हिमाल : अपना-पहाड़

बस एक कामना, हिम जैसा हो जाए मन

Thursday, April 30, 2009

महिलाओं ने जीती जंग

'नशा नहीं रोजगार दो' ये नारा उत्तराखंड के लिए नया नहीं है। इस नारे को लेकर उत्तराखंड की महिलाओं ने एक लंबी लड़ाई लड़ी है। ये लड़ाई आज भी जारी है। वक्त बेवक्त जब जनता की चुनी हुई सरकार आधी दुनिया की भावनाओं का तिरष्कार करती है, तो 'नशा नहीं रोजगार दो' एक इंकलाब बनकर महिलाओं का संबल बन जाता है। अल्मोड़ा के बसौली कस्बे में महिलाओं ने एकबार फिर से शराब के खिलाफ आंदोलन चलाया और कामयाबी पाई।

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( ये लेख बसौली को करीब से जानने वाले महेश जोशी ने नैनीताल-समाचार के ताज़ा अंक १४ से ३० अप्रैल में लिखा है। इस लेख नैनीताल समाचार के सौजन्य से यहां छाप रहा हूं।)
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अल्मोड़ा ज़िला प्रशासन ने बसौली कस्बे से शराब दुकानें पांच किलोमी दूर हटाने का भरोसा दिया।
जिसके बाद शराब विरोधी संघर्ष समिति, मल्ला स्यूनरा ने आंदोलन स्थगित कर दिया। बसौली में महिलाएं २८ मार्च से शराब की दुकानों के आगे धरना दे रही थीं। महिलाओं ने शराब की दुकानों पर ताला डालकर शराब की बिक्री रोक दी महिलाओं ने प्रशासन को चेतावनी दी, कि अगर शराब की दुकाने नहीं हटाई गयी, तो ६ अप्रैल की दोपहर से अनिश्चितकालीन चक्का जाम लगा दिया जाएगा।


जैसा कि हमेशा होता है, प्रशासन ने महिलाओं की बात को गंभीरता से नहीं लिया। आचार संहिता का बहाना बनाकर आंदोलनकारियों को फुसलाने की कोशिश हुई। इधर शराब की बिक्री बंद होने के बावजूद शराबियों की संख्या में कोई कमी नहीं हुई। इसने महिलाओं की चिंता बढ़ा दी। जिसके बाद महिलाओं ने आसपास की गतिविधियों पर नज़र रखना शुरू किया। महिलाओं को पता चला कि शराब के सेल्समैन कुछ और दुकानदारों के साथ मिलकर बाहर ही बाहर शराब बेच रहे हैं। बस फिर क्या था महिलाओं ने इसका विरोध करना शुरू किया। लेकिन ऐसा करने पर महिलाओं को धमकियां मिलने लगी। धमकियों ने महिलाओं को डराने के बजाय एकजुट कर दिया। और सभी महिलाएं अपने अस्तित्व और आत्म-सम्मान के लिए एकजुट हो गयी।

लेकिन इसी बीच ३० मार्च को अल्मोड़ा में हुई नीलामी में बसौली की दुकानें पुराने ठेकेदार के नाम होने की ख़बर ने आंदोलनकारियों को सकते में डाल दिया। कहां तो आंदोलनकारी पूरे इलाके में शराब बंदी के लिए आंदोलन कर रहे थे, और कहां ये नीलामी की ख़बर। इस ख़बर ने आग में घी का काम किया। आंदोल को और जन समर्थन मिलने लगा। व्यापार संगठन और ग्राम प्रधान संघ ने आंदोलन के समर्थन में प्रशासन को ज्ञापन सौंपे। महिलाओं ने अल्मोड़ा-बागेश्वर राष्ट्रीय राजमार्ग पर हर रोज़ दोपहर बाद प्रदर्शन और सांकेतिक चक्का जाम कर प्रशासन को चेताया।


