं लगता प्रधानमंत्री सब में से मुसलमानों को अलग छोड़ने का इरादा भी करते होंगे।


मैं तो यहां तक मानता हूं कि प्रधानमंत्री के दिल और दिमाग में ये विचार आता भी न होगा। मेरा प्रधानमंत्री पर ये विश्वास इसलिए है, क्योंकि जो शख्स सबका साथ, सबका विकाससैकड़ों भाषणों में हजारों बार कह चुका हो। संभव नहीं है कि वो इन शब्दों का मर्म न समझे, और इसके विपरीत सोचने लगे।

तो क्या आप मेरी इस बात से सहमत होना चाहेंगे? मई 2014 से अब तक यानी चार साल सात महीने के दौरान मेरे प्रधानमंत्री के प्रशंसकों और उनकी पार्टी के समर्थकों ने श्रीमुख से निकले सबसे शानदार शब्दों (सबका साथ, सबका विकास) पर जरा भी गौर नहीं किया।

उलट इसके, उन्होंने (समर्थक, प्रशंसक इत्यादी) इस नारे (सबका साथ, सबका विकास) को चौराहे पर तार-तार बेइज्जत ही किया है। जब-जब दुनिया की सबसे विशाल पार्टी के कार्यकर्ता और इस महान देश के सबसे मजबूत नेता के प्रशंसक मुसलमान...मुसलमान, मंदिर...मस्जिद बोलते हैं। तब-तब लगता है कि या तो वो अपने नेता की बात सुनना नहीं चाहते; या फिर ऐसा वो बहुत सोच समझकर ही कर रहे हैं। 

तो इस लेख के आखिरी हिस्से में सवाल ये खड़ा हो गया है कि क्या इस दौर के सबसे मजबूत समझे जाने वाले नेता से भी ज्यादा अहम कोई है?  

जो सबका साथ नहीं चाहता। सबका विकास तो कतई नहीं। वो कौन है?

या फिर शतरंज का एक ऐसा खेल खेला जा रहा है, जिसके काले सफेद 64 खानों में 32 प्यादे, घोड़े, ऊंट, हाथी, वजीर और राजा घूम रहे हैं। और इन्हें घुमाने वाला कोई एक हाथ है, काली तरफ भी और सफेद तरफ भी। 

वो हाथ किसके हैं? जिसके इशारे पर राजा मुहब्बत की बातें करता है। वजीर, राजा की शान में कसीदे गढ़ता है। घोड़े और ऊंट को टेढ़ी चाल चलने की आजादी मिली हुई है। और जिसके इशारे पर प्यादे हर वो बात करने पर आमादा हैं, जो राजा की फैलाई मुहब्बत का गला घोंट रहे हैं। 

संभव है ये खेल फिक्स हो। हारे कोई भी अंत में जीतेगा वही, जिसके इशारे पर राजा खेलता है, प्यादे उछलते हैं। 

और अंत में एक दूसरी बात, जिसका ताल्लुक इस लेख से है भी, और नहीं भी। राजनीति का खेल कोई पांच साल के लिए तो खेला नहीं जाता। पांच साल में तो सिर्फ चुनाव आते हैं।

मोदी के इंटरव्यू में बोलने का हुनर ज्यादा, जवाब कम मिले


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जिस इंटरव्यू को टीवी न्यूज चैनल्स ने धमाकेदार इंटरव्यू बताया। जिसके लिए टेलीविजन की स्क्रीन पर 2019 का सबसे बड़ा धमाका लिखा गया। जिस इंटरव्यू के लिए कहा गया कि वो मोदी से पूछे जाने वाले सभी सवालों का जवाब है। 

क्या वो इंटरव्यू सबसे बड़ा धमाका था

क्या नरेंद्र मोदी से पूछे जा रहे सभी सवालों के जवाब इस इंटरव्यू से मिल गए हैं?



जिन पांच सात मुद्दों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 95 मिनट के इंटरव्यू में जवाब दिए। उनमें पांच राज्यों में मिली चुनावी हार, महागठबंधन और इससे मोदी के सामने पेश चुनौती, राम मंदिर के निर्माण का सवाल, राफेल डील पर कांग्रेस द्वारा लगाए जा रहे आरोप, देश की सर्वोच्च संस्थाओं (सीबीआई, आरबीआई, ईडी) में छिड़ी जंग, किसानों की कर्जमाफी का मुद्दा, सरकार की पाकिस्तान नीति, तीन तलाक और सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश से जुड़े सवाल अहम रहे।

