पहाड़
पहाड़ों से ढलकती हुई
ठंडी हवा मैदान में आ जाती है ।
खूब सारा ठंडा पानी भी
ढलानों से नीचे की ओर सरक जाता है ।
सफेद-सफेद छक बर्फ भी
अधिक दिनों तक नहीं रुकती
पानी की शक्ल में तीखे गहरे नालों में बहती है ।
मीठे-मीठे सेब
और दूसरे खूबसूरत फल
ट्रकों पर लदकर निकल आते हैं ।
हर साल ढेर सारा प्यार
पोटली में बंद होकर
हल्द्वानी और देहरादून के रास्ते निकल जाता है ।
'मां' पुचकारती है
चंद दिनों की छुट्टी में...
और फिर सरहदों पर
या भीड़ भरी तंग गलियों में
मां की याद आती है ।
ढेर सारी जवानी भी
रोक नहीं पाते पहाड़
हट्टा-कट्टा करने के बाद
क्या मिलता है इन्हें ?
फिर कभी आते हैं
पहाड़ी ढलानों पर खेलने वाले
सैलानी बनकर.... काले चश्मे लगाए
और कहते हैं.... यहां कुछ नहीं बदला है
बहुत सी कमियां हैं यहां
और एक लिंटर वाला मकान बनाकर
लौट पड़ते हैं ।
सालों से खड़े पहाड़
बरस... दर बरस यही देख रहे हैं ।।
Labels: मेरी रचना