लेकिन प्रशासन को इस आंदोलन से कोई फर्क नहीं पड़ा। प्रशासन शराब की इन दुकानों को आसपास ही कहीं खिसकाने की फिराक में लगा रहा। इससे सतराली, ताकुला, डोटियालगांव, भकूना, झिझाड़, चुराड़ी, गंगलाकोटली, भैसोड़ी, हड़ौली, सुनोली आदि गांवो की महिलाएं भी बसौली के आंदोलन में आने लगी। अब महिलाओं का रात-रात भर जागरण शुरू हो गया।

अप्रैल की सुबह से ही आंदोलनकारी जुटने लगे थे। दोपहर तक सैकड़ों महिलाएं धरने पर बैठ चुकी थीं। और उनका आना लगातार जारी था। महिला संगठन की अध्यक्ष लक्ष्मी देवी के नेतृत्व में नारों और जनगीतों के साथ अनिश्चितकालीन चक्का जाम शुरू हुआ। महिलाओं के सामने एक बड़ा सवाल था। शराब उनके घर उजाड़ रही है। उनके नौजवान बेटे शराब के चंगुल में फंसकर अपना सबकुछ गवां रहे हैं। घर के मर्द शराब पीकर अपना सबकुछ बरबाद करने में लगे हैं। ज़ाहिर है घर संभालने वाली महिलाएं अपनी आंखों के सामने ये सब नहीं देख सकती। इसलिए उनके सामने ये सवाल करो या मरो बनकर खड़ा हो गया था। आंदोनकारियों ने लान कर दिया कि अगर सरकार अभी भी नहीं जागी, तो लोकसभा चुनावों का बहिष्कार किया जाएगा।


महिलाओं के शांतिपूर्ण आंदोलन के बावजूद सोया प्रशासन अब जाग गया। आंदोलनकारियों के चक्का जाम से सड़क के दोनों ओर वाहनों की लंबी-लंबी कतारें लग गयी। ये प्रशासन के लिए एक खराब स्थिति थी। महिलाओं के तेवर से प्रशासन में हड़कंप मच गया। अंतत: तीन घंटे बाद ज़िला प्रशासन को महिलाओं के आगे झुकना पड़ा। प्रशासन की ओर से नायब तहसीलदार जगन्नाथ जोशी ने सूचना दी कि ज़िला प्रशासन दोनों शराब की दुकानों को बसौली से पांच किलोटर दूर हटाने को सहमत हो गया है। लेकिन महिलाएं अभी भी जाम खोलने को तैयार नहीं हुई। महिलाएं चाहती थी, कि डीएम या एसडीएम स्तर का कोई अधिकारी आकर भरोसा दिलाए। करीब साढे तीन घंटे बाद चक्का जाम खोल दिया गया। लेकिन महिलाओं ने धरना जारी रखा।


देर शाम एसडीएम और ज़िला आबकारी अधिकारी को घरना स्थल पर ना ही पड़ा। और उन्होने महिलाओं को भरोसा दिलाया कि शराब की दुकानें बसौली से पांच किलोमीटर दूर हटा दी जाएंगी। इस आश्वासन के बाद आंदोलनकारियों में खुशी की लहर दौड़ गयी। गांव की महिलाओं ने अपने दम पर प्रशासन को झुका दिया था। हालांकि अब ये दुकानें बसौली से हटाकर कहां ले जाई जाएंगी ? इस सवाल ने संभावित गांवों की महिलाओं की हलचल बढ़ा दी है। अनुमान लगाया जा रहा है कि इन शराब की दुकानों को बसौली से हटाकर भेटूली, अयारपानी या फिर कफड़खान ले जाया जा सकता है। ज़ाहिर है अब वहां की महिलाएं बैचेन हो गयी हैं। अब बारी एक और आंदोलन की है.... जिसके स्वर संभवतया लोकसभा चुनाव के बाद सुनाई पड़ें। लेकिन फिलहाल बसौली की औरतें अपनी जीत पर गर्व तो कर ही सकती हैं।


(अनुमान है कि सरकार को बसौली की दुकानों से डेढ़ करोड़ के आसपास का राजस्व मिलता है। )