सवालों के जवाब कम, बोलने का हुनर ज्यादा दिखा

एक दर्शक और पत्रकार के तौर पर मुझे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जवाबों में साफगोई नहीं दिखी। एक राजनेता के तौर पर सवालों से बच निकलने की कला और वाकपटुता का हुनर तो पूरे इंटरव्यू में दिखता है। चेहरे की हलचल, भावनाओं के उतार-चढ़ाव और आवाज के आरोह-अवरोह से समां बंधता जरुर है। पर सवालों के असल जवाब नहीं मिलते। 

इंटरव्यू में पूछे गए कुछ सवालों के जवाब में एक आदर्श स्थिति पर पहुंच जाने की बातें हैं। पर देश के सामने मौजूद गंभीर मुद्दों को हल करने के लिए जैसे जवाब की भारत देश के प्रधानमंत्री से उम्मीद थी, वो इंटरव्यू में नदारद लगा। 


एक मित्र ने इंटरव्यू सुनने के बाद मजाकिया लहजे में कहा - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक पत्रकार के सामने बैठकर भाषण दिया। उस वक्त इस बात को मैंने मजाक में ही लिया। पर अब सोच रहा हूं, तो लगता है - गलत क्या कहा?

सर्वोच्च नेता ने 5 राज्यों की हार की जिम्मेदारी क्यों नहीं ली?

इस धमाकेदार इंटरव्यू की शुरुआत पांच राज्यों में बीजेपी की हार के सवाल से हुई। मुझे सवाल अच्छा लगा। पहले सवाल में प्रधानमंत्री ने बहुत चतुराई से बच निकलने की कोशिश की। दूसरा सवाल न पूछा जाता, तो प्रधानमंत्री इसपर ज्यादा बोलने के मूड में नहीं थे। पर दूसरा सवाल फिर इसी पर पूछा गया, तो उन्हें जवाब देना पड़ा। सवाल अहम है, और 11 दिसंबर के बाद बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं से लगातार पूछा जा रहा है। 

एक लीडर के तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस हार की जिम्मेदारी लेनी चाहिए थी। जैसी सलाह उनकी सरकार में बड़े मंत्री और पार्टी के बड़े नेता नितिन गडकरी भी दे चुके हैं। लेकिन प्रधानमंत्री ने हार की जिम्मेदारी नहीं ली। उन्होंने हार का दूसरा विश्लेषण किया। 

बीजेपी के सामान्य कार्यकर्ता और मोदी समर्थक इस सवाल के जवाब में 11 दिसंबर के बाद से तीन बातें कहते आ रहे हैं। पहली बात, बीजेपी सिर्फ छत्तीसगढ़ में हारी। दूसरी बात, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी कुछ वोट से पीछे रह गई; कांग्रेस स्पष्ट बहुमत नहीं पा सकी। और तीसरी बात, तेलंगाना और मिजोरम में बीजेपी मुख्य प्रतिद्वंदी नहीं थी, वहां तो कांग्रेस हारी। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पांच राज्यों में हार के सवाल पर वही तर्क पेश किए, जो उनकी पार्टी के कार्यकर्ता और संबित पात्रा बार बार दोहरा रहे हैं।

मौत को गले लगाते किसान की कर्जमाफी लॉलीपॉप है?

पत्रकार ने किसानों के कर्जमाफी को लेकर सवाल पूछा, तो प्रधानमंत्री ने कर्ज माफी को लॉलीपॉप बता दिया। ऐसे शब्दों को लेकर पूछा जाना चाहिए कि क्या प्रधानमंत्री किसानों के प्रति संवेदनशील हैं?

सवाल पूछा जाना चाहिए था कि अगर कांग्रेस शासित राज्य मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में किसानों की कर्जमाफी लॉलीपॉप है, तो बीजेपी शासित राज्यों उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में भी ऐसा ही है क्या?

प्रधानमंत्री ने बेशक 55 महीने के दौरान अपनी सरकार द्वारा किसानों के लिए किए गए अनगिनत काम गिनाए। पर पत्रकार के पूछने पर भी ये नहीं बताया कि इनका असर जमीन पर क्यों नहीं दिख रहा

अलबत्ता प्रधानमंत्री के पास 14 दिन पुरानी सरकार (मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़) के लिए सवाल थे। आरोपों की फेहरिस्त भी थी। 


प्रधानमंत्री ने किसानों को लेकर आदर्श स्थिति की बात कही। उन्होंने कहा - कर्जमाफी कोई हल नहीं है, बात ये होनी चाहिए कि किसान कर्ज क्यों लेता है


प्रधानमंत्री की बात में दम है, लेकिन उन्हें याद रखना चाहिए कि पांच साल में चार महीने कम दिल्ली में उनकी सरकार है, और जो सवाल किसानों की हालत को लेकर वो उठा रहे हैं उन्हें हल करने का जिम्मा उन्हीं के कांधों पर था।

धार्मिक आस्था बड़ी या संविधान के तहत मिले मूल अधिकार?

