हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Wednesday, September 30, 2009

ये जो लिख रहा हूं मैं


क्या? ये गहरा प्रेम मेरा
सार्थक हो पाएगा
या यूं ही
सदा शब्दों के फूल खिलाने होंगे।।
क्या? तुम समझोगे इनके अर्थ
ये जो लिख रहा हूं मैं
इसका कुछ तो मतलब होगा
या यूं ही अनजाने से
पड़े रहेंगे / कागज पर चुपचाप।।
मेरे मन के भावों की
सीमा को नाप सकोगे क्या?
यां यूं ही
उथला जान भूला दोगे
क्या? मेरे कविता के शब्दों का
तुम पर सम्मोहन होगा
या यूं ही
ये निष्फल से होकर / पछताएंगे।।

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Saturday, September 19, 2009

कलावती को देखा है ?


तो कलावती भी चुनाव लड़ेगी। आप कहेंगे, कौन .... कलावती भाई?
तो जवाब है... वो कलावती, जिसकी अपनी कोई पहचान नहीं है। लेकिन आप इस कलावती को घर से बाहर आते-जाते कहीं भी पहचान सकते हैं। ये कलावती देश के उन करोड़ों भूखे लोगों में से ही एक है, जो एक वक्त भरपेट खाने के लिए तरसती आंखों से दूसरे के खाने को देखती हैं। वो कलावती जिसका पति ७-८-९-१० बच्चे पैदा करने के बाद एक दिन इसलिए फांसी लगाकर मर जाता है, कि वो साहूकार का कर्ज़ नहीं चुका सकता। ये कलावती उन करोड़ों में से एक है, जो गोल-गोल रोटी के अलावा कोई दूसरा सपना नहीं देखती।

लेकिन गरीबी, लाचारी और मुफलिसी के बाद भी सपने हैं कि आंखों में तैर ही जाते हैं। तो कलावती जिसके लिए एक वक्त की रोटी भी मुश्किल है, चुनाव लड़ेगी। सवाल ये है कि ये सपने मुफलिसी में जागे कैसे? आखिर वो कौन सी बात है.... जो मुफलिसी में भी पलती है... और आगे बढ़ती है। दरअसल कलावती वो औरत है, जिसने मुफलिसी के उस तिम छोर को देख लिया है, जहां से नीचे कुछ नहीं।... नौ बच्चे और कलावती। जहां उसके पति ने हिम्मत हारी थी, वहीं से कलावती को आगे बढ़ना था..... नौ बच्चों के साथ। कलावती भी खा सकती थी सल्फास की एक गोली, शायद ये उस जैसे मुफलिसी में आसान रास्ता होता, लेकिन कलावती ने मुश्किल रास्ता चुना। कलावती को मरना मंजूर नहीं था। उसे जीना था।
वैसे बात कलावती की पहचान की हो रही थी। तो कलावती की एक पहचान भी है। कलावती वो महिला है, जिसकी झोपड़ी पर कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी एक बार गए थे। जैसे गरीब की कुटिया पर भगवान पधारे थे। कांग्रेस के युवराज के जिस जगह कदम पड़ें, वहां दूसरे नेता ना जाएं। ऐसा भला कैसे हो सकता है ? नेता भी गए, और पीछे-पीछे कैमरे भी। और कलावती अखबारों में छपने लगी। इससे भी अधिक टीवी चैनलों ने रातों-रात कलावती के ज़रिए भारत की सुदूर गांव की गरीबी को उभार कर रख दिया।
इसका कितना फायदा कलावती या उसके गांव के दूसरे लोगों को हुआ पता नहीं। लेकिन कलावती को इसने आम से कुछ खास ज़रुर बना दिया। हालांकि दिक्कतें उतनी ही हैं अभी भी। कलावती विदर्भ के उन हज़ारों किसानों की विधवाओं का प्रतीक बन गई है। जिन्होने सूखे... और फिर साहूकारों के जाल में फांसी का फंदा लगा लिया... या फिर ज़हर खाकर अपनी जान दे दी।
कलावती चुनाव लड़ेगी। लेकिन उसे कांग्रेस टिकट नहीं दे रही। वो गरीब है, उसके पास तो नामांकन के लिए भी पैसे नहीं होंगे। और उसके अमीर प्रत्याशियों के सामने जीतने की कितनी उम्मीद है ? बीजेपी या शिवसेना भी उसे टिकट नहीं देगी, क्योंकि उन्हें कलावती में जीत की कोई उम्मीद नज़र नहीं आती।
सब जानते हैं, कि कलावती का चुनाव लड़ना क्या है? जहां केवल हार-जीत के मायने हों। वहां कोशिश का मतलब भी क्या है? लेकिन विदर्भ के किसानों की मुश्किलों और उनके खराब हालातों के लिए आवाज़ उठा रहे लोगों के लिए इसके मायने हो सकते हैं। और उन तमाम हज़ारों लोगों के लिए तो और भी अधिक जिन्होने सूखे और साहूकारों के जाल में अपनों को खो दिया।
हालांकि एक बड़ा सवाल फिर भी बाकी है, कि वणी क्षेत्र के लोग मतदान के दिन पचास रुपए के नोट से अपने वोट को बेच तो नहीं देंगे? ( वणी वही जगह है, जहां से कलावती विदर्भ जनसंघर्ष समिति के समर्थन से चुनाव लड़ने की बात कह रही है).... कहीं मतदान के दिन भूखे लोगों की भूख इस क़दर तो नहीं बढ़ जाएगी, कि उसको सहन कर पाना मुश्किल हो जाएगा? और फिर १० रुपए का एक नोट और घर भर के लिए खाना वोट के लिए काफी है। ज़ाहिर है, कुछ लोग इस फिराक में तो होंगे ही, कि कैसे भूखे लोगों के वोट को दो रोटी से खरीद लिया जाए।
अगर अपने ही हालातों से जूझती, लड़ती कलावती हारी तो ये तय हो जाएगा, कि वणी के लोग और कुछ सालों के लिए वैसे ही हालातों में जीने को अभिशप्त हैं।

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