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Tuesday, April 28, 2009

जहां लिखना सीखा

मैं जैसा भी हूं, ऐसा क्यों हूं ? जब मैंने ये सवाल ख़ुद से पूछा, तो मैं मेरे अतीत में चला गया। अतीत के पन्नों पर पड़ी धूल को हाथों से साफ किया.... तो फिर कई पन्ने साफ-साफ चमकने लगे। इनमें से कुछ पन्ने बड़े चमकदार हैं। अतीत के एक पन्ने पर चमकीले अक्षरों से एक नाम लिखा है.... राजीव लोचन साह।

राजीव लोचन साह पेशे से पत्रकार हैं, लेकिन पत्रकारिता इन्हें इतना नहीं देती कि इससे रोटी का जुगाड़ हो सके। सो रोटी के लिए होटल का पुश्तैनी व्यवसाय करते हैं। लेकिन जितना मैंने देखा पत्रकार राजीव लोचन साह में व्यावसायी राजीव लोचन साह कभी हावी नहीं हुआ।

दरअसल इस नाम की ज़िक्र करना मेरे लिए सबसे अहम है। जब अपने बारे सोचता हूं, और सवाल करता हूं... कि मैं क्या हूं ? मेरी पहचान क्या है ? जवाब में एक छोटी सी पहचान उभरती है....ये पहचान पत्रकार की है। कम ही लोग जानते होंगे पर यही सबसे अधिक सही है। फिर मैं सोचता हूं कि ये पत्रकार कैसे बना ? सवाल के जवाब में राजीव लोचन साह सामने आ जाते हैं।

दरअसल कॉलेज के ज़माने से मैं लिखना चाहता था। लिखना और अपने लिखे हुए को पढ़ना काफी मज़ेदार लगता था। बात 1998 की है.... लिखने के शौक ने मुझे हमारे कॉलेज से निकलने वाली छात्र पत्रिका का संपादक बना दिया। तब मैं बीए दूसरे साल का छात्र था। शुरुआत में कविता और कुछ इधर-उधर का लिखता रहा। सोचता था कि किसी दिन किसी अखबार में लिख सकूंगा या नहीं ? फिर एक दिन साल 2001 के मई महीने में मेरे एक दोस्त ने मुझे राजीव लोचन साह से मिलाया। दरअसल राजीव जी मेरे उस दोस्त से कुछ लिखवाना चाहते थे। लेकिन उसकी उस वक्त लिखने में रुचि नहीं थी। और मेरा दोस्त मुझे उनसे मिलाने ले आया। मैं बड़ा खुश हुआ, हालांकि ये अंदाज़ा मेरे लिए मुश्किल था... कि मुलाकात के बाद क्या होगा ?
मेरे दोस्त ने मुझे राजीव जी से मिलवाने की बात कही। और थोड़ी ही देर में हम दोनों उनके ऑफिस में थे। ये 'नैनीताल-समाचार' का ऑफिस था। देखने में बिल्कुल सामान्य सा। लेकिन मेरे लिए किसी सपने जैसा। अख़बार का ऑफिस कैसा होता होगा ? इससे पहले कभी सोचा ही नहीं था। 'नैनीताल-समाचार' नैनीताल से निकलने वाला एक पाक्षिक अख़बार है... जो पंद्रह दिन में एक बार निकलता है। पिछले 32 सालों से निकल रहे इस अख़बार ने उत्तराखंड के हर उस पहलू को अपने पन्नों में समेटा है.... जिसे आमतौर पर मुख्यधारा के अख़बार नज़रअंदाज़ करते रहे हैं।