इस इंटरव्यू में जिस सवाल के जवाब ने सबसे ज्यादा मायूस किया, वो सवाल तीन तलाक और सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे से जुड़ा था।

इस सवाल के जवाब में प्रधानमंत्री ने साफ कर दिया है कि उनकी सरकार और उनकी पार्टी महिलाओं को धार्मिक खांचे में बांटकर न्याय करने की पक्षधर है। यानी महिलाओं को अधिकार तो मिलेंगे, लेकिन हिंदू महिलाओं के अधिकार अलग होंगे, मुस्लिम महिलाओं के अधिकार अलग। 


पत्रकार ने पूछा था – मोदीजी आप तीन तलाक के मुद्दे पर मुस्लिम महिलाओं के लिए खड़े हुए; लेकिन सबरीमला के मुद्दे पर आपकी पार्टी परपंरा, आस्था और रीति रिवाज की बातें करती है। एक समुदाय के लिए प्रोग्रेसिव सोच और दूसरे के लिए परंपरा वाली बातें क्यों?”


जवाब में प्रधानमंत्री ने तीन तलाक को मुस्लिम समुदाय की कुरिति बताया। उन्होंने तीन तलाक पर अपनी सरकार के फैसले को जेंडर इक्वलिटी, सामाजिक न्याय और मुस्लिम महिलाओं के अधिकार से जोड़ा। लेकिन सबरीमाला मंदिर के सवाल पर हिंदू महिलाओं के अधिकार की जगह उन्होंने परंपराओं को तरजीह दी। 

अपनी बातों को कहने के लिए प्रधानमंत्री ने जो तर्क पेश किया, वो सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की खंडपीठ की इकलौती महिला जज जस्टिस इंदु मल्होत्रा का तर्क था। प्रधानमंत्री ने जस्टिस इंदु मल्होत्रा द्वारा लिखी बातों को पढ़ने की सलाह दी। 

जिस वक्त प्रधानमंत्री सबरीमाला मामले में माइनॉरिटी जजमेंट का हवाला दे रहे थे। उन्होंने चार जजों के बहुमत के फैसले को तवज्जो नहीं दी, जो जांच परखकर संविधान की मूल भावना को ध्यान में रखकर लिखा गया था। 


प्रधानमंत्री ने पूर्व चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के उन शब्दों पर ध्यान नहीं दिया। जो उन्होंने फैसले में लिखे हैं – धर्म के नाम पर पुरुषवादी सोच ठीक नहीं है। उम्र के आधार पर मंदिर में प्रवेश से रोकना धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं है।

प्रधानमंत्री ने माइनॉरिटी जजमेंट में लिखी बातों को पढ़ने का अनुरोध किया, लेकिन बहुमत के फैसले में लिखी बातों को पूरी तरह नजरअंदाज किया। 

मेरा कहना है कि संविधान की दुहाई देने वाले प्रधानमंत्री को फैसले के इन शब्दों पर ध्यान देना चाहिए। 

जहां सुप्रीम कोर्ट ने कहा – संविधान के अनुच्छेद 26 के तहत मंदिर में प्रवेश पर बैन सही नहीं है। संविधान पूजा में भेदभाव नहीं करता है।

नोटबंदी मास्टर स्ट्रोक थी, परेशानी लोगों की नादानी से हुई!

नोटबंदी का फैसला विफल रहा, इस बात के कई पुख्ता सबूत हमारे सामने हैं। इसके अर्थव्यवस्था पर गलत प्रभावों के बारे में देश विदेश के अर्थशास्त्री बातें कर रहे हैं। पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसे अभी भी मास्टर स्ट्रोक मान रहे हैं। 

अच्छा होता, प्रधानमंत्री बड़प्पन दिखाते और इस खराब नीति के लिए देश से माफी मांग लेते। पर उन्होंने नोटबंदी के दौरान हुई मुश्किलों की पूरी जिम्मेदारी देश की जनता पर डाल दी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस इंटरव्यू में कहा, ''नोटबंदी कोई झटका नहीं था। हमने लोगों को पहले ही चेता दिया था कि अगर आपके पास काला धन है, तो आप इसे बैंक में जमा कर दें। आप जुर्माना दें और आपकी मदद की जाएगी, हालांकि लोगों को लगा कि मोदी भी औरों की तरह कह रहे हैं; इसीलिए बहुत कम लोग स्वेच्छा से आगे आए।