मेरे दोस्त ने मेरा परिचय राजीव लोचन साह से करवाया। ये जितेंद्र है.... मेरा दोस्त। इसे लिखने का शौक है... अगर आप चाहें... तो इससे लिखवा सकते हैं... मेरे दोस्त ने कहा। राजीव जी ने मुझसे मेरे बारे में पूछा, मैं किस विषय से पढ़ रहा हूं.... आदि-आदि। और फिर बिना किसी भूमिका के मुद्दे पर आ गए।..... क्यों नहीं तुम मशरुम की खेती के बारे में एक आर्टिकल लिखते ? मेरे पिताजी राज्य सरकार के एक मशरुम प्रोजेक्ट में ही काम करते थे। इसलिए ये आर्टिकल लिखना... मेरे लिए आसान होगा..... शायद ये राजीव जी ने समझ लिया था। उन्होने कहा... अगर जल्दी लिख दोगे... तो अख़बार के इसी अंक में भेज देंगे।
ये मेरे लिए किसी चैलेंज से कम नहीं था। जैसे पत्रकारिता का पहला इम्तिहान। मैं दूसरे दिन कॉलेज नहीं गया...मुझे दूसरी पढ़ाई करनी थी। मैं एक छात्र से एक पत्रकार बन गया था। उस दिन मैंने देखा कि जिस-जिस से मैंने बात की उनका नज़रिया मेरे प्रति बदल गया था। लोग मेरी बातों को गंभीरता से ले रहे थे। मेरे सवालों का वहां कोई मतलब था। लोग मेरे सामने अपनी परेशानी बयां कर रहे थे। जैसे मैं उन्हें सुलझा दूंगा। मुझे उस दिन लगा पत्रकार बनना एक ज़िम्मेदारी भी है।

पत्रकार बनने और अपना लिखा एक अख़बार में छपा हुआ देखने की इच्छा ने मुझमें काफी ऊर्जा भर दी थी। मैंने एक दिन में ही अपना लेख तैयार कर लिया। और उसे लेकर दूसरे दिन नैनीताल समाचार के ऑफिस पहुंच गया। मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था। राजीव जी ना जाने मुझसे क्या कहेंगे ? क्या मैंने सही लिखा है ? राजीव जी को अपना लेख देते हुए.... की तरह के विचार मन में कौंधते रहे। राजीव जी ने लेख ऊपर से नीचे देखा.... और उसमें सुधार करने के कुछ सुझाव दिए। मैंने वहीं ऑफिस में बैठक अपने लेख को रीराइट किया। और उन्हें थमा दिया.... इस बार वो कुछ संतुष्ट थे। ये मेरे लिए मेरा इम्तिहान सही निपटने जैसा था।.... लेकिन अभी रिजल्ट आना बाकी था।

अपना लेख छपा हुआ देखने के लिए मुझे एक हफ्ता इंतज़ार करना पड़ा।.... लेकिन उस पहले लेख को देखकर जितनी खुशी मुझे हुई... उतनी शायद कभी नहीं। इस लेख को सीन से चिपटाए... मैं घर पहुंचा था।..... पिताजी को अख़बार दिखाया.... मां को पढ़कर सुनाया। सब खुश हुए... तो मुझे लगा... जैसे एक बड़ा काम हुआ। बस तब से मैं नैनीताल समाचार से जुड़ गया। कॉलेज के बाद कुछ वक्त नैनीताल समाचार में ही बीतने लगा। रोज २-३ घंटे मैं नैनीताल-समाचार के ऑफिस में आकर देखता कि किस तरह लोग ख़बरों के बारे में बातें कर रहे हैं। धीरे-धीरे मैं बहस का हिस्सा बनने लगा था। ये मेरी अघोषित ट्रेनिंग का हिस्सा था। तब शायद इस बात का अहसास नहीं था, कि मैं क्या सीख रहा हूं ? पर आज जब अपने इर्द-गिर्द लोगों को देखता हूं तो महसूस होता है कि मैंने क्या पा लिया ?

नैनीताल समाचार के माध्यम से सीखा कि किस तरह क्षेत्रीय मुद्दे क्षेत्रीय अहम होते हैं। किसी स्थानीय घटना के राष्ट्रीय मायने क्या हो सकते हैं ? ये नैनीताल समाचार के अलावा कहीं नहीं सीख सका। पत्रकारिता की औपचारिक पढ़ाई करते हुए आईआईएमसी में काफी कुछ सीखा। लेकिन असल ख़बरें और उनके सामाजिक सरोकारों के बारे में नैनीताल समाचार ने ही सिखाया। किसी घटना को कैसे ख़बर की चाशनी में लपेट कर लोगों के सामने पेश किया जाए.... इसका हुनर नौकरी के दौरान आ गया। लेकिन एक मज़लू की ज़िंदगी में होने वाली त्रासदी किस तरह ख़बर है.... ये नैनीताल समाचार में ही सीखा।

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Friday, April 24, 2009

बहुत दिन हुए / तुमसे बात नहीं की

रात बड़ी ठंडी सी थी
कोहरा छाया था / चारों ओर
अपना हाथ ही
पराया सा लगता था
ज़रा सी आवाज़
शोर भरती थी
सांस सांय सांय करती थी ।।

सुनसान सा हो गया था / सबकुछ
तुम्हारे जाने के बाद
बहुत देर तक सोचता रहा मैं
तुम्हारे बारे में
घंटे / सर-सर निकल गए ।।

पर तुम्हारे होने का अहसास अब भी है
तुम्हारी आवाज़
अब भी गूंजती है / कानों के पास
तुम्हारे शब्द
संगीत से बनकर / बज रहे हैं ।।
रात अब भी उतनी ही ठंडी है
कोहरा और घना हो गया है
हाथ मेरा / और ठंडा सख़्त
परायापन / पहले से कहीं अधिक लगता है ।
बहुत दिन हुए ना...
तुमसे बात नहीं की ।।


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काफल, हिसालु और किलमोड़ी के बहाने



दो घंटा पहले काफल की एक लोककथा लिखी थी। और फिर मैं सो गया। अचानक नींद में कुछ सूझने लगा। इस बार काफल के साथ हिसालु और किलमोड़ी आए थे। तीनों मेरी उंगली पकड़कर मुझे बचपन में खीं ले गए। नींद खुल गयी है, अब क्या करुं ? सोचा क्यों ना उन पन्नों को पलटा जाए, जब ऊंचे-नीचे पथरीले रास्तों पर दौड़ लगाते हम काफल, हिसालू और किलमोड़ी खाने रुक जाते थे।

जब भी गर्मियों की छुट्टियां पड़ती, पिताजी हम सब बच्चों को पहाड़ भेज देते। वैसे जहां गांव में मेरा घर था, वहां शहर की हवा नजदीक से ही बहती है। नैनीताल से सिर्फ तीन किलोमीटर की दूरी पर है, मेरा गांव। गेठिया हते हैं, इसे लोग। लेकि हवा, पानी, काफल, हिसालु और किलमोड़ी गेठिया को गांव बनाते हैं।

दो महीने की गर्मियों की छुट्टी पूरे साल का रिचार्ज कूपन हुआ करती थी। जैसे गर्मियों में निचले मैदानों से पक्षी पहाड़ों की ओर रुख करते हैं। वैसे ही हम बच्चे भी बिना पंखों के पहाड़ चले आते। वैसे तब पंख थे, मेरे पास..... कल्पना के पंख। मां पहाड़ पहुंचते ही सख्त हिदायत देती, बेटा गर्मी से आए हो... इसलिए खाने पीने का ख़ास ध्यान देना है। अधिक मत खाना कुछ भी। पर मां की कौन सुनता था, उन दिनों भला ?

वैसे गर्मियों के दिन पहाड़ों में फलों के दिन होते हैं। आड़ू, खुमानी, सेब और पूलम पेड़ों में लदे रहते हैं। लेकिन इन पर इनके मालिकों की नज़र रहती है। तो बच्चे क्या करें ? बच्चों की इस परेशानी को प्रकृति ने शायद सबसे पहले समझ लिया था। इसलिए गर्मियों में जगंली फल भी पहाड़ों में खूब लगते हैं। इन जंगली फलों का कोई मालिक नहीं होता। जिस पेड़ पर चाहे चढ़ जाइए, और जी भरकर खाइए काफल। और अगर पेड़ में चढ़ने की हिम्मत और ताकत नहीं है, तो फिर हिसालु और किलमोड़ी खाकर प्रकृति के इन लाजवाब फलों का मजा लिजिए।