नोटबंदी पर प्रधानमंत्री की बात बिल्कुल साफ है। शायद वो कहना चाहते हैं कि उन्होंने पहले ही लोगों को चेतावनी दी थी, लेकिन लोग माने नहीं। अगर माने नहीं, तो फिर जो झेला, जो परेशानी हुई; वो उसके हकदार थे, क्योंकि लोग इशारों को समझे ही नहीं।

उर्जित पटेल और रिजर्व बैंक पर सवालों के जवाब नहीं मिले?  

रिजर्व बैंक में बवाल के बाद गवर्नर उर्जित पटेल के इस्तीफे पर उठ रहे सवालों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस तरह अपने जवाब से साफ करने की कोशिश की, मानो रिजर्व बैंक में कुछ हुआ ही नहीं था।

प्रधानमंत्री ने कहा, ''उर्जित पटेल ने निजी कारणों के चलते इस्तीफा दिया था। मैं यह पहली बार बता रहा हूं, लेकिन उन्होंने अपने इस्तीफे के बारे में मुझे 6-7 महीने पहले ही बता दिया था। साथ ही उन्होंने मुझे इस्तीफे की बात लिखित में भी दी थी। इस मामले पर राजनीतिक दबाव का सवाल ही नहीं उठता।

अगर ऐसी बात है, तो प्रधानमंत्री को इस सवाल का जवाब जरुर देना चाहिए कि एक ऐसा शख्स जो 6-7 महीने से इस्तीफे के बारे में सोच रहा था, अचानक वित्त मंत्रालय और पूरी सरकार से क्यों टकराया?

सर्जिकल स्ट्राइक का सवाल और देशभक्ति का पुराना तराना

और अंत में सर्जिकल स्ट्राइक के सवाल पर प्रधानमंत्री की वाकपटुता की पूरी झलक दिखी। सर्जिकल स्ट्राइक के मुद्दे पर पूछे गए दो सवालों के जवाब देने के लिए प्रधानमंत्री ने पूरे दस मिनट लिए।

प्रधानमंत्री ने अपने इंटरव्यू में दो साल से भी ज्यादा पुरानी घटना पर दस फीसदी से ज्यादा वक्त दिया। जबकि तीन तलाक और सबरीमाला पर प्रधानमंत्री का जवाब दो से तीन मिनट में निपटा। उर्जित पटेल और रिजर्व बैंक पर सवाल का जवाब बमुश्किल दो मिनट के अंदर खत्म हुआ। इससे साफ है कि चुनाव से ठीक पहले नरेंद्र मोदी की प्राथमिकताएं क्या हैं?

इन दस मिनट के दौरान नरेंद्र मोदी के चेहरे पर हर भाव को आप महसूस कर सकते हैं। वो भावुक हुए। वो मुस्कराए। भर्राई आवाज में हल्का हंसे। ऐसा लगा जैसे आंखें नम होने को हैं। उन्होंने रहस्यमयी अंदाज में 28-29 सितंबर 2016 के सर्जिकल स्ट्राइक की पूरी दास्तान सुनाई। 

नरेंद्र मोदी ने बताया कि वो उस दिन कितना बेचैन थे। अपनी बेचैनी उन्होंने इस तरह बयान की, कि सुनने वाला बेचैन हो जाए। 

पर दस मिनट की किस्सागोई सुनने के बाद पत्रकार ने अच्छा सवाल पूछा। सर्जिकल स्ट्राइक का असर क्या हुआ? पाकिस्तान तो वही हरकतें कर रहा है, जो वो कर रहा था।

यहां मोदीजी दार्शनिक अंदाज में बोले। 

जवाब दिया – पाकिस्तान एक लड़ाई से नहीं सुधरेगा। ये सोचना बड़ी गलती होगी कि पाकिस्तान एक लड़ाई से सुधर जाएगा।

इशारा साफ है, इंतजार कीजिए, और जंगों का। 

किसान का एक बेटा खेत में सुसाइड करेगा, और दूसरा बेटा सरहद पर मारा जाएगा।
और लेख के आखिर में ऊपर लिखी दो लाइन दोहराना चाहूंगा। चेहरे की हलचल, भावनाओं के उतार-चढ़ाव और आवाज के आरोह-अवरोह से समां बंधता जरुर है। पर सवालों के असल जवाब नहीं मिलते।