मां कहती थी, बेटा हिसालु और किलमोड़ी खाने से पेट में दर्द होता है। एक अनजाना डर रहता, कि अगर पेट में दर्द हुआ, तो मां क्या कहेगी ? लेकिन फिर हिसालु और किलमोड़ी की झाड़ियां दिखती, तो मन पर काबू नहीं रह पाता। पीले-पीले, काले-जामुनी हिसालु छोटे मन पर लालच भर देते। एक-एक हिसालु हाथ से टूटता और मुंह में घुल जाता। कई बार ये सिलसिला काफी देर तक चलता रहता। मैं शहर से गांव पहुंचता था, इसलिए हिसालु की कांटेदार टहनियां अक्सर मेरे हाथों में चुभ जाती थी। कई बार इससे खून बहने लगता। इसलिए मेरे गांव के संगी साथी मेरे लिए थोड़े-थोड़े हिसालु तोड़ लेते... और मुझे खिला देते।

हिसालु मीठे थे, तो किलमोड़ी थोड़ी खट्टी होती थी। लेकिन इसको खाने का मजा भी अलग ही था। किलमोड़ी खाने से मां अधिक रोकती थी। मां का कहना था, इससे बच्चों के पेट में दर्द होता है। लेकिन मेरे साथ के सारे बच्चे रोज किलमोड़ी खाते। और उनके पेट में दर्द नहीं होता। तो मैं सोचता क्यों ना मैं भी इसका मजा लूं ? .... यही सोचकर मैं भी किलमोड़ी खाने निकल पड़ता। लेकिन किलमोड़ी खाना इतना आसान नहीं है। किलमोड़ी खाकर आप ये नहीं कह सकते कि आपने ये फल नहीं खाया। दरअसल किलमोड़ी का जामुन की तरह का रंग हाथों और होठों को रंग देता था। और मां काले जामुनी हाथों को देखकर अपनी डांट मुझ पर छोड़ देती।

काफल छोटे बच्चों की पहुंच में नहीं होता। ये बड़े-बड़े पेड़ों में लगता है। बड़े-बड़े जंगली पेड़ों में। जो गर्मियों में लाल-लाल काफल के दानों से भर जाते हैं। दूर घने जंगलों में काफल के पेड़ पर लाल-लाल दाने दूर से ही चमकते हैं। लोग पेड़ों पर चढ़कर फल के एक-एक दाने को टोकरी में भर लेते हैं। मैं बचपन में जंगल नहीं जा सकता था, इसलिए घर पर लाए गए काफलों का मज़ा लेता।

ये बचपन की बात है, करीब पंद्रह साल पुरानी। तब से अबतक वक्त काफी बदल गया है। अब गांव में जाने का उतना वक्त नहीं मिलता। अगर कभी पहुंचे तो भी उतना समय नहीं होता, कि हिसालु और किलमोड़ी खाने की हिम्मत की जाए। हिसालु और काफल की झाड़ियां भी पिछले दिनों में सिमटती जा रही हैं। अब जंगल सिकुड़ गए हैं... इसलिए काफल के लिए भी लोगों को और दूर के जंगलों में जाना पड़ता है। काफल और हिसालु इतने कम मिलते हैं कि नैनीताल जैसे शहर में जहां गर्मियों के दिनों में सैलानियों की आमद बढ़ जाती है। हिसालु और काफल इन दिनों किसी दूसरे फल की तुलना में अधिक महंगा बिकता है। काफल पचास से सौ रुपए किलो और हिसालू की एक नन्ही सी टोकरी पांच से दस रुपए की होती है। इस नन्ही सी टोकरी में पचास ग्राम हिसालु भी नहीं आते। लेकिन सैलानियों के लिए प्रकृति के इन नायाब फलों का स्वाद चखना किसी नए अनुभव से कम नहीं। सो इन दिनों गांव के बच्चों को थोड़ा पैसा कमाने का अच्छा ज़रिया मिल जाता है। बच्चे दिनभर जंगलों से काफल और हिसालु जमा करते हैं। और फिर इन्हें बाज़ार में बेचकर थोड़ा पैसा कमा लेते हैं।

लेकिन अब जब कोई बच्चा गर्मियों में शहर से गांव पहुंचता है, तो काफल, हिसालु और किलमोड़ी मिलना उतना आसान नहीं रहा। ख़ासतौर से नैनीताल के नजदीक के इलाकों में। जहां इन दिनों तेज़ी से मकान बनने लगे हैं। सोचता हूं.... क्या 25 साल बाद भी प्रकृति की ये नायाब देन हमें यूं ही मिलती रहेगी ?


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